मंगलवार, 21 जनवरी 2014

ये विचित्र मानव

प्रेमचन्द ‘महेश’

किसी प्रदेश का रहन-सहन संयोग की बात नहीं, वरन भौगोलिक परिस्थितियों का परिणाम है। - अज्ञात

एस्कीमो
उत्तरी अमेरिका में हडसन की खाड़ी के उत्तरी किनारे पर 65°-75° उत्तरी अक्षांश व बैफिनलैंड के चारों ओर बसनेवाले निवासियों को एस्कीमो कहते हैं। एस्कीमों संसार की एक अति प्राचीन जाति है। एस्कीमो, एशकीमेक का बिगड़ा रूप है, जिसका अर्थ है कच्चा माँस खाने वाले। उत्तरी अमेरिका के जिन प्रदेशों में ये लोग रहते हैं, उन भागों में शीत ऋतु बहुत लम्बी और ग्रीष्म ऋतु बहुत छोटी होती है। इसी कारण से इन प्रदेशों में शीत-ऋतु का ही साम्राज्य छाया रहता है। और यहाँ की भूमि प्रायः हिमाच्छादित ही रहती है इन प्रदेशों में वर्ष में केवल दो या तीन माह को छोड़ कर शेष मासों में तापक्रम सदा हिमांग (Freezing point) से नीचे ही रहता है।

एस्कीमो लोगों की औसतन ऊँचाई 5श्.2श्श् से लेकर 5श्.4श्श् तक होती है। इनका मुँह चौड़ा बाल भूरे तथा भद्दे होते हैं। इनका रंग पक्का व गेहूँआ तथा आँखें मंगोलियन फोल्ड लिये हुए गहरे भूरे रंग की होती है। इन लोगों की यह सूरत शक्ल कुछ-कुछ red indians व उत्तर पूर्वी एशिया के मंगोल जाति के लोगों से मिलती-जुलती होती है।
एस्कीमो लोगों के रीति-रिवाजों में एकता तथा स्वभाव में निश्छलता एवं शान्त प्रियता देखने योग्य होती है। ये सीधे-साधे एवं सरल प्रकृति के होते हैं। इस जाति में आपसी द्वन्द्व एवं संघर्ष नाममात्र को नहीं दिखाई देता। शिकार इस एस्कीमो जाति का प्रिय व्यसन तथा जीवन यापन करने का एक मात्र आधार है।
एस्कीमो लोग एक प्रकार के बंजारे होते हैं। इनके ग्रीष्म कालीन निवास स्थान समुद्र तटीय क्षेत्रों में बने होते हैं। इनकी ऊँचाई लगभग 5 से 6 फुट के बीच में होती है। ये मकान पत्थर और खालों द्वारा निर्मित तथा लकड़ी के सख्त तख्तों एवं व्हेल की हड्डी से ढँके होते हैं। इन लोगों के शीत कालीन निवास स्थान इग्लू ;प्हसववद्ध कहलाते हैं, जो कि पत्थर के स्थान पर बर्फ़ द्वारा निर्मित होते हैं। ऐसे मकान गुम्बज जैसे प्रतीत होते हैं। ये इग्लू लगभग तीन फुट ऊँचे और इनके अन्दर का व्यास चार या पाँच फुट का होता है। एस्कीमो लोगों की वेशभूषा अधिकतर ग्रीष्म ऋतु के शिकार पर निर्भर करती है। केरीबो और सफेद भालू की खाल जो कि बहुत गर्म, हलकी एवं मजबूत होती है ग्रीष्म कालीन शिकार में ही इन्हें प्राप्त हो सकती है।

एस्कीमो की जनसंख्या 40,000 के लगभग आँकी गई है। ये लोग प्रायः ग्रामीण बस्तियों में रहते हैं जो दस से तीस मील की दूरी पर पाई जाती हैं, बस्तियों के लोग आपस में सम्बन्धी होते हैं। परन्तु ये लोग शादी अधिकतर दूसरे समूहों के लोगों से करते हैं। इन प्रदेशों के रीति-रिवाज़ अजीब हैं। एक व्यक्ति को किसी लड़की से शादी करने पर उसे उस बस्ती के समीप शिकार खेलने का अधिकार मिल जाता है। इस प्रकार एक व्यक्ति कई-कई बस्तियों में शादी करके उन स्थानों पर शिकार खेलने का अधिकार प्राप्त कर लेता है।

यह लोग अपने शिकार खेलने के औजार बनाने में बड़े सिद्धहस्त हैं। इनके शिकार खेलने के मुख्य औज़ारों में हारफून (Harphoon) भाले तथा तीर कमान आदि हैं। श्रम-विभाजन का वास्तविक रूप एस्कीमो के जीवन में देखने योग्य है। एस्कीमो केवल घर के बाहरी काम करते हैं शेष घर के अन्य कार्य स्त्रियों को ही करने होते हैं। इनकी स्त्रियाँ ही मछली, बेरों, जड़ों तथा सब्जियों को सुखाने का काम करती हैं। उन्हीं पर बच्चों की अद्योपान्त देखभाल का भार रहता है।
ऐतिहासिक खोजों के अनुसार अनुमान किया गया है कि इन लोगों की संस्कृति 2000 वर्ष से अधिक पुरानी है परन्तु आज भी उसका स्वरूप ज्यों का त्यों देखने को मिलता है। हडसन की खाड़ी के पश्चिमी प्रदेशों में जहाँ ये लोग गोरांग मानवों के सम्पर्क में आए हैं, उन स्थानों पर यह लोग यूरोपियन ढंग के पक्के भवन इत्यादि बनाकर उन्हीं के फैशन में रंग गए हैं।

खिरगीज
(Khirghis)
स्टेप्स के घास के मैदानों में जो लोग तियान शान (Tien shan) पर्वत श्रेणी के दक्षिण तथा पामीर (Pamir) पठार पर पाए जाते हैं खिरगीज़ कहलाते हैं। खिरगीज़ की जनसंख्या 10 लाख है, और ये लोग मंगोल जाति के लोगों से मिलते-जुलते हैं। इनका रंग पीला, बाल भद्दे व काले, कद ठिगना होता है। इनके प्रत्येक समूह का एक प्रधान होता है, जो प्रायः वंश-परम्परा से चला आता है। ये लोग ढीली व लम्बी बाँहों तथा तंग कालरवाला एक चोगा पहनते हैं, जिसे ये अपनी भाषा में ‘काफतंग’ (Caftung) कहते हैं। शत ऋतु में ये भीषण बर्फ़ के तूफान (snow storms or Buran) से बचने के लिए तीन या चार ‘काफतंग’ पहनकर उसके ऊपर एक जाकट पहन लेते हैं। शिकार खेलते समय यह भारी जूते व ब्रीजेस (Breaches) भी पहनते हैं

खिरगीज जाति के लोग ग्रीष्म काल में घुमक्कड़ का जीवन व्यतीत करने वाले होते हैं। अतः यह अपने साथ ऐसा डेरा या तम्बू जिसको यार्ट (Yart) कहते हैं, रखते हैं। यह डेरा आध घंटे में उखाड़ा या लगाया जा सकता है। इस डेरे के अन्दर सभी प्रकार की आवश्यक वस्तुएँ व घरेलू सामान रखे होते हैं। इसे ये ऊँटों पर लादकर एक स्थान से दूसरे स्थान को बड़ी सुगमता से ले जाते हैं। इन लोगों का मुख्य शिकार हिरन है। हिरन की खाल और कस्तूरी को ये नखलिस्तान के लोगों के पास ले जाकर अच्छे दामों में बेचते हैं।

खिरगीज लोग स्थिर एवं स्थायी जीवन में विश्वास नहीं करते। घुमक्कड़ जीवन को ये आनन्ददायी एवं आत्मसम्मान पूर्ण जीवन समझते हैं। इस घुमक्कड़ जीवन ने ही इन्हें वीर उत्साही तथा स्वतन्त्रता प्रेमी बनाया है। खेती अथवा व्यापार इन्हें अस्थायी निवास के कारण बहुत कम प्रिय हैं। कष्ट प्रकृति के भीषण प्रकोपों ने इन्हें भाग्यवादी बना दिया है। इनमें इन कष्टों और मुसीबतों के कारण एक-दूसरे के प्रति घनिष्ठ एवं निश्छल प्रेम तथा भाई चारे का नाता संसार के सभ्य कहे जाने वाले राष्ट्रों के लिए अनुकरण करने योग्य है।

खिरगीज जाति के लोग अपने पूर्वजों के शब्दों का अक्षरशः पालन करना अपना परम कर्तव्य समझते हैं। अपनी बात और प्रतिष्ठा की साख की ईमानदारी के साथ रक्षा करनेवाले होते हैं। इनमें धनी पुरुष कई स्त्रियाँ, कई बच्चों का पिता तथा कई चाकरों का स्वामी कहलाने का अधिकारी होता है। खिरगीज जाति के लोग चमड़े की बोतल, कालीन, दरियाँ, बर्तन तथा याक ;ल्ंाद्ध के ऊन से कपड़े बनाने के घरेलू उद्यम भी करते हैं। जिन क्षेत्रों में खिरगीज जाति के लोग विदेशी सभ्य समाज के सम्पर्क में आए हैं वहाँ वे निरन्तर प्रगति की ओर अग्रसर हो रहे हैं किन्तु समय के आधार तथा परिवर्तनशीलता के इस युग में इनकी उन्नति नगण्य है।

भील
(Bhils)
भारतवर्ष में भीलों की संख्या अनुमानतः 10 लाख है। ये लोग राजस्थान के दक्षिण में दुंगरपुर तथा बाँसवाड़ा रियासतों, पश्चिमी प्रतापगढ़, सम्पूर्ण मेवाड़ तथा पर्वतीय सिरोही के क्षेत्रों में मिलते हैं। भील जाति एक ऐसी जाति है जो कि प्राचीन काल से चली आ रही है। इसकी जातिगत विशेषताओं में समय की गति के साथ-साथ जो परिवर्तन हुए हैं वे नगण्य हैं। भील जाति के लोग बड़े संशयशील प्रकृति के असभ्य और डरपोक होते हैं। संशय एवं भय के निवारण हेतु ये मूक पशुओं की बलि देते हैं किन्तु पिछली शताब्दी में ये पशुओं के स्थान पर नर बलि भी देते थे। इनकी माता (goddess) के मन्दिरों का पुजारी भूपा (Bhopa) कहलाता है। जब कभी यह भूषा अपने अंगों से थर-थर काँपने लगते हैं, तब इन लोगों में ऐसा विश्वास उत्पन्न होता है कि हमारे भूपा महाराज के शरीर में देवी का आह्वान हुआ है और वह नव वर्ष के लिए नव सन्देश देने आई है।

भील लोगों का भूत-प्रेत में अटूट विश्वास होता है। ‘डाकन’ तथा शिकोत्री’ नाम से ये भूतों को सम्बोधित करते हैं। भील लोगों की मन्त्रों के प्रति अगाध श्रद्धा है। ग्रहण के सम्बन्ध में इनका विश्वास है कि सूर्य या चन्द्र को कोई दैत्य सताता है। उस समय ये हे काला राला मेल रें मेल बाप जी ने’ (हे अंधकार बाप जी को छोड़ दे) का तीव्र तम स्वरों से उच्चारण करते हैं। भील लोग हृष्ट-पुष्ट एवं चुस्त होते हैं। इनके पैर मामूली लम्बे, शरीर हलका, कद मामूली तथा रंग कत्थई होता है। ये लोग स्वभाव से हंसमुख तथा विनोदी होते हैं। घोर शीत ऋतु में भी ये अपने तन को ढँकते नहीं वरन ताप के सम्मुख बैठकर शीत को भगाते हैं। माँस, मछली, दारू और महुए के फूलों का भील लोग अपने भोजन में बहुत प्रयोग करते हैं।

भीलों की सामाजिक प्रथाएं अजीब हैं। भीलों की गृहस्थियों में प्रायः बड़े भाई की ही शादी की जाती है। उनकी मृत्यु के पश्चात बड़े भाई की बहु की शादी छोटे भाई (देवर) से कर दी जाती है। इस प्रकार की शादी ‘देवर वत्ता’ (Devar vatta) कहलाती है। ऐसी शादियों में प्रायः यह देखा जाता है कि वर की उम्र 10-12 वर्ष होती है और दूसरी ओर वधू चार-पाँच बच्चों की माँ बन चुकी होती है। हमारे यहाँ की दहेज प्रथा की भाँति इन लोगों में भी दहेज प्रथा है, जिसे ये लोग दोपा (Dopa) कहते हैं। इस प्रथा के अन्तर्गत लड़की का पिता लड़के को शादी के समय गहने, धन, भेड़ तथा बकरी पूर्व निश्चित मात्रा में देता है। यह प्रथा हमारे यहाँ की दहेज प्रथा उन्मूलन की भाँति समाप्त होती जा रही है। भीलों में विधवा विवाह तथा अनिच्छुक शादियाँ प्रायः कम होती हैं।

भील जाति अन्य भारत वासियों की तरह होली व दिवाली बड़ी धूम-धाम से मनाती है। मदिरा के मद में मस्त होकर नाचरंग में लीन होना इन उत्सवों की एक साधारण बात है। विविध वाद्य यन्त्रों से निसृत स्वर लहरियों पर पद थिरकन, स्वर घोष तथा सारे वातावरण का उसमें मग्न हो जाना भीलों के नृत्यों की एक विशेषता है। दीप मालिका के त्यौहार पर यहाँ की अन्धकारमय रजनी का दीपों और मशालों की रोशनी से जगमगा उठना, झिलमिल दीपों की पंक्तियों का झिलमिलाना मन हरण दृश्य है। भील जाति अधिकतर मोटा वस्त्र पहनना पसन्द करती है। ऊँची धोती तथा सफेद साफा भील मनुष्यों की मुख्य पोशाक है। यहाँ की स्त्रियाँ चाँदी के गहने और पैरों में मधुर एवं मनोहर ध्वनि करनेवाली ‘पैंजनी’ (Pinjanis) पहनती हैं। विधवा स्त्रियाँ इनको नहीं पहनती।

भील लोग ऊँची भूमि जिसे ‘पाल्स’ (Pals) कहते हैं पर विशेष रूप में रहते हैं। इनकी अनेक गृहस्थियों के समूह का एक सरदार होता है जो ‘मुक्खी’ या ‘गमेठी’ कहलाता है। यह वंशीय होता है। इस समूह के अन्तर्गत उत्पन्न होनेवाले सभी झगड़ों को वह एक ‘पंचस’, ‘जिसमें अधिकतर बुद्धिमान मनुष्य होते हैं, की सहायता से सुलझाता है। भील लोग मूर्ति पूजक, बड़े धार्मिक विचार वाले, मंत्र और भजनों से विशेष अनुराग रखने वाले, बहुत सच्चे तथा अहिंसा प्रेमी होते हैं। मृतक शरीर का ये दाह-संस्कार करते हैं।