मंगलवार, 21 जनवरी 2014

शान्ति

प्रेमचन्द ‘महेश’
पात्र
गंगुली:बौद्धमठ के श्रमण
पंचुली:’’
तोरू:’’
कोमू:’’
सोमू:’’
तथागत:सत्य और अहिंसा के अवतार।
अन्य श्रमण आदि।
स्थान: बौद्ध मठ का उद्यान।
समय: प्रातःकाल का प्रथम पहर।
(दृश्य - सघन सुरम्य कानन के बाईं ओर बौद्ध-संघाराम बना हुआ है। और इसके सामने प्रांगण में विटप, लता और वल्लरियों से शोभायमान उद्यान है। उस उद्यान में कुछ श्रमण बैठे हुए हैं।)
गंगुली:भगवान तथागत ने सद् धर्म के श्रमणों को अपनी रुचि के अनुसार नाम चुनने का आदेश दिया है।
पंचुली:मित्र! नाम बदलने की प्रथा से क्या तात्पर्य है मैं समझ नहीं सका?
तोरू:मित्र! रहस्य का अन्त तो मैं भी न पा सका।
कोमू:जिसने तथागत की वाणी और कर्मों का रहस्य पा लिया, उसे अनन्त का छोर स्वयं ही मिल गया। अपनी बुद्धि तो इस रहस्य में प्रवेश कर ही नहीं पाती।
सोमू:अरे! यह भी कोई पूछने और रहस्य की बात है। दीक्षा प्राप्त श्रमणों का रूप सहज ही स्पष्ट हो जाए, इसीलिए तथागत ने यह पद्धति निकाली है।
गंगुली:(गम्भीर मुद्रा में) सद् धर्म के ग्रहण और सुनाम के चयन से शीघ्र ही निर्वाण मिल जाए...इसका केवल यही उद्देश्य है।
पंचुली:मित्रो! तुम सबके कथनों से कुछ समझा तो मैं भी। मेरी दृष्टि में इस प्रथा का कारण है - सद् धर्म का उत्थान और नवीन नाम के अनुरूप उससे प्राप्त होनेवाली प्रेरणा।
तोरू:तो मैं अपना नाम ‘शील’ घोषित करता हूँ।
(सब हँसते हैं।)
कोमू:और मैं ‘शान्ति’।
सोनू:अरे, हट कल के दस्यु और निखट्टू, कौमू! तू ‘शान्ति’ के अनुरूप शान्ति ग्रहण नहीं कर सकता। तू दूसरा नाम चयन कर, ‘शान्ति’ मेरे लिए छोड़ दे।
कोमू:क्यों छोड़ दूँ? सद् धर्म में सब समान हैं। मेरे पूर्व कर्म चाहे कैसे ही रहे हों पर अब मैं अपना नवीन निर्माण करूँगा। ‘शान्ति’ प्राप्ति का मेरा अधिकार तुम्हारे ही समान है। तुम ही अन्य नाम का चयन करो।
सोमू:मैं तो ‘शान्ति’ नाम ही चयन करूँगा। ‘शान्ति’ शब्द सदैव भगवान की वाणी और हृदय में निवास करता है। मैं भगवान के उपदेशों से प्राप्त शान्ति के अनुकूल स्वयं शान्ति ग्रहण करूँगा।
पंचुली:तुम दोनों ‘शान्ति’ के बिलकुल अयोग्य हो। एक ओर दस्यु - कोमू और दूसरी ओर व्यापार और वाणिज्य में आठों याम लीन - सोमू। तुम दोनों पर पूर्व कर्मों की छाप रहेगी और मिटाए से न मिट सकेगी। तुम ‘शान्ति’ का नाम व्यर्थ ही सिद्ध करोगे। तुम दोनों यह नाम मुझे देकर अन्य किसी नए नाम का चयन कर लो। ‘शान्ति’ का निवास केवल शम से पूर्ण विचारों में ही परिपक्वता से हो सकता है, घृणा या भय से पूर्ण विचारों में नहीं।
गंगुली:वाह! रक्त-पिपासु धर्मान्ध ब्राह्मण - पंचुली...वाह!
तुम...तुम स्वयं को ‘शान्ति’ नाम से घोषित करना चाहते हो। जरा तुम अपने कर्मों को तो देखो! यजमान की दक्षिणा में सन्तुष्ट नहीं। सायं प्रातः धन की लालसा में रत रहते हो। तुममें यह अशान्ति और चाहते हो बनना ‘शान्ति’,...मुझे देखो तथागत की वाणी पर मैंने तलवार को त्याग क्षमा को अस्त्र बनाया। सांसारिक वातावरण से छूट लगातार बीस-बीस घंटे निर्वाण प्राप्ति में समाप्त किए। ‘शान्ति’ पहले मुझे मिलनी चाहिए या तुम दोनों को? तुम ‘सत्य’ ‘जय’ ‘अजय’ और ‘विजय’ नामों में से अपनी रुचि के अनुकूल अपने नामों का चयन कर सकते हो।
कोमू:जिसकी तलवार में तनिक भी क्षत्रियत्व शेष न हो,
जो आततायियों से सज्जनों के त्राण करने में भय खाता हो,...वह...वह शान्ति प्राप्त क्या करेगा? जिसे अपने कार्य में शान्ति नहीं, उसे सद् धर्म जैसे पावन और पुनीत धर्म में भी शान्ति मिलनी असम्भव और बिलकुल असम्भव है। ‘शान्ति’ नाम का चयन मैंने किया है और मैं ही वह प्राणी हूँ, जो क्षुद्र-वृत्ति से प्रगति की ओर अग्रसर हुआ है। अत: ‘शान्ति’ का अधिकारी मैं ‘शान्ति’ हँ।
तोरू:मित्रो! व्यर्थ क्यों झगड़ते हो? यदि आपस में तुच्छ बातों के लिए इस प्रकार से लड़ोगे तो सद् धर्म का प्रचार और राष्ट्र का उद्धार क्या करोगे? ‘शान्ति’ का अधिकार मेरी दृष्टि में कोमू का है, उसे लेने दो।
गंगुली:अरे चल ‘शील’। पक्षपात और व्यंग्य करता है, और फिर स्वयं को ‘शील’ कहलवाना चाहता है।
तोरू:मैं सत्य का पक्ष लेकर अन्याय पर व्यंग्य करता हूँ। मैं तुम सबकी भाँति नाम का भूखा नहीं। यदि तुम चाहो तो मेरा नाम ले सकते हो।
पंचुली:अरे, चल ‘पीली के पाँचे’, ‘शील’ जैसा शील अपने रूप में ला, फिर पंच बनना।
सोमू:भाई, यह ‘शील’ नहीं,...हम सबों के लिए लोहे की कील है! कील!!
(सब हँसते हैं)
तोरू:पंचुली! तुम ब्राह्मण के रूप में शूद्र व्यक्ति जरा-सी वार्ता के लिए क्रोध करते हो। और सोमू तुम हँसोड़ बनकर सद् धर्म का शमन करना चाहते हो। हास्य जीवन है पर वह परिधि के अन्दर ही होना चाहिए। परिधि के बाहर हास्य कटु, तिक्त, विष और मृत्यु का रूप धारण कर लेता है।
सोमू:भगवान तथागत के उपदेश और वाणी के अनुसार मैं सद् धर्म की ओर प्रवृत्त हुआ हूँ। मुझमें त्याग की क्षमता है। मैं शान्ति ‘शान्ति’ के इच्छुकों को त्यागता हूँ।...पर तुममें कोई भी ‘शान्ति’ के योग्य नहीं। तुम सब में अहंकार, स्वाभिमान और स्वार्थ-भावना का बाहुल्य है। शान्ति के लिए त्याग, तप और सहिष्णुता की आवश्यकता है, वह तुम सब में है ही नहीं। यदि मुझ में शान्ति का प्रकाश स्वयं विद्यमान होगा तो मैं स्वयं ‘शान्ति’ बन सद् धर्म के प्रचार से विश्व को शान्ति दूँगा।
तोरू:धन्य! धन्य!! साधु! साधु!! मुझसे भी त्यागी और महात्यागी।
गंगुली:ढोंगी है! नहीं तो क्या शान्ति को त्याग सकता था?
पंचुली:शान्ति के तेज ने भय उत्पन्न कर दिया। उससे डर कर शान्ति का त्याग किया है।
सोमू: शुद्र को शूद्रता ही अच्छी लगती है। वह शूद्रता से बाहर निकलने में अपना अपमान समझता है। कोमू की शूद्रता इसी कथन का साक्षात प्रमाण है। चलो पथ का कंटक टला अब ‘शान्ति’ मैं हूँ।
पंचुली:अरे मित्र! भूल गए।....ब्राह्मण का तप और तेज व्यर्थ थोड़े ही जाता है? उसके द्वारा किए हुए एक-एक कर्म का फल मिलता है।...और हवन में दी हुई तिनके-तिनके की आहुति का प्रसाद मिलता है। यह मेरा प्रसाद और मेरा फल है। अत: इसका भोगी मैं हूँ।
(भगवान तथागत का प्रवेश। उनके आते ही सब श्रमण खड़े होकर नतमस्तक हो जाते हैं। वे उन्हें आशीर्वाद देते हैं और पास पड़ी आसन्धी पर बैठ जाते हैं।)
तथागत:कहो, श्रमण प्रवर गंगुली, किस विषय पर वाद-विवाद कर रहे हो?
गंगुली:भगवन््! हम सभी श्रमण आपकी दीक्षा को भली प्रकार ग्रहण करने और सद् धर्म का प्रचार करने के लिए प्रेरणा एवं सम्मान देने वाले नवीन नामों के चयन पर विवाद कर रहे हैं।
पंचुली:भगवन्! तोरू ने ‘शील’ नाम का चयन किया है और, और मैं ‘शान्ति’ का नाम चयन करने जा रहा हूँ।
पर...गंगुली...और सोमू मेरे मार्ग में...
कोमू:भगवन्! ‘शान्ति’ नाम का पूर्व चयन मैंने किया था पर अनर्गल वाद-विवाद को देख मैंने उसका त्याग कर दिया। मुझमें यदि शान्ति की शक्ति और प्रवृत्ति होगी तो मैं...‘शान्ति’ को स्वयं प्राप्त कर लूँगा।
तथागत:भिक्षुओ! तुम सब क्यों व्यर्थ के कार्यों की ओर अग्रसर हो रहे हो? नाम से निर्वाण की प्राप्ति नहीं हो सकती। तुम सब अव्याकृत बातों में पड़ रहे हो। तुम्हें निर्वाण चाहिए तो तुम सदाचार और सत्य का प्रचार करो। अहिंसा की कृपाण और क्षमा का शस्त्र ले जगती का उद्धार करो। तब ही निर्वाण तुम्हारा स्वागत करेगा। नाम का चयन तो केवल प्रेरणा प्राप्ति के लिए है। नामकरण से निर्वाण उस समय तक मिलना असम्भव है, जब तक उसके लिए तुम सुविचार, त्याग और तप का आलम्बन न लोगे। कोमू श्रमण का त्याग सराहनीय है। उन्हें निर्वाण-प्राप्ति सम्भव है, यदि वे उसके लिए सतत प्रयत्न करें।
(श्रवण का प्रवेश)
श्रमण:(तथागत से) भगवन्!...संघ के वृद्ध श्रमण आचार्य अमर का दीर्घकालीन रोगग्रस्त रहने के बाद आज स्वर्गवास
हो...
(सब शान्त हो जाते हैं।)
तथागत:उन्हें शान्ति और निर्वाण मिले। भद्र! उनकी निर्जीव देह की रथी बनाकर अग्नि में जलाने दो और उनका भस्म पर स्पूप निर्मित कर दो। (भिक्षुओं से) भिक्षुओ, देखो, जब इस नश्वर और परिवर्तन से भरे संसार में भिक्षु अमर-ही-अमर नहीं रहे तो तुम केवल नवीन नामकरण-मात्र से ही निर्वाण चाहते हो, तनिक सोचो तो।
श्रमण:तो भगवन्, मुझे जाकर श्रमण-प्रवर अमर की अन्त्येष्टि सम्बन्धी कार्य करने की आज्ञा दें।
तथागत:अच्छा भद्र! जाओ...और हम सब भी अभी आते हैं।
(श्रमण जाता है।)
पंचुली:भगवन्! मुझे उस क्षण न जाने क्या हो गया था। मैं...सद् धर्म के उद्देश्यों को भूल गया था...और भूल गया था, आपके प्रवचनों को। मैं...अब सचेत हो गया हूँ...आचार्य अमर की महान् समाधि से! मैं अब ‘शान्ति’ आदि कोई भी नाम ग्रहण नहीं करूँगा। मैं श्रमण श्रेष्ठ कोमू के त्याग को अब समझा।
गंगुली:तथागत! मुझे सद्बुद्धि दें। मैं ‘शान्ति’ के नवीन नामकरण की प्राप्ति के लिए अनर्गल विवाद कर रहा था। मैं भी अब समझ पाया हूँ कोमू के उस त्याग और शान्तिमय हृदय को। कोमू ही मेरी दृष्टि में ‘शान्ति’ का सही अधिकारी है।
सोमू:भगवन्! मैं अपने पूर्व वाणिज्य कर्म को भूल न सका, उस कर्म की धन से असन्तुष्टि और मोह की प्रवृत्ति ‘शान्ति’ प्राप्ति के लिए उभर आई। कोमू से सबसे पूर्व मैंने ही यह वाद-विवाद किया। यदि मैं न करता तो...
तथागत:भिक्षुओ! तुम सबके विचार सुने। भिक्षु वर कोमू को मैं तुम सबके कथानानुसार त्याग पर अपनी ओर से बधाई देता हूँ। जिस मनुष्य के पास त्याग है, उसमें ‘शान्ति’, सत्य और अहिंसा जैसे गुण स्वयं ही विद्यमान हैं। कोमू का त्याग धन्य है। मैं कोमू को ‘शान्ति’ के त्याग करने पर अपनी ओर से ‘शान्ति’ के नवीन नामकरण की भेंट देता हूँ।
कोमू:भगवन्! मैं आपकी आज्ञा और भेंट को टाल नहीं सकता पर मैं इसके लिए अभी तो पूर्णतः अयोग्य हूँ। आपके गुणों के विशाल सागर के सामने मैं एक क्षुद्र लहर हूँ। और शान्ति...
तथागत:भिक्षु वर! कभी-कभी क्षुद्र लहर भी सागर में एक छोर से दूसरे छोर तक हलचल मचा देती है। तुम क्षुद्र नहीं, विशाल हो। तुम अब कोमू नहीं ‘शान्ति’ हो! शान्ति!!
कोमू:भगवन्! आपकी यह कृपा मुझे स्मरणीय है। (शीश झुकाता है।)
(सब श्रमण तथागत के समक्ष नतमस्तक हो जाते हैं और -
बुद्धं शरणं गच्छामि
धम्मं शरणं गच्छामि
संघं शरणं गच्छामि
का गान करने लगते हैं।)
(पटाक्षेप)