गुरुवार, 23 जनवरी 2014

नया घर

प्रेमचन्द ‘महेश’
एक बार एक चालाक लोमड़ी कुएँ में गिर पड़ी। कुआँ गहरा था। उसने कुएँ से बाहर निकलने की लाख कोशिशें कीं, खूब उछली-कूदी पर बाहर न निकल सकी। अपनी सारी मेहनत को बेकार जानकर और अपने जीवन की आशा को छोड़कर वह हार मानकर कुएँ में चुपचाप बैठी रही।
काफी देर बाद एक प्यासी बकरी उस कुएँ पर आई। बकरी ने कुएँ में झाँककर देखा तो उसने वहाँ पानी पर लोमड़ी को बैठे पाया। यह देख उसने लोमड़ी से पूछा - ‘‘बहिन लोमड़ी, यहाँ बैठी क्या कर रही हो?’’
लोमड़ी बड़ी चालाक थी। इस कारण वह अपने दुख को छुपाकर बड़ी प्रसन्न हो बकरी से कहने लगी - ‘‘अरी बहिन, सारे जंगल में तेज गर्मी पड़ रही है। सारे नदी-नाले सूख चुके हैं। पीने को पानी भी नहीं मिलता। इसी कारण गर्मी और प्यास से बेफिक्र रहने के लिए मैंने इस कुएँ में ही अपना नया घर बनाया है।’’
बकरी मूर्ख होने के साथ-ही-साथ प्यास और गर्मी से बेचैन भी थी। अतः वह लोमड़ी की चालाकी से भरी बातों को सत्य समझी और बोली - ‘‘बहिन, तुम ठीक कहती हो। सारे जंगल में मैं घूम-फिर आई किन्तु कहीं पीने को पानी नहीं मिला। और गर्मी, उसकी बात तो पूछो मत। गर्मी ने तो हम सबका होश-हवास उड़ा ही दिया है। तुम्हारी यह दूर की खोज बहुत ठीक है। यहाँ तुम दोनों बातों से बेफिक्र हो।’’
बकरी की बातें सुनकर लोमड़ी उसकी मूर्खता पर मन- ही-मन हँसी। उसने सोचा कि क्यों न इस मूर्ख बकरी को भी अपने पास ही कुएँ में बुलाया जाए? अतः वह बड़ी हमदर्दी से बोली - ‘‘तो बहिन बकरी, फिर बातें बनाने से फायदा क्या? तुम प्यास और गर्मी दोनों ही से बेचैन हो। तुम यहाँ आ जाओ। यहाँ का पानी खूब मीठा है और गर्मी तो यहाँ है ही नहीं। इसके सिवाय हम और तुम दोनों यहाँ मिलकर आराम से रहंेगे।’’
लोमड़ी की चालाकी से भरी बातें बकरी के मन भा गईं। उसने कुएँ में गिरने और फिर बाहर निकलने की बात सोचने की ओर ध्यान ही नहीं दिया। बस तेज छलाँग मारकर कुएँ में जा पहँुची।
बकरी ने कुएँ में पहँुचकर खूब पानी पिया। पानी पीकर खूब उछली और प्रसन्न हो उठी। लोमड़ी यह सब चुपचाप देखती रही। कुछ देर बाद बकरी ने कहा - ‘‘बहिन लोमड़ी, तुम मेरे कुएँ में आने से प्रसन्न नहीं हो क्या?’’
लोमड़ी ने कहा - ‘‘नहीं-नहीं, मुझे भला प्रसन्नता क्यों नहीं है? तुम जैसी साथिन पाकर भला कौन खुश न होगा? पर मैं कुछ सोच रही हँू।’’ और यह कहते-कहते लोमड़ी कुछ उदास-सी हो गई।
बकरी अब भी लोमड़ी की बातों को जान न सकी और बड़े ही भोलेपन से बोली - ‘‘बहिन, तुम क्या सोच रही हो? मुझे भी बताओ? शायद मैं भी तुम्हारी बातें सुनकर तुम्हारी कुछ मदद कर सकँू।’’
लोमड़ी पहले कुछ देर तक चुप रही। किन्तु फिर बड़े दुख के साथ कहने लगी - ‘‘अरी, बहिन बकरी, इस कुएँ में हम और तुम दोनों कैदी हैं। हम दोनों में से कोई भी अब बाहर नहीं निकल सकता। हम दोनों यहाँ बस मर जाएँगे।’’
लोमड़ी की बातें सुनकर बकरी को अब भी कुछ समझ नहीं पड़ा। वह तो पानी और ठंड पाकर मस्त पड़ी थी। इसीलिए बड़ी मस्ती के साथ वह बोली - ‘‘बहिन लोमड़ी, बाहर जाने की हमें आवश्यकता ही क्या? जंगल के भय से हम यहाँ बेफिक्र हैं। तुम भी क्या बेकार की बातें सोचती हो!’’
इस पर लोमड़ी ने कहा - ‘‘पर यहाँ हम कैदी हैं। हमें खाना और जंगल की प्यारी-प्यारी हवा यहाँ मिलने वाली नहीं है। अतः हम मर जाएँगे। इस कुएँ से बाहर निकलने का एक उपाय मैंने सोचा है।’’
बकरी अब कुछ होश मंे आई और बोली - ‘‘क्या उपाय सोचा है तुमने बहिन? जरा मैं भी सुनँू!’’
‘‘इस कुएँ से बाहर निकलने का केवल यही उपाय है कि तुम कुएँ में खड़ी हो जाओ और फिर मैं तुम्हारी पीठ पर चढ़कर कुएँ से बाहर निकल जाउँ$। इसी प्रकार फिर मैं तुम्हें निकालँूगी। बोलो, तुम्हें ये दोनों शर्तें स्वीकार हैं?’’ लोमड़ी ने बकरी से पूछा।
बकरी लोमड़ी की बातों पर पूरी तरह से विश्वास कर चुकी थी। उसे लोमड़ी की बातें बड़ी अच्छी और मीठी लग रही थीं। इसीलिए उसने कहा - ‘‘अरी बहिन, तुम खूब सोचती हो! लो, दोनों के बाहर आने-जाने का रास्ता भी बन गया। मैं अभी कुएँ में खड़ी होकर तुम्हें अपनी पीठ पर चढ़ाकर कुएँ से बाहर करती हँू। और फिर तुम मुझे भी बाहर निकाल देना।’’
इतना कहने के तुरन्त बाद ही बकरी कुएँ की दीवार के सहारे तनकर खड़ी हो गई। लोमड़ी मन-ही-मन खूब उछली। उसने सोचा, बकरी से अब अधिक बातें नहीं करनी चाहिए। इसीलिए एकदम उछलकर बकरी की पीठ पर चढ़ गई और छलाँग मारकर कुएँ के बाहर हो गई।
कुएँ के बाहर पहँुचकर दोनों ने एक-दूसरे को देखा। लोमड़ी बकरी को देखकर खूब हँसी। बकरी बेचारी लोमड़ी की चालाकी अब भी नहीं समझी और बोली - ‘‘बहिन, हँसती क्यों हो? अब तुम अपने वायदे के अनुसार मुझे भी कुएँ के बाहर निकालो। यहाँ कुएँ में मेरा दम घुटने लगा है।’’
बकरी की मूर्खता से भरी बातें सुनकर लोमड़ी खूब हँसी और फिर बोली - ‘‘अरी मूर्ख बकरी, यदि तेरे दाढ़ी के बाल जितने सिर हों तो भी तू मूर्ख ही रहेगी। भला मैं अब फिर कुएँ में गिरकर तुझे बाहर निकालँू। वह तो तू ही मूर्ख है जो व्यर्थ में अपनी जान गँवा बैठी। तूने कुएँ में गिरने से पहले निकलने की बात सोची भी नहीं। तेरे लिए यह ठीक भी है। मूर्ख की मौत ऐसे ही होती है। तू तो अब अपने नए घर मंे बेफिक्र रह।’’ इतना कहकर लोमड़ी कुएँ में झाँककर खूब हँसी और फिर जंगल की ओर उछलती-कूदती भाग निकली। बकरी बेचारी कुएँ में ही खड़ी रही।
इसीलिए तो कहा है कि किसी काम को करने से पहले उसको खूब सोच-समझ लो।