शुक्रवार, 27 मार्च 2020

वो दिन जब एक भारतीय का शिकार किया गया


17 सितम्बर 2007. जर्मनी के टीवी चैनल Das Erste (http://www.daserste.de/) में एक तुर्की निर्देशक Kamil Taylan द्वारा निर्मित दस्तावेज़ी फ़िल्म दिखाई गई 'Der Tag, als der Mob die Inder hetzte' यानि 'वो दिन जब एक भारतीय का शिकार किया गया'। इसमें 19 अगस्त 2007 को पूर्वी जर्मनी के एक छोटे से शहर Mügeln में  कुछ लोगों द्वारा कुछ भारतीय लोगों पर हुए जानलेवा हमले के बारे में तथ्यों को दोबारा एकत्रित करके सच्चाई की तह तक जाने का प्रयत्न किया गया।

शनिवार, 18 अगस्त 2007 की रात (एवं 19 अगस्त 2007 की सुबह लगभग दो बजे) को शहर के बीचों बीच एक खुली जगह पर एक वार्षिक मेला चल रहा था। कुल 5000 की आबादी वाले इस शहर के नागरिक लाईव संगीत का मज़ा ले रहे थे। मेले में सस्ते कपड़े आदि बेचने का धंधा करने वाले पंजाबी मूल के कुछ भारतीय लोग भी थे। कुछ लोगों को उनका पार्टी में रहना रास नहीं आ रहा था। रात लगभग बारह बजे कुछ लोगों ने उन्हें वहां से निकल जाने के लिए कहा। वे बाहर आए तो कुछ लोग कांच की बीयर की बोतलें लेकर उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। वहां लड़ाई हो गई। उन्हें वहां से भागना पड़ा। बीसीयों लोग विदेशियों को बाहर निकालने के नारे लगाते हुए उनके पीछे दौड़े। वे भाग कर पास में स्थित एक भारतीय की एक पिज़्ज़ा की दुकान में छुप गए। लोगों ने पिज़्ज़ा सर्विस का शीशा तोड़कर अन्दर आने का प्रयत्न किया। लगभग डेढ घंटे तक वे लोग मौत के डर में दुकान के अन्दर छिपे रहे जब तक पुलिस ने आकर लोगों को रोका। कुछ मिनट और देरी हो जाती तो कम से कम एक मौत निश्चित थी।

फ़िल्म में भाग्य से मिली उस रात खींची गई एक तस्वीर में भारतीय और कुछ नाज़ीवादी लोगों को पहचानने का प्रयत्न किया गया। कुछ गवाहों, पिज़्ज़ा के मालिक, सामान्य नागरिकों, वकील, शहर के महापौर आदि से बातचीत करके तथ्यों का तालमेल बिठाने की कोशिश की गई। कुछ नागरिकों का कहना था कि इस घटना को मीडिया में नाज़ीवाद का नाम देकर उछाला गया जो गलत है। जब कोई विदेशी जर्मनों के ऊपर हमला करता है तो मीडिया चुप रहता है। उन्होंने कहा कि मेले और पिज़्ज़ा सर्विस में केवल बीस मीटर की दूरी है। इतनी कम दूरी में पीछा किए जाने को 'शिकार' नहीं कह सकते जैसे मीडिया ने कहा है। लेकिन फ़िल्म में बताया गया कि दूरी बीस मीटर की नहीं पैंसठ मीटर की है। फ़िल्म में इस बात पर भी अन्देशा प्रकट किया गया कि लड़ाई के समय एक भारतीय 'कुलवीर सिंह' के हाथ में भी कांच की बोतल थी जिसे दिखाकर वह डरा रहा था। लेकिन फ़िल्म में हुए साक्षात्कार में उसने कहा कि उसे कुछ याद नहीं।

फ़िल्म में दिखाया गया कि इस घटना के एक वर्ष बाद अगस्त 2008 में लगभग सौ लोगों ने पिज़्ज़ा सर्विस के आगे दीप जलाकर इस घटना को याद किया। लेकिन पांच हज़ार नागरिकों में से केवल सौ लोगों ने। फ़िल्म में इस छोटे से शहर में पुलिस के इतनी देरी से आने पर भी सन्देह प्रकट किया गया।

पिज़्ज़ा सर्विस में कार्यरत 'अमरजीत सिंह' के साथ फ़ोन पर हुई बसेरा की बातचीत में उन्होंने कहा कि इस पूर्वी क्षेत्र में नौकरी के अवसर कम होने के कारण बहुत लोगों का नाज़ीवाद की ओर झुकाव है। यहां विदेशियों के साथ लड़ाईयां होती रहती हैं, फिर भी वे वहां रह रहे हैं। उनके वकील ने उन्हें कहीं भी इंटरवियु देने से मना किया है।

फ़िल्म के अन्तिम दृश्य में शहर के बाहर एक बस स्टॉप दिखाया गया जिसपर किसी ने रंग से स्वस्तिक का चिन्ह पोता हुआ है और साथ में लिखा है 'nie zu stoppen' यानि इसे कभी भी रोका नहीं जा सकता।


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