रविवार, 21 अप्रैल 2013

जर्मनी की स्वास्थय बीमा योजना कठिनाइयों की कगार पर

लंबी आयु और बेरोजगारी से जर्मनी की स्वास्थय बीमा योजना कठिनाइयों की कगार परजर्मनी की स्वास्थय बीमा योजना संसार भर में प्रशंसनीय रही है। समाज के हर वर्ग को, मजदूर से लेकर मालिक तक को इसका समान लाभ मिलता रहा है। आधुनिक दवाओं और उपकरणों का लाभ भी सभी वर्ग समान रूप से ले रहे हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से यह मानवता उपकारी योजना आर्थिक संकट से ग्रस्त है। इसके विभिन्न कारण हैं। मुख्य कारण आधुनिक दवाइयों और उपकरणों पर अधिक खर्च का होना है। दवाइयां बनाने वाली कंपनियों को अपनी नई अविष्कृत दवाओ का मूल्य कुछ सालों तक स्वयं ही निर्धारित करने की अनुमति है, जो कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत मंहगी होती है। आधुनिक उपकरणों की कीमतें भी आसमान से छूने वाली होती हैं। हर रोगी चाहेगा ही कि उसे उच्च कोटी की चिकित्सा मिले। हर चिकित्सिक चाहेगा कि वह रोग निदान एवं निवारण में अति योग्य बने और अधिक से अधिक रोगियों को कम से कम समय में ज्यादा से ज्यादा सहायता करके नाम कमाए। दूसरी ओर दवाइयां बनाने वाली कंपनियों के विशेषज्ञ हर सम्बंधित सरकारी विभाग एवं मन्त्रालय में महत्वपूर्ण पोस्टों पर सरकार के परामर्शदाता के तौर पर अवैतनिक सेवारत हैं। यह परामर्शदाता सिर्फ अपनी कंपनियों के हितों की ही रक्षा करते हैं। इसके अतिरिक्त ये लोग अपने लोगों को राजनीतिक पार्टियों के प्रभावशाली स्थानों पर नियुक्त करवाकर एवं प्रभावशाली राजनीनिज्ञों को कंपनी में लेकर अपने हितों की रक्षा हेतु अनुकूल वातावरण बना लेने में सफ़ल रहते हैं।

स्वास्थय बीमा कंपनियां एक ओर तो आधुनिक दवाईयों और उपकरणों पर होने वाले खर्च से दबे रहते हैं, दूसरी ओर इनके प्रधान आदि जनता के बीमा के पैसे में से अपनी मनमानी के वेतन लेते हैं, वार्षिक लांभांश को किसी लाभप्रद जगह पर लगा देते हैं। जब कभी बीमे की राशि की आय कम हो जाए, तो घाटे में जाने का शोर मचाते हैं। पिछले लाभांश को घाटापूर्ति में लगाने की बजाय लोगों के बीमे की किश्त बढ़ा देते हैं। मुख्य तर्क यह दिया जाता है कि लोग लंबी आयु के हो रहे हैं, एवं बेरोजगारी की वजह से बीमा किशत देने वालों की संख्या कम होती जा रही है, जिसकी वजह से कंपनियों का खर्च ज्यादा और आय कम होती जा रही है इत्यादि।

उपरोक्त कारणों के साथ साथ आम जनता में स्वास्थय बीमा के सदुपयोग और स्वास्थय सम्बंधी प्राथमिक रोग निदान और रोग निवारण के बारे में अज्ञानता और लाप्रवाही का होना भी है। भारतीय समाज में आयुर्वेदीय एवं परंपरागत स्वास्थय ज्ञान जन जन में विद्यमान है। उदाहरण के तौर पर पेट में गड़बड़ हो, तो मीठी सौंफ या अजवाइन आदि लेना हर कोई जानता है। लेकिन जर्मन समाज में ऐसी अवस्था में तुरन्त डॉक्टर के पास जाने की प्रथा बन चुकी है। अपने ही सुख के लिए बहुत से लोग अपने ही स्वास्थय की देखभाल नहीं करते। बहुत से लोगों की ऐसी धारणा बन चुकी है कि स्वास्थय बीमा के कार्ड द्वारा डाक्टर से स्वास्थय खरीदना है। इससे बीमा कंपनियों का खर्च अनावश्यक बढ़ जाना स्वाभाविक ही है। निष्कर्ष यह निकलता है कि जब तक जन मानस में 'मेरा जीवन, मेरा स्वास्थय' की भावना पैदा नहीं की जाती, जब तक दवाइयां बनाने वाली कंपनियां सामाजिक ज़रूरतों के अनुसार नहीं चलतीं, जब तक बीमा कंपनियां टेढे मेढे ढंगों से सार्वजनिक खजाने से आर्थिक सन्तुलन बनाने की मनोवृति नहीं रोकेंगी, तब तक इस बनावटी टायफून से निकलना सम्भव नहीं हो सकेगा। इस समस्या के समाधान हेतु सभी ओर से सम्मिलित प्रयास से अभियान चला कर सभी को ही इस योजना के हित में जागृत करने की परम आवश्यक्ता है।

राम प्रहलाद शर्मा, म्युनिक