शुक्रवार, 27 मार्च 2020

युरोप का सबसे बड़ा मंदिर जर्मनी में

उत्तरी Germany में Hamm नामक छोटे से शहर के बाहर औद्योगिक क्षेत्र में यूरोप का सब से बड़ा हिन्दू मन्दिर है. यह दक्षिण भारतीय पद्धति से बना मन्दिर मुख्यत: कामाक्षी अम्मा को समर्पित है लेकिन साथ ही अन्य देवी देवताओं के मन्दिर भी इस में बने हुए हैं जैसे श्री लक्षमीनारायन, श्री मुरुगा, श्री शिव, श्री गणेष, Sri Somos Kandar Sannadhi, Vasantha Mandapam, Sri Iyappan आदि. हालांकि इससे बड़े मन्दिर England में हैं. 4500m² में फैले हुए मन्दिर परिसर के मध्य 27 meter लम्बे, 27 meter चौड़े और 5 meter ऊंचे इस मन्दिर का उद्घाटन 7 July 2002 को हुआ. इस में दो बड़े स्मारक बने हुए हैं, एक 17 meter ऊंचा गोपुरम जिस में मन्दिर का मुख्य द्वार भी है और एक 11 meter ऊंचा कामाक्षी अम्मा सन्नधी का स्मारक जिस के नीचे कामाक्षी अम्मा का मन्दिर बना हुआ है. अभी इन दोनों स्मारकों पर केवल सफ़ेद रंग पोता हुआ है, इस पर बनीं हिन्दु देवी देवताओं की मूर्तियां भारत की तरह रंगों से नहीं सजाई हुईं. मन्दिर परिसर में गाड़ियां park करने के लिए पर्याप्त जगह है. सड़क की दूसरी ओर एक अलग परिसर है जिस में शादियां आदि रचाई जाती हैं और पुजारियों का निवास स्थान भी है. कहा जाता है अभी साथ जुड़ती हुई अतिरिक्त ज़मीन ख़रीदने की योजना है जहां बच्चों के लिए खेलने का स्थान और बेघर बूढों के लिए एक निवास स्थान बनाया जाएगा. अप्रामाणिक सूत्रों के अनुसार इस मन्दिर को बनाने में अब तक कुल खर्च 18 लाख Euro आया जो केवल दान से ही एकत्रित हुआ.

इस मन्दिर के कर्ता धर्ता 1985 में श्री लंका से Germany भाग कर आए 'शिव श्री पास्करकुरुक्कल' (Siva Sri Paskarakurukkal) हैं जिन्होंने श्री लंका और दक्षिण भारत में पूजारी का प्रशिक्षण लिया था. चार वर्ष बाद 1989 में उन्होंने अपने किराए के flat के तलघर में 'कामाक्षी अम्मा' का छोटा सा पूजा स्थल बनाया. 'कामाक्षी अम्मा' की धातु की मूर्ती उन्हें उनके German मित्रों से उपहार के रूप में मिली. यह Germany का पहला तमिल-हिन्दू मन्दिर था. धीरे धीरे लोग वहां आने लगे. 1992 में साथ वाला कपड़े धोने वाला कमरा भी किराए पर ले लिया गया जहां प्रतिदिन दो बार पूजा और वार्षिक हिन्दू उत्सव मनाए जाने लगे. 1993 में पहली बार कामाक्षी अम्मा की प्रतिमा को पालकी में बिठा कर आस पास की गलियों की परिक्रमा की गई जिस से Germany में फैला तमिल समुदाय जागृत हो गया. इसका असर इतना हुआ कि 1994 के वार्षिक उत्सव में इस प्रतिमा को पालकी में नहीं बल्कि खूब सजी धजी एक motorcar में बिठा कर परिक्रमा की गई. भाग लेने वाले श्रधालुओं की संख्या सैंकड़ों से ले कर हज़ारों में पहुंच गई. श्रधालुओं की बढ़ती हुई संख्या से जहां स्थानीय लोग इस रंगों से भरी दक्षिण भारतीय संस्कृति से परिचित हुए, वहीं पर असन्तोष और विरोध भी फैला. काफी उपद्रव के बाद 1996 में कुछ शर्तों के साथ इस रथ यात्रा को दोबारा अनुमति मिली. धीरे धीरे मन्दिर की कारवाईयों के लिए जगह कम पड़ने लगी और किसी नई जगह की खोज होने लगी. वैसे भी इस जगह पर आग लगने के बचाव के लिए German नियमों की पूर्ति नहीं हो रही थी. शहर के अधिकारियों और नेताओं ने भी जगह ढूंढने में मदद की. आखिर शहर के बाहर Hamm-Uentruper नामक औद्योगिक क्षेत्र में जगह तय हुई जो कई शर्तें पूरी करती थी जैसे शहरी निवास स्थान से दूरी, अदा करने लायक कीमत, parking के लिए पर्याप्त जगह, खास धार्मिक प्रथाओं के लिए बहते पानी से नज़दीकी. February 1997 में हुई नगर परिषद की बैठक में कई प्रवक्ताओं ने इसका मुखर विरोध किया और यहां तक कि नसलभेद टिप्पणियां भी कीं. परंतु फिर भी इस मन्दिर को कानूनी दर्जा प्राप्त हो गया. कई अधिकारी और स्थानीय नेता इस मन्दिर का समर्थन भी करते थे. उनका मानना था कि इस मन्दिर से उनके शहर को सांस्कृतिक दृष्टि-कोण मिल गया है. march 1997 में नए मन्दिर की आधार-शिला रखी गई. August 1997 में वहां पर अस्थाई तौर पर बनाई गई इमारत में कामाक्षी अम्मा और अन्य देवी देवताओं की मूर्तियां स्थानन्त्रित कर दी गईं. नया मन्दिर बनने में पांच वर्ष लगे. मन्दिर का वास्तुशिल्प एक भारतीय company ने तैयार किया था. इसकी देख-रेख श्री पास्करकुरुक्कल ने की. भारत से आए लगभग चालीस शिल्पकारों ने यहां काम किया. अब हर वर्ष यहां बीस हज़ार तक श्रधालु एकत्रित होते हैं. Germany में अनुमानित 60000 तमिल शरणार्थी हैं. अब Berlin में बनने जा रहा श्री गणेष मन्दिर Germany का दूसरा बड़ा मन्दिर होगा.

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