रविवार, 21 अप्रैल 2013

अपनों से दूर एक गांधी


85 years old Mr. Indu Prakash Pandey living near Frankfurt is an accomplished Hindi writer and teacher. He founded 'Indian Cultural Institute' in Frankfurt to promte indian culture, languages and philosophy in western world and dedicated his time and money for it. A selfless person who who always refrained from going commercial.

फ्रैंकफर्ट वासी 85 वर्षीय डा. इन्दु प्रकाश पाण्डे एक ऐसे शख्स हैं जिन्होंने सात समन्दर पार अपनी भाषा और संस्कृति के विकास का सपना देखा और उस सपने को पूरा करने के लिए अपना तन मन धन लगा दिया। पेश है अंजनी कुमार राय द्वारा किए साक्षात्कार पर आधारित उनकी एक संक्षेप आत्मकथा।

मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के राय बरेली ज़िले में गंगा किनारे बसे हुए गांव शिवपुरी में एक मध्यम परिवार में हुआ। मेरी प्राथमिक शिक्षा वहीं हुई। बाद में मैंने प्रयाग विश्वविद्यालय (वर्तमान में इलाहाबाद विश्वविद्यालय) से हिन्दी भाषा और साहित्य में एम.ए किया और फिर उत्रेट विश्वाविद्यालय हॉलैण्ड से डाक्टरेट की उपाधि ली। भारत में मेरी कई हिन्दी कृतियां भी प्रकाशित हुईं, जिनका बाद मेरी जर्मन पत्नी 'हाइडेमेरी पाण्डे' ने जर्मन भाषा में अनुवाद किया। कुछ मुख्य कृतियां हैं 'अवधी लोक गीत और परंपरा', 'हिन्दी रचना बोध', 'अवध की लोक कथाएं', 'खून का व्यापारी', 'साहित्य समिधा', 'मझधार की बाहें', 'अवधी व्रत कथायें' और 'अवध की कहावतें'।

भारत के स्वतन्त्रता संग्राम की भी कुछ धुंधली यादें अभी मेरे साथ हैं। 1945-46 में छात्र जीवन के दौरान एक बार मेरी मुलाकात गांधी जी से हुई। इस मुलाकात के बाद उनके साथ कुछ पत्राचार चलता रहा। पर उनसे बहस करने की मेरी उम्र और तजुर्बा नहीं था। हां, वाराणसी के गांधी आश्रम में मैं छुट्टियां होने पर चला जाता था। भारत छोड़ो आन्दोलन के समय एक बार मुझे भी जेल जाना पड़ा।

भारत के आज़ाद होने पर हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा बनाए जाने की चर्चा हुई। इस लिए 1955-1956 में नाटो ने अपने सारे सदस्य देशों को अपने विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाने का आदेश दिया। इसलिए जर्मनी के हाइडलबर्ग विश्वविद्यालय की साउथ एशियन इंस्टिट्यूट (South Asian Institute) की ओर से दिल्ली स्थित दूतावास को हिन्दी पढ़ाने के लिए प्रोफेसर की मांग आई। उस समय जर्मन दूतावास में मेरे एक घनिष्ठ मित्र श्री अलफर्ड काम करते थे। उन्होंने यह प्रस्ताव मुझे दिया जो मैंने स्वीकार कर लिया। इस तरह मैं 1963 में हाइडलबर्ग विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाने चला गया। मेरी तरह और भी कई लोग जर्मनी में हिन्दी और संस्कृत पढ़ाने आए। पर 1965 में नेहरु जी ने आदेश निकाला कि सब काम अंग्रेज़ी में होगा और हिन्दी अंग्रेज़ी के समानन्तर चलेगी। फिर क्या था, धीरे धीरे यहां कई विश्वविद्यालयों ने हिन्दी पढ़ाना बन्द कर दिया। उनका मानना था कि जब सब काम अंग्रेज़ी में हो रहा है तो हिन्दी पढ़ाने का क्या फायदा।

खैर, उस समय यहां बहुत कम भारतीय थे। कुछ भारतीय छात्रों से मेरा संपर्क था। यहां मेरा मन कुछ अधिक नहीं लगा, इसलिए एक साल बाद मैं कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले में पढ़ाने चला गया। पर 1967 में मुझे जोहान वुल्फगांग गोएथे विश्वविद्यालय फ्रैंकफर्ट से दोबारा निमन्त्रण मिला और मैं यहां वापस आ गया। यहां हिन्दी पढ़ने वाले छात्र बहुत कम होते थे, वे भी दो तीन छमाहियों बाद पढ़ाई छोड़ देते थे।

मैं काफ़ी समय तक फ्रैंकफर्ट 'भारत संघ' नामक संस्था के साथ भी सक्रिय रहा जिसमें हम कई सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करते थे। चिश्वविद्यालयों में हिन्दी संस्कृत पढाई जाती थी, भारत संघ द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते थे। पर भारतीय शैक्षिक विरासत के शैक्षिक मूल्यों के प्रचार प्रसार का कोई साधन नहीं था। इसलिए 15 अक्टूबर 1985 को हमने फ्रैंकफर्ट शहर में 'भारतीय संस्कृति संस्थान' (Indisches Kulturinstitut e.V.) की स्थापना की। इस संस्था के अन्तर्गत हमने यहां हिन्दुस्तानी भाषा और संस्कृति के प्रचार के लिए कई गतिविधियां आरम्भ कीं, जैसे हिन्दी, संस्कृत, बांग्ला ,पंजाबी, उर्दू भाषाएं सिखाना, कत्थक, भरत नाट्यम, ओडिशी आदि शास्त्रीय नृत्य सिखाना आदि। हम हिन्दुस्तान से कई विद्वानों को आमन्त्रित करके कई सेमिनार भी आयोजित किया करते थे। यहां के छात्रों को भारत भ्रमण पर भी लेकर जाते थे। लोग मुझसे पूछते थे कि इन कामों के लिए काफ़ी निवेश की आवश्यक्ता है, कहां से आएगा। तब मैं कहता था कि तीन बेटों के बाद इस संस्थान के रूप में मेरे अब एक बेटी हुई है। जाहिर है बेटी की शादी के लिए जो पैसे मुझे खर्च करने हैं, वो मैं इस संस्थान में लगाउंगा। इसके लिए हमें उस समय के भारतीय कोंसल जनरल श्री बाल किशन जी द्वारा हमें भारत सरकार की ओर से कुछ वित्तीय मदद भी प्राप्त होती रही। उसके बाद कोंसल जनरल श्री देवड़े साहब और उनकी पत्नी भी हमारी गतिविधियों में सक्रिय रहे। पर बाद में हमें कुछ खास मदद नहीं मिली। संस्थान के शुरूआती दौर में भी मुझे किसी से कोई मदद की उम्मीद नहीं थी। मैने सात संमन्दर पार अपने देश अपनी माटी की खूशबू फैलाने के लिए भारतीय संस्कृति संस्थान के रुप में एक अभियान छेड़ा है और मुझे उम्मीद है कि समय के साथ इसमें लोग जुड़ते जाएंगे और कारवां बनता जाएगा।

http://www.pandey-pandey.com/
http://indisches-kulturinstitut.de/