शनिवार, 20 अप्रैल 2013

भारत और जर्मनी के बीच झूलता जीवन

करीब पचास वर्ष से जर्मनी में रह रहे 69 वर्षीय Anesthesist और गहन चिकित्सक हंसमुख भाटे, जहां एक ओर एक उच्च शिक्षित व्यक्ति होने के नाते विदेशी संस्कृति में अपनी पहचान और पैठ बनाने से सन्तुष्ट हैं, वहीं जीवन का सबसे बड़ा हिस्सा अपनों से दूर विदेश में बिताने से निराश भी हैं। खासकर जब विदेश में बनाए गए नए रिश्ते भी धीरे धीरे समाप्त होते जाएं तो यह अनुमान लगाना भी मुश्किल हो जाता है कि क्या जो किया वह ठीक किया? Simmerath शहर के एकमात्र अस्पताल में मुख्य चिकित्सक के अहुदे पर पहुंच कर उन्होंने जर्मनी में अपनी शिक्षा और प्रतिभा का डंका बजाया। वहां 27 साल के करियर के दौरान उन्होंने कई अन्तरराष्ट्रीय स्तर की बैठकें आयोजित करवाईं। पर करियर के साथ साथ व्यक्तिगत समस्याओं ने भी उनका साथ नहीं छोड़ा। उनके एक बेटे की मृत्यु 1991 में और दूसरे बेटे की मृत्यु 2005 में हो गई। 2010 में उनकी कैंसर पीड़ित जर्मन पत्नी भी उनका साथ छोड़ गई। अब उनकी केवल एक बेटी बची है। इसलिए उन्होंने अपनी बेटी को अपनी कठिन जीवन यात्रा के बारे में बताने और भारत के बारे में थोड़ी जानकारी देने के लिए जर्मन भाषा में एक पुस्तक लिखी है 'Aus dem Traum in die Wirklichkeit - Mein Leben zwischen Indien und Deutschland', यानि सपने में निकल कर हकीक़त में - भारत और जर्मनी के बीच मेरा जीवन। यह पुस्तक लिखना उनकी पत्नी की भी इच्छा थी। सौभाग्य से यह पुस्तक उनकी पत्नी की मृत्यु से थोड़ा पहले प्रकाशित हो गई और वे दुनिया को अलविदा कहने से पहले कम से कम इस पुस्तक को पढ़ सकीं। हंसमुख भाटे Thilo Sarrazin जैसे व्यक्तियों पर अफसोस जताते हुए कहते हैं कि जहां ऐसे लोग विदेशियों के आत्मसात न होने पर राजनीति कर रहे हैं, वहीं वे प्रतिभाशाली और प्रतिष्ठित चिकित्सक होते हुए जर्मन भाषा में पुस्तक लिख कर एक गैर संस्कृति में पूर्ण तौर पर आत्मसात होने की सबसे बड़ी उदाहरण हैं। इस पुस्तक की उम्मीद से अधिक बिक्री हुई है।