रविवार, 21 अप्रैल 2013

बंगाली प्रवासी समुदाय को खली दुर्गा पूजा की कमी

यह स्वभाविक है कि विदेश में लंबे समय तक रहने से अपने देश, अपने क्षेत्र के रीति रिवाज़, त्यौहार आदि बहुत अधिक खलने लगते हैं। ऐसा यहां रह रहे बंगाली समुदाय के साथ भी है। म्युनिक निवासी अमिताव दास का कहना है कि दुर्गा पूजा बंगाल का सबसे बड़ा त्यौहार है। इसमें लोग आपस में मिलते हैं, मिठाईयां और कपड़े बांटते हैं, बड़े लोगों का बच्चों को उपहार देते हैं आदि। केले के वृक्ष को गंगा में ले जाकर धोते हैं, फिर उसे लाईटों से सजाते हैं। दुर्गा पूजा के दौरान पंचमी से लेकर दश्मी तक हर दिन उत्साह के साथ मनाया जाता है। अष्टमी और नवमीं तो बहुत महत्वपूर्ण होता है, लोग जैसे पागल हो जाते हैं। हर गली में पण्डाल लगे होते हैं। लोग हर पण्डाल में जाकर अवलोकन करते हैं कि वह पण्डाल कैसा बना है। उनमें आपस में बहुत प्रतिस्पर्धा होती है।इसके अलावा लक्षमी पूजा, जिसे बंगाल में लक्खी पूजा कहा जाता है और सरस्वति पूजा भी बंगाल में खूब ज़ोर शोर से मनाई जाती है। दूसरा बड़ त्यौहार है 'भाई दूज', जिसमें बहनें भाईयों के माथे पर टीका लगाती हैं। यहां भी बहुत लोग आपस में मिलते हैं। इन सब आयोजनों की कमी यहां रहने वाले बंगाली समुदाय को काफ़ी खलती है। वे आगे कहते हैं कि स्टुटगार्ट में लोग बड़े स्तर पर पूजा करते हैं। हम वहां जाते हैं, पैसा दान करते हैं, तीन चार दिन रहते हैं। इन दिनों मांस बिल्कुल नहीं खाया जाता और केवल पुरोहित ही सब पूजा पाठ करता है, मन्त्र आदि पढ़ता है। उन्होंने भी दो बार दुर्गा पूजा आयोजित करने का प्रयत्न किया लेकिन असफ़ल रहे।

दीवाली यानि काली पूजा भी बड़ा त्यौहार है। इसमें तो दुर्गा पूजा से भी दस गुना अधिक खर्च किया जाता है। इसमें तो मांस भी खाया जाता है। नगरपालिका, फ़ायर ब्रिगेड एक दिन से अधिक पण्डाल को रहने नहीं देते क्योंकि पण्डाल सड़क रोक कर बीच में लगाया जाता है, इसलिये पण्डाल को दस दिन तक रखने के लिये दूसरे तरीके निकालने पड़ते हैं। बहुत हल्ला गुल्ला होता है। दस बजे के लाउडस्पीकर का उपयोग वर्जित होता है लेकिन फिर भी गाने चलते हैं, फ़िल्में दिखाई जाती हैं, नाटक आदि भी किये जाते हैं। बहुत से छोटे छोटे क्लब इस तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करते हैं।

और एक चीज़ की कमी खलती है, बंगाली कहानियों की किताबें। बंगाल में बड़े बड़े साहित्यकार पैदा हुये हैं जैसे रवीन्द्रनाथ टैगोर, बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय, मधुसुदन दत्त आदि। बंगाली जहां भी जाते हैं, बंगाली पुस्तकों का पुस्तकालय अवश्य बनाते हैं। म्युनिक में ऐसा एक पुस्तकालय बनाने पर विचार चल रहा है।

म्युनिक में काफ़ी अरसे से रहने वाले मूलतः बंगाल निवासी Edward gomes बंगाल के रस भरे रसगुल्लों को याद करते हुये कहते हैं कि कोलोन, बर्लिन जैसे शहरों में भी बंगाली समुदाय काफ़ी बड़ा है और वे लोग मिलजुल कर पूजा का आयोजन करते हैं। लेकिन म्युनिक में लोग कम हैं। उनमें भी एकता की कमी है और पैसा लगाने में हिचकिचाते हैं। कुछ वर्ष पहले म्युनिक में कुछ बंगाली लोगों ने 'भारतीय संघ' नामक एक संस्था बनायी थी लेकिन अब वह संस्था लगभग निष्क्रीय है। उन्होंने पंकज उधास, मन्ना डे आदि जैसे कलाकारों को म्युनिक बुलाया था। यहां बंगालियों की अपेक्षा बंगलादेश के लोग बहुत अधिक हैं। धर्म को छोड़कर भाषा, सांस्कृति, बोलचाल, खाना पीना, पहनावा सबकुछ एक सा है।