रविवार, 21 अप्रैल 2013

जर्मनी राजधानी बर्लिन में 'राज-भाषा हिन्दी दिवस'

सुशीला शर्मा हक'हिन्दी प्रेम प्यार की बोली
यह तहज़ीब पुरानी
हिन्दी के संग संग चलती है
भारत की हर बानी।'

14 सितम्बर 2009! 'राज-भाषा दिवस' का समारोह और जर्मनी की राजधानी बर्लिन के राज-दूतावास के गरिमामय कक्ष में, भारतीय तथा जर्मन बुद्धिजीवियों, सुधीजनों के बीच यह प्रेम की बानी गूंज-अनुगूंज बनकर फैल गई, लोगों के दिलो-दिमाग में एक ऐतिहासिक स्मृति बनकर बस गई। बर्लिन के राज-दूतावास तथा टैगोर सांस्कृतिक केन्द्र के निदेशक श्री राकेश रंजन के सत्प्रयासों से और बर्लिन स्थित 'लेडीज़ कॉर्नर' संस्था तथा इण्डो-जर्मन संस्थान के सहयोग से 'राज-भाषा दिवस' के इस समारोह का आयोजन किया गया था। इस समारोह में एक अपूर्वता थी, और वह यह कि यों टैगोर सेंटर के तत्वावधान में अनवरत अनेक कार्यक्रम आयोजित होते हैं जिनमें बड़ी तादाद में बहुदेशीय, बहु-भाषी जन सहभागी होते हैं और उनमें मंच से और श्रोताओं-दर्शकों के बीच प्रयुक्त होती भाषा अधिकांशतः जर्मन होती है, कभी कभार अंग्रेज़ी का भी प्रयोग किया जाता है। लेकिन इस समारोह में पूरा कार्यक्रम हिन्दी भाषा में था। संचालन हिन्दी भाषा में था, वक्ताओं के भाषण हिन्दी भाषा में थे, यहां तक कि मंच-प्रस्तुतियां भी हिन्दी में थीं, वो भी मूल जर्मन भाषी बच्चों किशोरों, युवतियों-महिलाओं द्वारा।

राज-भाषा- संपर्क भाषा - घर परिवार की भाषा
कार्यक्रम का प्रारंभ टैगोर सेंटर के निदेशक श्री राकेश रंजन के स्वागत भाषण से हुआ। उन्होंने भारत गणराज्य की राज-भाषा हिन्दी के बारे में बताते हुए कहा कि ठीक 60 वर्ष पहले, 26 सितम्बर 1949 को भारत की संविधान सभा ने हिन्दी को भारत की राजभाषा बनाए जाने का प्रस्ताव पारित किया। इस उपलक्षय में 14 सितम्बर को राजभाषा दिवस मनाया जाता है। साथ ही उन्होंने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि माता-पिता, अभिवाहक और सामाजिक सरोकार से युक्त जनों को यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारी वर्तमान और भावी पीढ़ी अपनी भाषाई विरासत से, उसके माध्यम से प्राप्त होती सांस्कृतिक विरासत से वंचित न हो जाए। उन्हें चाहिए कि आयासपूर्वक इस दिशा में कार्य करें। जीवन-यापन के लिए जो भाषाएं आवश्यक हैं, अंग्रेज़ी हो या जर्मन हो, उसे अवश्य जानें-सीखें पर साथ ही अपनी मातृ-भाषा, राष्ट्र-भाषा का भी ज्ञान अर्जित करें। अगर इसमें कोताही की गई तो बाद में जो नुकसान होगा, उसकी भरपाई नहीं हो पाएगी।

श्री राकेश रंजन ने टैगोर सेंटर के निमन्त्रण पर इस अवसर पर मुख्य वक्ता के रूप में मुम्बई, भारत से पधारीं डॉ. राजम नटराजन पिल्लै का स्वागत किया और भारतीय सांस्कृतिक सम्बंध परिषद (ICCR) के प्रति आभार व्यक्त किया कि उसने डॉ. पिल्लै की बर्लिन यात्रा का शुल्क वहन किया।

संगीत-नृत्य-कविता की त्रिवेणी
सांस्कृतिक कार्यक्रम का शुभारंभ हुआ मीरांबाई के सुप्रसिद्ध भजन 'नाम रतन धन पायो' से जिसे श्री धीरज राय ने अपने गुरू-गम्भीर स्वर में गाया। सायशबाला ने सुनाई हिन्दी कविता और फिर प्रस्तुत हुआ जर्मन बच्चों द्वारा प्रस्तुत बहुरंगी कार्यक्रम! अन्तरराष्ट्रीय विद्यालय (International School) की अंग्रेज़ी की अध्यापिका श्रीमती कृष्णा चैटर्जी के कुशल-स्नेहिल निर्देशन में बच्चों ने तो जैसे कमाल ही कर दिया। Sonja Eltner, Alessia Graf, Navina Gursh, Janne Hahn, Alina Meiner और Joline Moehring ने 'जीवन जीने का नाम', 'टिम टिम टिम तारे', 'मम्मा मम्मा भूख लगी' हिन्दी फ़िल्मी डांस 'You are my Soniya' और छोटी सी नाटिका 'बिल्ली चली प्रयाग नहाने' प्रस्तुत की। बच्चों के उत्साह और अध्यापिका श्रीमती कृष्णा चैटर्जी के प्रयास को श्रोताओं- दर्शकों ने खूब सराहा।

श्रीमती सुशीला शर्मा की जर्मन भाषी हिन्दी छात्राओं में से Heike Zbierski ने 'अपना अपना घर' कविता सुनाई और Verena Shram ने फ़िल्मी कविता 'तारे ज़मीं पर' सुनाई। उनके उत्साह और उच्चारण की शुद्धता को बेहद सराहा गया।

हिन्दी के युग निर्माता- 'भारतेन्दु'
यह सौभाग्य की बात है कि आधुनिक हिन्दी के युग निर्माता 'भारतेन्दु हरीशचन्द्र' के प्रपौत्र श्री प्रदीप चौधरी कई दशकों से जर्मनी में रहते हैं, लेकिन साथ ही अपनी अपूर्व साहित्यिक विरासत की देखभाल के लिए प्रतिवर्ष काशी भी जाते हैं। कार्यक्रम के दौरान हिन्दी के युग निर्माताओं और अध्ययन - अध्यापन से सम्बंधित उस एक फ़िल्म के अंश भी बीच बीच में दिखाए गए जिसे Films Division भारत ने न्यूयॉर्क में आयोजित आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन के दौरान प्रदर्शित किया था। यह सुखद संयोग ही रहा कि उसमें सर्वप्रथम और सर्वोच्च युग-निर्माता भारतेन्दु के अनूठे व्यक्तित्व और आश्चर्यकारी रचनाधर्मिता के विवरण स्वयं उनके प्रपौत्र से हमें प्राप्त हुए। श्री चौधरी ने बताया कि कैसे एक रात में 'भारतेन्दु' ने एक नाटक लिख डाला और कैसे शतरंज की एक बाज़ी खेलते खेलते एक पूरी कविता की रचना कर उसे लिख डाला। यह भी कि  भारतेन्दु ने किस प्रकार स्वयं अपना घर फूंक कर ज़माने में रौशनी की, पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित कीं, लेखक तैयार किए और फक्कड़पन और अक्खड़पन के गंगाजमुनी व्यक्तित्व की अमिट छाप साहित्योतिहास में छोड़ गए। श्री प्रदीप चौधरी का यह संक्षिप्त संस्मरणात्मक व्याख्यान हमारे लिए एक अपूर्व उपलब्धि का अवसर रहा।

आज की हिन्दी: कहां है, कहां जा रही है?
'राज-भाषा दिवस' के समारोह के लिए टैगोर सेंटर द्वारा विशेष रूप से मुम्बई से आमन्त्रित वक्ता डॉ. राजम नटराजन पिल्लै को हिन्दी प्रेम और सेवा की विरासत अपने गांधीवादी, स्वतन्त्रता-सैनिक माता पिता से मिली है और महाराष्ट्र और विशेष-कर मुम्बई में उनका जीवन काल बीता है। इसलिए सभी को लगा कि वे इस अवसर के लिए अत्यन्त उपयुक्त वक्ता हैं। वे बहु-भाषी, बहुनस्ली भारत का भी प्रतिनिधित्व करती हैं और अत्याधुनिक वैश्वीकरण तथा सूचना प्राद्यौगिकी के मुख्य प्रभाव केन्द्र मुम्बई का भी। सम्भवतः उनका मन्तव्य सुनना जानना इसलिए भी महत्वपूर्ण होगा क्योंकि उनकी मातृभाषा तमिल है और हिन्दी का 'विरोध' करने वाले लोगों में दक्षिण भारत के तमिल भाषियों को सबसे आगे माना जाता है। भाषाई राजनीति पर वे ज़्यादा जानकारी के साथ रौशनी डाल सकेंगी, ऐसा लोगों को यकीन था। उन्होंने अपने विद्वतापूर्ण, धारावाहिक भाषण और वाकपटुता से श्रोताओं को मुग्ध कर दिया। उनका भाषण कई दिनों तक लोगों को याद आता रहेगा क्योंकि वह दिलों को छू गया और दिमागों को झकझोर गया।

डॉ. पिल्लै ने जर्मनी तथा भारत के 500 वर्ष से भी अधिक वक्त के राजनैतिक, सांस्कृतिक, व्यावसायिक सम्बंधों की याद दिलाते हुए कहा कि यह समुचित ही है कि जर्मनी की राजधानी बर्लिन के राज-दूतावास में टैगोर सांस्कृतिक केन्द्र के तत्वाधान में राज-भाषा दिवस मनाया जाए, क्योंकि भारत की आज़ादी की लड़ाई के दौरान नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, मादाम कामा, हरदयाल, राजा महेन्द्र प्रताप को समय समय पर इस देश ने सहयोग दिया। भारत विज्ञान-इण्डोलोजी, तुल्नात्मक भाषा विज्ञान (comparative linguistics), तुल्नात्मक धर्म (comparative religion) की शुरूआत यहां के मनीषियों ने की और Friedrich Max Müller, Albrecht Weber, Paul Deussen जैसे महामना महर्षियों ने वैदिक संस्कृत, पाली, अर्धमागधी, अपभ्रंश, तमिल, तेलुगू, कन्नड़ आदि भाषाओं के लगभग अप्राय्य वाङ्मय को विश्व के समक्ष प्रस्तुत कर यह सिद्ध किया कि भारत का सांस्कृतिक अतीत कितना स्वर्णिम है, भारतीय प्रज्ञा कितनी उदात्त है। इसी सेतु पर चलकर हमें आप भी हिन्दी तक पहुंचना चाहिए।

'आपकी हिन्दी' के सन्दर्भ में विविध विधाओं में रचे जाते उसके आधुनिक साहित्य-भण्डार का एक विहंगावलोकन करते हुए उन्होंने कहा कि हिन्दी राज-भाषा के सिंहासन पर किसी शासक या डिक्टेटर द्वारा बिठाई नहीं गई है। देश को पराधीनता से मुक्त करने के लिए राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता महसूस की गई और एक भाषाई माध्यम के तौर पर राजा राम-मोहन राय, केशवचन्द्र सेन, स्वामी दयानन्द सरस्वती और महात्मा गांधी जैसे मनीषियों ने हिन्दी का प्रचार प्रसार किया, करवाया। उसी का परिणाम है कि राजनीतिक स्वाधीनता मिलने के बाद स्वतन्त्र भारत के संविधान में उसे 'राज-भाषा' का पद दिया गया। आज 26 भाषाएं भारत में अधिकृत भाषाओं के तौर पर मान्य हैं। वे सभी और अन्य अनेकानेक भाषाएं भी 'राष्ट्र-भाषा' ही हैं। भाषा कोई अंधश्रद्धा की, रस्मी पूजा अर्चन की वस्तु नहीं है। उसे सामान्य जनों के कल्याण के लिए माध्यम बनाना होगा और हिन्दी वह कार्य पहले भी कर रही थी, आज भी कर रही है। लेकिन हमें सावधान रहना होगा। वैश्वीकरण कि वजह से, सूचना प्राद्यौगिकी के अंधड़ की वजह से हमारी विशिष्ट जीवन शैलियों को, जीवन मूल्यों को, सांस्कृतियों को खतरा पैदा हो रहा है। जहां ज़रूरी नहीं है, वहां भी हमारी लिपियों के एवज में रोमन लिपि लिखी जा रही है। हमारी शब्द संपदा की उपेक्षा की जा रही है। कहीं ऐसा न हो कि एक दिन हमारी अपनी भाषा विलुप्त हो जाए, हमारा अस्तित्व समाप्त हो जाए। यह केवल हिन्दी का प्रश्न नहीं है। यह मानव संस्कृति के एक मूल्यवान प्रतीक की अस्मिता और अस्तित्व का प्रश्न है।

डॉ. पिल्लै ने अपने भाषण के समापन में यह उम्मीद जताई कि जिस प्रकार भारतीय वाड्मय के पुनरन्वेषण तथा विकास में जर्मन देश के मनीषियों, रचना-कारों ने भगीरथ प्रयास किए, उसी प्रकार वर्तमान तीव्र परिवर्तनकारी युग में हिन्दी भाषा, साहित्य और उसके माध्यम से एक मूल्याधारित संस्कृति के संरक्षण में जर्मनी, भारत का सहयोगी, सहकारी बनेगा। उन्होंने चेतावनी दी कि अगर हम सही समय पर सही मार्ग पर यात्रा नहीं करेंगे तो संस्कृति के काफ़िले के लुट जाने की ज़िम्मेदारी हम पर होगी और आने वाली नस्लें हमें क्षमा नहीं करेंगी।

डॉ. राजम नटराजन पिल्लै का उद्बोधनकारी वक्तव्य सचमुच ही जैसे बिजली का संचार कर गया और हर व्यक्ति को ऐसा लगा कि 'हां, मुझे भी करना चाहिए।' उनका भाषण समाप्त हुआ तो समूचा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। दर्शकों में अहमदाबाद के शिवानन्द आश्रम के स्वामी आध्यात्मानन्द भी उपस्थित थे। उन्होंने राजम जी की वाणी की प्रशंसा में अपनी कुर्सी से उठकर करतल ध्वनि की। स्वामी जी की आत्मीयता के दर्शन तब भी हुए जब उन्होंने कार्यक्रम के समापन में प्रशंसकों की भीड़ में बातों में खोई राजम जी के सामने नाश्ते की तश्तरी स्वयं मेज़ से उठाकर पेश की। मेरी दृष्टि में कार्यक्रम की सफलता कि यही चरम सीमा थी।

'राज-भाषा दिवस' का समापन 'फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी' गीत से हुआ जिसकी एक विशेषता यह भी थी कि गायिकाओं में सुश्री निवेता चोपड़ा नामक किशोरी भी थी जिसने हाल ही में सेंटर द्वारा संचालित हिन्दी परीक्षाएं उत्तीर्ण की हैं। अब वह जर्मन के अलावा हिन्दी भाषा में भी बड़ी सफलता से मंच संचालन कर लेती है। इसका परिचय उसने इस अवसर पर बखूबी दिया। जर्मनी की राजधानी बर्लिन में मनाया गया 'राज-भाषा दिवस' एक ऐतिहासिक दिवस साबित हुआ।