मंगलवार, 21 जनवरी 2014

अमर दीप

प्रेमचन्द ‘महेश’

पं. नलिन विलोचन शर्मा
बिहार प्रान्त हिन्दी भाषा और साहित्य सेवियों की प्रमुख जन्मभूमि रहा है। समय-समय पर बिहार की पावन भूमि में अनेक राष्ट्रभाषा सेवी जन्म धारण करते रहे हैं। ‘जातं मृत्यु ध्रुवं’ के अनुसार बिहार के रजकण में उत्पन्न हिन्दी का एक महान साहित्यकार, सिद्धहस्त सम्पादक, सफल कहानीकार, कवि, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रधानमन्त्री, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के अनुसन्धान विभाग के कुशल निर्देशक तथा पटना विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष आचार्य नलिन विलोचन शर्मा 22 सितम्बर सन् 1961 को हमसे बिछुड़कर चले गए।

पं. नलिन विलोचन शर्मा हिन्दी के कर्मठ साहित्य सेवी स्वं. पं. रामवतार जी शर्मा के सुपुत्र थे। उनका जन्म 28 फरवरी, सन् 1918 को हुआ था। उन्होंने साहित्यिक सेवा सन् 1932 से आरम्भ की। अपने जीवन के अल्पकाल में नलिन जी ने जो कार्य किए वे स्तुत्य हैं। उन्होंने हिन्दी साहित्य की अभिवृद्धि एवं प्रचार के अतिरिक्त ‘दृष्टिकोण’ ‘कविता’ और ‘साहित्य’ जैसे हिन्दी के साहित्यिक पत्रों का सफलतापूर्वक सम्पादन किया। ‘सदल मिश्र ग्रन्थावली’, ‘हस्तलिखित हिन्दी पोथियों का विवरण’ (कई भागों में), ‘लोक साहित्य आकार सूची’, ‘लोक गाथा परिचय’ और ‘लोक कथा कोश’ का भी सम्पादन कर अपने साहित्यिक श्रम का परिचय नलिन जी ने दिया। अनेक कहानियों और कविताओं के प्रणयन के अतिरिक्त ‘गोस्वामी तुलसी दास’, ‘अयोध्या प्रसाद खत्री’, ‘साहित्य का इतिहास दर्शन’ जैसे शोधपूर्ण ग्रन्थों की रचना से नलिन जी असाधारण प्रतिभा वाले श्रेष्ठ साहित्यकार सिद्ध होते हैं। उनके प्रकाशित कहानी-संग्रह में ‘विष के दांत’ प्रमुख हैं। इस संग्रह में लेखक ने मानव मन की गहरी सूझ-बूझ के ज्ञान का परिचय पाठक के समक्ष प्रस्तुत किया है।

नलिन जी ने संस्कृत साहित्य का गम्भीर अध्ययन भी किया था। उनकी पाश्चात्य साहित्य में भी असाधारण गति थी। वे अपने गहन गम्भीर अध्ययन और तीक्ष्ण बुद्धि के कारण हिन्दी के मान्य आलोचकों में गिने जाते थे।
साहित्यकार के अतिरिक्त नलिन जी एक स्वतन्त्र एवं मौलिक विचारक भी थे। वे सुसंस्कृत, मृदुभाषी, और उत्कृष्ट कोटि के क्षाम शील व्यक्ति थे। अहिंसा उनकी हर साँस में जीवित थी। सारांश में, वे ‘विद्या ददाति विनयम्’ की प्रतिमूर्ति थे।

आज उनका पार्थिव शरीर हमारे बीच में नहीं है तो क्या? उनकी कृतियों के भीतर से, मित्रों के स्मृति-संस्मरणों से जो धवल कीर्ति गाथा झाँकती है, वह उनको अमर किए हैं। यह सच है कि बिहार इस असाधारण प्रतिभा के अभाव में आज रंक-सा बन गया है। नलिन जी के आकस्मिक निधन से हिन्दी की क्षतिपूर्ति निकट भविष्य में होनी असम्भव है। परन्तु नलिन जी सिंहासनासीन होकर गए हैं। उनकी मरणोत्तर आयु अभी शेष है।


पं. सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’
भारती की वीणा की झंकार को अपने हृदय से निःसृत करनेवाला, अमर शब्द सौन्दर्य शिल्पी, अमृतपुत्र कवि महाप्राण निराला का पार्थिव शरीर 16 अक्तूबर, सन् 1960 को पंचतत्वों में विलीन हो गया। वह महा मानव उन रस सिद्ध कवियों में से था जो महात्मा भृर्तहरि के शब्दों में ‘नास्ति येषां यशः शरीरे जरामरणजं भयम्’ के अनुसार यश शरीर से अमर होकर अपनी विशिष्टता और भौतिक शरीर की ओजमयी अमिट छाप हिन्दी जगत के स्मृति पटल पर छोड़ गया। निराला के महा प्रयाण से भारती के मन्दिर का रत्नदीप बुझ गया। हिन्दी साहित्य काश का ज्योर्तिमान सूर्य अस्त हो गया। उस महाप्राण के स्वर्गारोहण से हिन्दी काव्य के ज्योति-तूर्य का नाद अचानक रुक गया और हिन्दी का भाव-जगत, जिसको उस महाप्राण ने जीवन दान देकर विकसित किया था, अचानक ही हतप्रभ हो गया। महाप्राण निराला का जन्म सन् 1890 में बंगाल प्रान्त के महिषादल राज्य में हुआ। उनके पिता पं. राम सहाय जी राज्य कोष के संरक्षक थे। निराला जी का जीवन दुखों में बीता। दुःख ही उनके जीवन का अन्त तक साथी रहा। उन्होंने एक कविता ‘सरोज स्मृति’ में कहा भी है -
‘‘दुख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ उसे, जो नहीं कही।’’
हिन्दी जगत में निराला की शक्ति व्यंग्यकार, अनुवादक, साहित्य-समीक्षक, सम्पादक, निबन्ध लेखक, कहानीकार, रेखा-चित्रकार, कवि और उपन्यास लेखक के रूप में विकसित हुई मिलती है। अपने व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों की दृष्टि से निराला महान् थे, महा मानव थे। उनका विशाल व्यक्तित्व, विचारोदात्तता, मानवीय सहानुभूति और सदाशयता की अनेक कहानियाँ प्रचलित हैं।

हिन्दी साहित्य में निराला रामकृष्ण परम हंस तथा स्वामी विवेकानन्द के वेदान्त और राष्ट्र प्रेम, कवीन्द्र रवीन्द्र के सौन्दर्य प्रेम और बंकिम चन्द्र के मार्मिक व्यंग्य प्रभाव को लेकर अवतरित हुए। उन्होंने अपने साहित्य के द्वारा भक्ति तथा रहस्य भावना, नव जागरण का सन्देश, दीन दुखियों तथा पीड़ितों के प्रति सहानुभूति के चित्र प्रस्तुत करने के अतिरिक्त प्रकृति के भी सुन्दर चित्र प्रस्तुत किए। उन्होंने प्रकृति का चित्रण कहीं स्वतन्त्र रूप से, कहीं छाया वादी शैली द्वारा प्रकृति का मानवीय करण तथा कहीं रहस्य भावना सम्बन्धी प्रकृति का मधुर चित्रण प्रस्तुत किया है। उन्होंने काव्य को जन मानस तक पहुँचाने के लिए लोक हृदय के स्पन्दन का स्पर्श किया। छन्दों में अपनी कोमल तथा कठोर अँगुलियों से हास्य गर्भित रुदन तथा करुणा-संचित अटूट हास्य भरा। अपनी अपौरुषेय वाणी से निराला ने नवजागरण का सन्देश फूँका। वीणा-वादिनि के स्तवन से स्वतन्त्र रव का घोष तथा अमृत-मंत्र का संचार कर भारतीयों की अलस निद्रा को दूर किया।

निराला वास्तव में निराला व्यक्तित्व लेकर हिन्दी साहित्य क्षेत्र में अवतीर्ण हुए थे। उनकी निराली मान्यताएं, निराले छह अतुकान्त कविता में संगीत का अपूर्व मणि-कांचन योग उन्हें हिन्दी जगत में निराला बनाने में समर्थ हुआ। निराला ने हिन्दी के काव्य क्षेत्र में पदार्पण करते ही काव्य की परम्परा में उसकी शैली और तकनीक में एक अनजाना महार्णव लहरा दिया। काव्य पोत के रजत बन्धों को सहसा तोड़ दिया। उन्होंने अपनी निराली प्रतिभा से नए छन्द और नए भावों का प्रजनन किया तथा परम्पराओं के शिथिल रूढ़िग्रस्त आडम्बरों को तोड़ डाला। निराला के प्रादुर्भाव से हिन्दी जगत में एक तूफान आया और उस तूफान के बाद जो दिशाएँ मूक और सूनी हुईं तो वहाँ से एक ऐसी छन्द परम्परा का तथा एक ऐसी भाव बेला का स्पन्दन उठा जो अब तक अनजाना था।

निराला सरस्वती के वरदपुत्र थे। वीणापाणि सरस्वती उनके कंठ में विराजती थी। उनकी वाणी कविता के भावों को साकार रूप प्रदान करने में अत्यन्त सहायक सिद्ध होती थी। ‘जुही की कली’ सात्त्विक सौन्दर्य और श्रृंगार का स्वरूप उपस्थित करने में उतनी ही समर्थ थी जितना कि ‘राम की शक्ति पूजा’ और ‘बादल राग’ ओज गुण को और ‘विधवा’ तथा ‘भिक्षुक’ ने तो न मालूम कितनी बार उनके कलकंठ से निकल कर करुणा की सरिता बहाई थी।
निराला ने जहाँ कोमल भाव-स्वरों की मधुर सरगम छेड़ी और स्निग्ध सुरभिमय कल्पना की पराग धूलि बिखेरी, वहाँ वे व्यंग्य और कटाक्ष में भी पीछे नहीं रहे हैं। वे आरम्भ से ही अस्वस्थ सामाजिक रुढ़ियों के विरोधी रहे। उनकी रचनाओं में व्यक्त तथा समाज पर स्थान-स्थान पर व्यंग्य बाणों का प्रहार पाठकों को मिलता है। उनका व्यंग्य शिष्ट है, उच्च कोटि का है और वह प्रतीकों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। उनकी सबसे प्रसिद्ध व्यंग्य पुस्तक ‘कुकुरमुत्ता’ है। कुकुरमुत्ते के सहारे निराला ने पूँजीवाद पर आक्रमण किया है और समाज के उपेक्षित तथा निम्न वर्ग की वकालत करते हुए उनकी महत्ता दिखाई है
कुकुरमुत्ता कहता है -
अबे सुन बे गुलाब,
भूल मत जो पाई ख़ुशबू, रंगों आब,
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतरा रहा है कैपिटलिस्ट।
इस रूप में निराला ने दबे, निराश्रित, असहाय गरीबों को अपनी कविता में वाणी दी और सामाजिक असमानता पर तीव्र प्रहार भी किया। निराला की कविता का स्वर उदात्त रहा। उनकी कविता में भारत के समस्त सांस्कृतिक इतिहास की प्रबुद्ध चेतना का शक्ति पुंज देखा जा सकता है। निराला के काव्य की पृष्ठभूमि भारतीय दर्शन ऐतिहासिक मीमांसा, सांस्कृतिक जीवन और ऐतिहासिक चेतना से अनुप्राणित होती रही। इसी कारण उनकी निम्नलिखित पंक्तियां राष्ट्रीय उद्बोधन की चेतना का जन मानस में स्पन्दन कर सकने में सक्षम हैं -
तुम हो महान्,
तुम सदा हो महान्,
है नश्वर यह दीन भाव,
कायरता, कामपरता,
ब्रह्म हो तुम,
पदरज भर भी है नहीं,
पूरा यह विश्व-भार!
‘जागो फिर एक बार’ शीर्षक की ये उद्धृत पंक्तियां आज भी राष्ट्रीय जन जागरण की बेला का आवाहन कर रही है।
निराला जी ने खड़ी बोली हिन्दी कविता को अपनी निरन्तर साधना से विश्व कविता साहित्य के समकक्ष खड़ी करने में महान योग दिया। उनकी काव्य भाषा बंगला से प्रभावित है जिसमें संस्कृत के शब्दों की बहुलता है, उन्होंने भाषा और शब्दों की चित्रमयता, संगीतात्मकता और नाद-सौन्दर्य की ओर विशेष ध्यान रखा। अपनी प्रखर प्रतिभा से निराला ने हिन्दी को ‘परिमल’, ‘गीतिका’, ‘अनामिका’, ‘अणिमा’, ‘अर्चना’, ‘आराधना’, ‘गीत गुंज’, ‘कुकुरमुत्ता’, ‘तुलसी दास’, ‘नए पत्ते’, ‘बेला’, ‘अपरा’ जैसे काव्य ग्रन्थ प्रदान किए। ‘अप्सरा, ‘अलका’, ‘निरुपमा’, ‘प्रभावती’, जैसे उपन्यासों से तथा ‘लिली’, ‘बिल्लेसुर बकरिहा’, ‘सुकुल की बीबी’, ‘चातुरी चमार’, ‘चोटी की पकड़’ तथा काले कारनामे’ आदि कहानियों से हिन्दी कथा साहित्य को समृद्ध किया। इतना ही नहीं कवीन्द्र रवीन्द्र साहित्य, रामकृष्ण और विवेकानन्द साहित्य का हिन्दी में सफल अनुवाद भी उन्होंने किया। उन्होंने हिन्दी में निबन्ध और आलोचनाएं भी लिखी हैं जिनसे उनकी प्रतिभा का एक सफल आलोचक के रूप में मूल्यांकन किया जा सकता है।

निराला के जीवन से सम्बन्धित अनेक संस्मरण इस बात की साक्षी देते हैं कि वे मानव संवेदनशीलता में परिपूर्ण महा मानव थे। एक संस्मरण प्रस्तुत है। जाड़े के दिनों की एक घटना है। बसंत पंचमी का दिन था। निराला का जन्मोत्सव मनाया जा रहा था। प्रयाग स्थित केसरवानी कॉलेज में रात्रि को 9.10 बजे तक प्रोग्राम चलता रहा। यों निराला जी कभी किसी सभा-सोसायटी में नहीं जाते थे। उस दिन अपने भक्तों के विशेष आग्रह पर वह उसमें उपस्थित थे। कड़ाके का जाड़ा पड़ रहा था, इसलिए सभी लोग अपने सभी उपलब्ध साधनों से भयंकर शीत के आक्रमण का सामना कर रहे थे। मंच पर निराला जी भी एक कम्बल ओढ़े बैठे थे। अन्त में वे बोलने के लिए खड़े हुए। कुछ देर तक वे शान्त भाव से बोलते रहे फिर जैसा कि उन दिनों उनका स्वभाव बन गया था, वह कुछ भावाभिभूत हो उठे और कन्धे तक ओेढ़े कम्बल को उन्होंने उतार फेंका और भीगे कंठ से उन्होंने कहा - ‘‘तुम्हारा निराला यह है।’’ लोगों ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से देखा कि एक लंगोटी के अतिरिक्त उनके शरीर पर वस्त्र नाम की कोई चीज नहीं थी। बाद में पता चला कि भक्तों ने उन्हें आते समय वह कम्बल जबरदस्ती ओढ़ा दिया था। वस्तुतः वह अपने कमरे में नंगे बदन केवल लंगोटी पहने ही पाए गए थे। बात यह थी कि उस दिन प्रातः काल उन्होंने अपने सारे कपड़े गंगा के किनारे शीत से ठिठुरते भिखारियों को बाँट दिए थे।

आज उस महान् साहित्यकार की व्यथा-भरी कहानी का पटाक्षेप हो चुका है। अब उसकी अमूल्य साहित्य निधि ही शेष है। भविष्य को उसी का समुचित मूल्यांकन करना है। मैं इन शब्दों में उस महाप्राण के सभी रूपों को नमन कर निम्नलिखित काव्य पंक्तियों में श्रद्धांजलि प्रस्तुत करता हुआ अपना यह प्रसंग समाप्त करता हूँ।
‘‘भारती के अजिर में हम कर रहे वन्दन तुम्हारा!
तुमने जीवन को उपेक्षित कर सदा हमको दुलारा
हम रहे निष्ठुर सदा ही तुम रहे मानव निराला
सूर्य तुम तज देह नश्वर कर रहे भू पर उजाला
तेरी ज्योति से छलकती रसिक उर की काव्य हाल
मधुप-मानस मत्त करता उड़ा रहा परिमल तुम्हारा!!
भारती उपवन के सौरभ, कान्त सन्ध्या-रूपसि के
कर दिए उन्मुक्त कुन्तल तुमने वाणी सुन्दरी के
तुम रजत-निर्झर बहाते तुंग हिमगिरि से निराला
छेड़ते हो तुम गगन में आज ‘बादल-राग’ माला
गूँजता है प्रति निलय में गीति का सरगम तुम्हारा!!’’


राम नरेश त्रिपाठी
हिन्दी जगत अभी निराला तथा नलिन जी के बिछोह की गहन अनुभूतियों से मुक्त भी न हो पाया था कि 17 जनवरी सन् 1962 को पं. रामनरेश जी त्रिपाठी ने त्रिवेणी-तट पर नश्वर शरीर का साथ छोड़ दिया। उनके निधन से हिन्दी साहित्य की एक उज्ज्वल प्रतिभा अकस्मात लुप्त हो गई। त्रिपाठी जी का जन्म जौनपुर ज़िले के कोइयापुर ग्राम में सं. 1946 में एक साधारण किसान के घर में हुआ था। आपके जीवन के कार्य क्षेत्र का प्रारम्भ प्राइमरी स्कूल के अध्यापक रूप में हुआ। एक मारवाड़ी परिवार के आग्रह से आप कुछ समय तक मारवाड़ में रहे। आपने मारवाड़ में एक पुस्तकालय की स्थापना की जिसमें हिन्दी, संस्कृत तथा अंग्रेज़ी की पुस्तकों का पर्याप्त मात्रा में संग्रह किया।

इसके पश्चात त्रिपाठी जी ने सारे देश का भ्रमण किया। उन्होंने एक और नन्दन वन काश्मीर की सौन्दर्य श्री के अवलोकन करने से लेकर दक्षिण में कन्या कुमारी के सागर की उत्ताल तरंगों में लहराते आँचल की छटा का भ्रमणानन्द लिया तो उधर असम प्रदेश से लेकर सौराष्ट्र तक की यात्रा का सुख लूटा। देश दर्शन की यह छटा त्रिपाठी जी के हृदय में बस गई जो राष्ट्र भक्ति की भावना से सहज ही विकसित हो उनके खंड काव्यों - ‘पथिक’, ‘मिलन’, और ‘स्वप्न’, में प्रशस्त हो उठी। त्रिपाठी जी के ये काव्य प्रकृति का सुरम्य चित्रण, अहिंसा, सत्याग्रह, देशभक्ति और विश्व प्रेम के पवित्र उदात्त भावों से ओतप्रोत हैं। उनके ये तीनों खंड काव्य अहिन्दी क्षेत्रों के हज़ारों हिन्दी प्रेमियों ने पढ़े।
इन्हीें दिनों स्वतन्त्रता-संग्राम की गूँज सारे भारतवर्ष में छाई हुई थी। त्रिपाठी जी स्वतन्त्रता संग्राम में स्वयं भी कूद पड़े और अपनी रचनाओं द्वारा अन्य देश सेवियों को भी राष्ट्र-सेवा के लिए प्रेरित करने में सफल हुए। त्रिपाठी जी को गांधी जी तथा मालवीय जी दोनों ही का पूर्ण स्नेह प्राप्त था। ‘मालवीय जी के साथ 30 दिन पुस्तक’ में आपने मालवीय जी की कीर्ति का प्रशस्त गान किया है। राष्ट्रीय कार्यों के अतिरिक्त साहित्यिक कार्यों में भी त्रिपाठी जी ने सक्रिय सहयोग दिया है। हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग के कार्यकर्ता के नाते त्रिपाठी जी ने राष्ट्र भाषा हिन्दी के उत्थान में अविस्मरणीय योगदान दिया। वे दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार के लिए भी गए।

त्रिपाठी जी ने अनेकों विषयों पर लेखनी चलाकर हिन्दी साहित्य की वृद्धि की। उन्होंने मौलिक, अनूदित और सम्पादित सभी प्रकार की रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। गद्य साहित्य का भंडार भी उन्होंने भरा और पद्य साहित्य के क्षेत्र में तो उन्हें सुयश मिला ही। काव्य-संकलन के रूप में त्रिपाठी जी ने हिन्दी साहित्य को महत्त्वपूर्ण देन दी। उनके ये संग्रह ‘कविता-कौमुदी’ छह भागों में हिन्दी की प्राचीन कविता, आधुनिक कविता, उर्दू कविता, बंगला कविता, संस्कृत कविता तथा ग्राम-गीत में विभक्त है। ‘कविता-कौमुदी’ का पहला संग्रह जब प्रकाशित हुआ तो वह देश के कई विश्व-विद्यालयों में BA, MA की उच्च कक्षाओं में पाठ्य पुस्तक के रूप में स्वीकृत किया गया था। इस प्रकार हिन्दी के श्री वैभव की वृद्धि करने में त्रिपाठी जी के ये संग्रह महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुए। त्रिपाठी जी सुहृदय, कोमल करुण स्वभाव के अति श्रेष्ठ मानवतावादी कलाकार थे। उन्होंने भगवान के दर्शन नर नारायण और दरिद्र नारायण के रूप में किए थे। मथुरा-वृन्दावन के वैभवशाली सुवर्ण रत्न-राशि मंडित मन्दिरों में विराजमान भगवान की झाँकी उन्हें पसन्द नहीं थी। सन् 1921 के असहयोग आन्दोलन के बन्दी जीवन में त्रिपाठी जी ने जो गीत पंक्तियां लिखीं, वे पंक्तियां देश के लाखों हिन्दी प्रेमियों का कंठ घोष बनीं। आज भी वे गेय पंक्तियां सुन्दर तथा प्रेरणा स्वरूप हैं और त्रिपाठी जी की पावन पुनीत स्मृति दिलाने में सक्षम हैं।

मैं ढूँढता तुझे था जब कुंज और बने में,
तू खोजता मुझे था तब दीन के वतन में,
तू आह बन किसी की मुझको पुकारता था,
मैं था तुझे बुलाता संगीत में भजन में।

तू ही विहँस रहा था मंसूर के रुदन में।
आख़िर चमक पड़ा तू गांधी की हड्डियों में।
बाल साहित्य के प्रणयन में त्रिपाठी जी का प्रमुख स्थान है। उन्होंने बालोपयोगी लगभग 50 पुस्तक लिखीं। इन पुस्तकों के माध्यम से त्रिपाठी जी ने रामायण, महाभारत, पंचतन्त्र और हितोपदेश की सारगर्भित कहानियों तथा उपदेशों को सरल भाषा में बाल-मानस में हृदयंगम कराने का सफल प्रयास किया। उन्होंने ‘बानर’ नाम का एक बाल मासिक पत्र भी निकाला था।

गद्यकार के रूप में त्रिपाठी जी ने उपन्यास, कहानियाँ, नाटक और जीवन-चरित्र लिखे, जिनमें उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा का पूर्ण परिचय मिलता है। उनके उपन्यासों, कहानियों और नाटकों का विषय समाज की कुरीतियों, विषमताओं और असंगतियों पर कुठाराघात, देश प्रेम, समाज को सत्य और नीति की ओर उन्मुख करने पर बल तथा सर्वमंगल की भावना है।

त्रिपाठी जी ने अनेक शोध ग्रन्थ लिखे हैं। रामायण पर उनके दो शोध ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। एक राम चरित मानस की सुसम्पादित टीका तथा दूसरी ‘मानस मधु’ है। साथ ही ‘तुलसी दास और उनकी कविता’ नामक ग्रन्थ भी उन्होंने लिखा। इस ग्रन्थ में त्रिपाठी जी ने गोस्वामी जी की जीवनी तथा उनके काव्य के सम्बन्ध में अनेक मौलिक खोजें भी प्रस्तुत की है। त्रिपाठी जी रामचरितमानस के प्रकांड मर्मज्ञ थे। उनकी रामायण सम्बन्धी विद्वता से प्रभावित होकर पं. जवाहर लाल नेहरू ने भी उनसे रामायण पढ़ी थी।

लेखक और कवि के अतिरिक्त त्रिपाठी जी प्रकाशक, मुद्रक, संगठनकर्ता, कुशल माली, किसान और गृहस्थी थे। उन्होंने अपने 72 वर्ष के जीवन में माँ सरस्वती के अतिरिक्त कभी भी किसी के आगे हाथ नहीं पसारा। उनकी अनेक रचनाएँ आज भी जन मानस में प्रचलित हैं जो प्रेरणा दायी हैं। ‘हे प्रभो आनन्द दाता ज्ञान हमको दीजिए’ वाली प्रार्थना त्रिपाठी जी की ही है। इस प्रार्थना का पाठ आज भी प्राप्त बेला में ग्राम-ग्राम में गूंजता है।
‘हिन्दुस्तानी अकादमी’ हिन्दी साहित्य सम्मेलन पत्रिका तथा ‘नवनीत’ जैसे सुविख्यात मासिक पत्रों के आरम्भिक काल में आशीर्वाद और अतुल बल प्रदान करने में त्रिपाठी जी सदैव स्मरणीय रहेंगे।

निराला और पं. नलिन विलोचन शर्मा के बाद भारती का यह कर्मठ पुजारी भी चल बसा। पर वह तो आत्मा की अनश्वरता का अनुभव अपनी निम्नलिखित कविता में कर चुका था -
निर्भय स्वागत करो मृत्यु का
मृत्यु एक विश्राम-स्थल
जीव जहाँ से फिर चलता है
धारण कर नव जीवन सम्बल ड्ड