शुक्रवार, 27 मार्च 2020

घर में अपनी मातृभाषा भी बोलें

भारतीय दूतावास, बर्लिन के 'टैगोर सांस्कृतिक केन्द्र' के निर्देशक श्री राकेश रंजन एक बेहद संवेदनशील व्यक्ति हैं। वे 'भारतीय सांस्कृतिक सम्बंध परिषद' (ICCR) की ओर से तीन वर्ष की अवधि के लिए जर्मनी में कार्यरत हैं। IIT कानपुर से B.Tech. राकेश रंजन के भारतीय संस्कृति, भाषाओं और भारतीय मनोबल के प्रसार के बारे में कुछ विचार- हिन्दी का दुर्भाग्य हिन्दी का बड़ा दुर्भाग्य रहा है। जर्मन लोग अपनी भाषा के लिए कितनी मेहनत करते हैं और हम केवल हिन्दी दिवस मना कर छोड़ देते हैं। इसके उद्धार के लिए एक आन्दोलन की आवश्यकता है जो केवल सरकार के बूते की बात नहीं। हिन्दी दिवस आदि से कभी हिन्दी का इतना भला नहीं हुआ जितना कि Bollywood से। यहां हिन्दी पढ़ने वाले जर्मन बच्चों से मैंने एक बार पूछा कि तुम हिन्दी क्यों सीखना चाहते हो? तो उनका कहना था कि उन्हें Bollywood फ़िल्में अच्छी लगती हैं, परन्तु जर्मन भाषा में डब की हुई फ़िल्में देखने का मज़ा नहीं आता। इसलिए उन्होंने सोचा कि क्यों न हिन्दी भाषा ही सीख ली जाए। मुझे याद है कि 1979 में धर्म-युग जैसी पत्रिकाएं हुआ करती थीं। मैं कोई बारह तेरह वर्ष का था। एक बार उसमें मैंने एक लेख पढ़ा जिसका शीर्षक था 'काबुल में था मैं जब रूसी फ़ौजें यहां आईं'। उसमें लेखक ने उस खतरनाक स्थिति की व्याख्या की थी जब रूसी फौजें अफ़गानिस्तान में आईं और उस मौके पर वह संयोग से वहां उपस्थित थे। इतिहास में मेरी रुचि तभी जगी। लेकिन अफ़सोस कि ऐसी अच्छी पत्रिकाएं अब बन्द हो चुकी हैं। आधार-भूत संरचनाओं की कमी भारत में स्नातक करने के बाद अधिकतर छात्रों में बाहर जाने की होड़ लगी रहती है। खुद मेरे आईआईटी के कई दोस्त स्नातक करने के बाद अमरीका चले गए। उनमें से कुछ विश्वविद्यालयों में और कुछ निजी कंपनियों में शोध कर रहे हैं। वे खुश हैं। पश्चिमी देशों में शोध पर बहुत खर्च किया जाता है। जबकि भारत में शोध के लिए आधार-भूत संरचनाओं की अभी भी कमी है। इस कमी का एक कारण ये भी है कि औद्योगिक क्रान्ति अट्ठाहरवी सदी के अन्त और उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में हुई। इन देशों ने उसी समय तरक्की की। इंगलैण्ड को उस समय में raw material देकर और उससे तैयार वस्तुएं लेकर हमने उसके औद्योगीकरण में मदद की। हमारे कुटीर-उद्योग को तब बहुत नुक्सान हुआ। इसलिए प्रगति होने में अभी और काफ़ी समय लगेगा। भारतीय अब अधिक जागृत पहले भारतीय लोग जब नौकरी अथवा उच्च शिक्षा अमरीका जैसे विकसित देशों में जाते थे तो खुद को भारतीय कहलवाने से कतराते थे। अमरीकी पासपोर्ट लेने के बाद वे अंग्रेज़ी भी अमरीकन शैली में बोलने का प्रयत्न करते थे। लेकिन आज के युवा अलग हैं। वे अपनी पहचान नहीं छुपाते बल्कि गर्व से अपनी पहचान स्वीकार करते हैं। आजकल ये बदलाव देखने को मिल रहा है जो एक अच्छी बात है। भारत के बारे में विदेशियों का नज़रिया मेरे अनुभव से जब यहां के लोग भारत घूमने जाते हैं तो उन्हें अच्छा लगता है और वे एक सकारात्मक छवि लेकर वापस आते हैं जबकि चीन के बारे में लोग अधिकतर नकारात्मक धारणाएं लेकर वापस आते हैं। शायद इसका कारण भारत में अधिक स्वतन्त्रता है। स्वतन्त्र सोच भारत में छोटी कक्षाओं में भी पूरे विश्व की मुख्य घटनाओं, व्यक्तियों आदि के बारे में पढ़ाया जाता है, जबकि पश्चिमी देशों में मुख्यतः उनके आसपास के बारे में ही अधिक पढ़ाया जाता है। इसलिए एक तरह से कहा जा सकता है कि भारत में पश्चिमी देशों की अपेक्षा पढ़ाई अधिक विस्तृत है। परन्तु वहीं पर वैचारिक शिक्षा की बात करें तो पश्चिमी देशों में स्वतन्त्र सोच को महत्व दिया जाता है। चौथी क्लास का बच्चा भी अध्यापक के साथ बहस करता हुआ देखा जा सकता है जबकि भारत में गुरू को हमेशा सच माना जाता है और केवल ऊंचे अंक प्राप्त करने का दबाव रहता है। इसीलिए इन्हीं देशों में अधिक वैज्ञानिक और दार्शनिक पैदा हुए हैं। घर में अपनी मातृभाषा भी बोलें मैंने अक्सर देखा है कि यहां शादी के द्वारा वैध रूप से स्थापित हुए भारतीय मर्द भाषा के मामले में पूर्ण आत्मसमर्पण कर देते हैं और अपने बच्चों के साथ हमेशा जर्मन भाषा में बात करते हैं। इसका दंश बाद में बच्चों को झेलना पड़ता है। बच्चे अपने मूल के एक हिस्से से हमेशा कटे रहते हैं और इसका अहसास उन्हें बहुत बाद में होता है। इसकी एक उदाहरण देता हूं। एक बार एक उदास किस्म का 45 वर्षीय बंगाली मूल का पेंटर मेरे पास आया। वह भारतीय दूतावास परिसर में अपने चित्रों की प्रदर्शनी लगाना चाहता था। मैं भी थोड़ी बहुत बंगाली जानता हूं। इसलिए मैंने उसके साथ थोड़ी बंगाली भाषा बोलनी चाही जिसे सुनकर वह बिल्कुल सुन्न हो गया। वह बंगाली नहीं जानता था। उसने पूछा कि क्या मैं जर्मन जानता हूं? मैंने कहा कि नहीं। मैं जर्मन थोड़ी बहुत समझ सकता हूं लेकिन बोल नहीं सकता। फिर उसने टूटी फूटी अंग्रेज़ी में बात की। उसने अपने चित्रों के कुछ फ़ोटो-ग्राफ़ दिखाए। वे बहुत उदासी भरे चित्र थे। उसके पिता बंगाली थे और मां जर्मन। दोनों अब गुज़र चुके थे। मैं उन चित्रों को प्रदर्शित करने के लिए उत्सुक नहीं था। मैंने उसे काफ़ी टालने का प्रयत्न किया लेकिन वह किसी भी कीमत पर प्रदर्शनी लगाना चाहता था। दरअसल वह अपना खोया हुआ मूल ढूंढ रहा था और भारत से जुड़ना चाहता था। उसके पिता लगभग 50वर्ष पहले जर्मनी आए। जर्मनी आकर उसके पिता ने एक जर्मन महिला के साथ शादी की, जिनसे उसका जन्म हुआ। जर्मन महिला ने उसे केवल जर्मन भाषा सिखाने पर ही ज़ोर दिया। उनके पिता ने इसपर पूर्ण आत्मसमर्पण कर दिया। अब माता-पिता के गुज़र जाने के बाद वह बहुत उदास हो गया है और अपना खोया हुआ मूल ढूंढ रहा है। यह कहानी उसकी अपने पिता के बारे में छापी हुई पुस्तक में भी दिखाई दे रही थी। पहले कुछ पन्नों में उसके पिता की शुद्ध बंगाली वातावरण में बंगाली कोठी में धोती कुर्ता पहने हुए फोटो थीं। फिर अगले कुछ पन्नों में उसके पिता के जर्मनी आने की फ़ोटो थी जिनमें उन्होंने पैंट शर्ट और सर पर टोप पहना था। इसलिए मेरा मानना है कि लोगों को घर में अपने बच्चों के साथ अपनी भाषा भी बोलनी चाहिए और अपनी संस्कृति से परिचित रखना चाहिए। वर्ना बाद में बच्चों के दिमाग पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता है।