रविवार, 21 अप्रैल 2013

तब से छोड़ दिया गाड़ी चलाना

1991 में मैं म्युनिक शहर से थोड़ा बाहर मोती महल नामक एक रेस्त्रां में बतौर मैंनज़र कार्यरत था। सर्दियों की एक रात करीब ढाई बजे मैं रेस्त्रां बन्द कर के गाड़ी के द्वारा शहर की ओर वापस आ रहा था। एक मोड़ के बाद आगे जाने के दो रास्ते थे, एक सामान्य रास्ता और एक जंगलों में से होता हुआ। मेरा मन जंगल वाला रास्ता आज़माने का हुआ, सो मैं उस रास्ते आगे बढ़ गया। पर वहां सड़क पर खूब बर्फ जमी हुई थी जिस पर गाड़ी बहुत फिसल रही थी। खास कर मेरी उस समय की महंगी मर्सिडीज़ 320 गाड़ी आगे वाले पहिए से चलने के कारण सम्भालनी बहुत मुश्किल हो रही थी। अचानक मेरी आखों के आगे अंधेरा छा गया और मेरा नियन्त्रण खो गया। गाड़ी फिसल कर उल्टी हो गई और मैं बुरी तरह ज़ख्मी होकर सर के भार गाड़ी में दब गया। मेरी रीढ की हड़्डियां टूट चुकीं थीं। वहां तो उस समय किसी व्यक्ति का नामो निशान भी नहीं था। मेरी गाड़ी की लाईटें जल रहीं थी। भगवान की दया से उधर से एक गाड़ी गुज़री। उसे चला रही औरत यह नज़ारा देख दंग रह गई, उसने मुझसे केवल इतना पूछा कि मैं ज़िन्दा हूं या नहीं। मैंने दर्द से कराहते हुए कहा कि मैं जीवित हूं, कृपया वह मुझे बाहर निकाल ले। उसने बिना समय गंवाए तुरन्त पास के पुलिस स्टेशन में जाकर सूचित किया। फिर पुलिस ने मुझे गाड़ी से बाहर निकाला। मैं नौ सप्ताह तक अस्पताल में रहा। उन्होंने मेरे गले को चीरकर रीढ की हड्डियों को दोबारा स्थित किया और एक प्लेट डाल दी। अब मैं ठीक हूं, पर गाड़ी चलाने से मुझे बहुत डर लगता है।
-अमराजीत सिंह शौकीन