शुक्रवार, 27 मार्च 2020

म्युनिक की सीवर प्रणाली

जल का एक प्राकृतिक चक्र होता है। सूर्य से जल का वाष्पीकरण होता है जिससे बादल बनते हैं। बादलों में छुपी छोटी छोटी पानी की बूँदें मिलकर वर्षा के रूप में धरती पर गिरती हैं। कुछ मिट्टी में समा जाती हैं और कुछ नदियों, झीलों में समा जाती हैं। इन झीलों, नदियों के पानी का फिर से वाष्पीकरण होता है और ये चक्र फिर से शुरू होता है।

मनुष्य इस प्राकृतिक चक्र को पीने के लिए, खाना पकाने के लिए, धोने, नहाने और शौचालय के लिए या फिर उद्योग के लिए बहुत सा पानी लेकर तोड़ता है। हर व्यक्ति प्रतिदिन औसतन 128 लीटर पानी का उपयोग करता है। लेकिन कितने लोग इस बात पर ध्यान देते होंगे कि इस पानी का उपयोग करने के बाद यह गंदा पानी कहाँ जाता है? क्या Isar जैसी नदी, जहाँ गर्मियों में हज़ारों लोग स्नान करते हैं, Surfing, rafting करते हैं, उसमें ये पानी बहा दिया जाता होगा? या फिर ऐसे ही ज़मीन में रिसने के लिए छोड़ दिया जाता होगा? म्युनिक जैसे बड़े शहर में रोज़ इतने सारे गंदे पानी से पर्यावरण को कितना नुकसान पहुँचता होगा? और उनमें से भी कितने लोग ये सोचते होंगे कि इस पानी को साफ़ करके के लिए कितनी तकनीक और पैसे की ज़रूरत होती होगी ताकि पर्यावरण प्रदूषित होने से बच सके और पानी का प्राकृतिक चक्र जहाँ तक हो सके बना रहे।

जो यह जानने की कोशिश करेगा, वह स्वभाविक ही इस शहर और उसके अंतरराष्ट्रीय स्तर की जल प्रशोधन प्रणाली पर गर्व करेगा। 2434 किलोमीटर लंबी सीवेज़ की नालियां, डेढ लाख लोगों के लिए दो उत्तम जल प्रशोधन संयत्र (water treatment plants) जिनमें हर वर्ष 1600 अरब लीटर पानी कई चरणों में दोबारा साफ़ किया जाता है और फिर शहर की जान, इसार नदी (Isar) में छोड़ा जाता है। जब आप म्युनिक की सड़कों पर चलते हुए सीवर के ढक्कनों को देखते होंगे तो शायद ही सोचते होंगे कि आपके नीचे पानी की इतनी बड़ी सुरंगें हैं। Olympiapark में घूमते समय आपको शायद ही इस बात का अहसास हो कि आपके नीचे वर्षा का पानी एकत्रित करने के लिए तीन फ़ुटबाल मैदानों जितना बड़ा हाल है। म्युनिक की इस सीवर प्रणाली का निर्माण, नवीकरण और देखरेख Münchner Stadtentwässerung (http://www.muenchen.de/mse) नामक एक जल प्रशोधन कंपनी कर रही है। यह नागरिकों से कुछ मासिक शुल्क लेकर अपना खर्च वहन करती है। इस शुल्क को entwässerungsgebühren कहा जाता है। बहुत से भारतीयों में यह कहावत मशहूर है कि जर्मनी में पानी का बिल तो आता ही है, पानी को बहाने का भी बिल आता है। यह वही शुल्क है ताकि आपके द्वारा बहाए गए पानी को दोबारा इस्तेमाल लायक बनाया जा सके। यह शुल्क €1,56 प्रति एक हज़ार लीटर है।

ज़मीन के अंदर बिछी हुई 2434 किलोमीटर लंबी सुरंगों में से 1250 इतनी बड़ी हैं कि उनमें चलकर जाया जा सकता है। समय समय पर तेज़ धार वाले फ़व्वारों के साथ सुरंगों की सफ़ाई की जाती है ताकि दीवारों पर कुछ चिपका न रह जाए। छोटी सुरंगों पर अंदर लगे कैमरों द्वारा नज़र रखी जाती है। इसके इलावा वर्षा का पानी एकत्रित करने के लिए कई कुण्ड बने हुए हैं जिनमें 70 करोड़ लीटर वर्षा का पानी एकत्रित किया जा सकता है। उस पानी को सीवर से अलग रखकर पंपों द्वारा दोबारा नदी में बहाया जाता है। शहर की करीब डेढ लाख इमारतें इन सुरंगों के साथ जुड़ी हुई हैं। सुरंगों से बहकर पानी प्रशोधन के लिए दो संयत्रों में जाता है। एक Fröttmaning में स्थित Gut Großlappen और दूसरा Eching में स्थित Gut Marienhof. ये दोनों संयत्र तीस लाख लोगों की आबादी के लिए काफ़ी हैं।

पहले पानी से मोटा मोटा कूड़ा करकट अलग किया जाता है। इससे प्रतिदिन करीब 15 टन कूड़ा इकट्ठा होता है। फिर पानी को बहुत धीरे धीरे एक बड़े बर्तन में से निकाला जाता है जिससे इसमें मिली रेत नीचे बैठ जाती है और अलग कर दी जाती है। इस बर्तन में पानी में मिली चर्बी और तेल भी ऊपर उठकर तल पर आ जाते हैं और अलग कर दिए जाते हैं। फिर पानी का जैविक प्रशोधन किया जाता है जिसमें पानी में जीवाणु (Bacteria) मिलाए जाते हैं जो बचे हुए पदार्थों को खाकर पानी की सफ़ाई करते हैं। इसका कीचड़ भी नीचे बिठाकर अलग किया जाता है। इसके बाद पानी को मिट्टी की दो मीटर मोटी पर्त में से निकाला जाता है जिससे बचा खुचा कीचड़ भी निकल जाता है। इसके बाद पानी इतना साफ़ हो जाता है कि इससे पर्यावरण का नुक्सान न हो। लेकिन ये पीने या नहाने लायक नहीं होता। नदी में बहाने से पहले इसमें छिपे कीटाणुओं (germs) को पराबैंगनी किरणों से (ultraviolet rays) खत्म किया जाता है।

इस सारी प्रक्रिया में बहुत सा कीचड़ जमा हो जाता है जिसे सुखा कर, जलाकर बायोगैस बनाई जाती है। इस सयंत्रों में बिजली की माँग काफ़ी हद तक इसी बायोगैस से पूरी की जाती है।

कहानी-
मध्ययुग में सफ़ाई और स्वास्थ्य पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता था। मल-मूत्र किसी बर्तन में इकट्ठा करके खिड़की द्वारा ऐसे ही गलियों में फ़ेंक दिया जाता था। सूअर, मुर्गे और अन्य जानवरों का मल-मूत्र भी गलियों में पड़ा रहता था। लोगों को इस बात का अहसास नहीं था कि इससे भयानक बीमारियां फैल सकती हैं। 1350 में युरोप में महामारी फैल गई जिससे एक तिहाई आबादी खत्म हो गई। लोगों का ध्यान सफ़ाई की ओर जाने लगा। मल-मूत्र गलियों में फ़ेंकने की बजाय किसी बड़े खड्डे में फैंका जाने लगा। लेकिन मल-मूत्र और गंदा पानी ज़मीन में रिसने की वजह से पीने का पानी भी दूषित होने लगा जिससे समय समय पर हैज़ा फैलता था। 1836 में हैज़े से म्युनिक में हज़ारों नागरिक मारे गए। इस बीमारियों का कारण ढूँढ निकालने के लिए एक कमीशन बिठाया गया। इस कमीशन के सदस्य Professor Max von Pettenkofer ने निष्कर्ष निकाला कि बीमारियां ज़मीन वाले ताज़े पानी और उपयोग किए जा चुके गंदे पानी की मिलावट से फैलती हैं। उन्होंने गंदे पानी को अलग से नालियां बनाकर शहर के बाहर निकालने का सुझाव दिया।

1862 में इन नालियों का निर्माण आरम्भ हुआ। लेकिन इन नालियों द्वारा घरों, फ़ैकट्रियों आदि से गंदा पानी सीधा इसार नदी में बहा दिया जाता था। नदी का प्रदूषण जल्द ही नज़र आने लगा और 1912 में बायरन सरकार ने शहर की कम से कम 60% आबादी के लिए जल प्रशोधन सयंत्र लगाने की माँग की। 1915 में पहला सयंत्र Gut Großlappen के निर्माण की तैयारी चल रही थी कि पहला विश्व युद्ध छिड़ गया और यह योजना अस्थाई तौर पर टल गई। 1926 तक इसका निर्माण कार्य पूरा हुआ। समय के साथ साथ पर्यावरण प्रति अधिक जागरुकता के कारण इसमें कई संशोधन होते रहे। 1973 में जैविक प्रशोधन (biological treatment) का प्रावधान इनमें प्रमुख है। 1994 में एक और जैविक प्रशोधन चरण लगाया गया जिससे अमोनिया जैसी नुक्सानदायक गैस को नाईट्रोजन में बदल दिया जाता है। लेकिन समय के साथ आसपास सड़कें, इमारतें बनने की वजह से इस सयंत्र के पास ज़मीन की कमी होने लगी जिससे इसमें और संशोधन करना संभव नहीं था। इसलिए 1989 में 30 करोड़ यूरो के खर्च के साथ Eching में स्थित दूसरे सयंत्र Gut Marienhof का निर्माण कार्य पूर्ण हुआ।