सोमवार, 27 जनवरी 2014

दो मित्र

प्रेमचन्द ‘महेश’
राजू और सुन्दर दो बहुत पक्के दोस्त थे। दोनों हमेशा साथ-साथ घूमा करते थे। एक बार दोनों दोस्त एक गाँव को जा रहे थे। उस गाँव के रास्ते में एक बड़ा भारी जंगल पड़ता था। उस जंगल में अनेक प्रकार के भयानक जानवर रहते थे।

जब दोनों मित्र जंगल से गुजर रहे थे, तब उन्होंने झाड़ियों में खड़खड़ाने की आवाज सुनी। दोनों मित्र चौकन्ने होकर इधर-उधर देखने लगे। इतने में दोनों ने सामने की झाड़ी से एक भालू को निकलकर अपनी ओर आते देखा। भालू को देखते ही दोनों के प्राण सूख गए। दोनों अपनी-अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर भागने लगे। इन दोनों के पीछे की ओर बरगद का एक बहुत बड़ा पेड़ था। राजू भागकर पेड़ पर चढ़ गया। और उसने अपने आपको पेड़ की डालियों में छिपा लिया। सुन्दर को पेड़ पर चढ़ना नहीं आता था। उसे अपने प्राण बचाने का अब कोई रास्ता नज़र नहीं पड़ा। उसने पेड़ पर बैठे राजू को पुकारा पर राजू भला कब सुनने वाला था! उसे अपने प्राण बचाने की पड़ी थी और भालू से डरकर पेड़ की डालियों में छिपा बैठा था।

इधर भालू सुन्दर के बहुत निकट आ पहँुचा परन्तु सुन्दर ने अपना साहस नहीं छोड़ा। वह भूमि पर अपनी आँखें बन्द कर और साँस रोककर लेट गया क्योंकि उसे मालूम था कि भालू मरे हुए को नहीं खाता।

कुछ क्षण बाद भालू सुन्दर के नज़दीक पहँुचा। उसने सुन्दर के पड़े शरीर को देखा। उसकी नाक के पास अपना मँुह ले जाकर सूँूघा और फिर उसके कानों के पास जाकर कुछ फुसफुसाहट की-सी आवाज़ की। एक बार फिर भालू ने बड़े ध्यान से सुन्दर के शरीर को देखा और उसे मरा समझकर उसका चक्कर लगा फिर चलता बना। पेड़ पर चढ़ा राजू यह सब साँस रोके बड़े ध्यान से देखता रहा।

भालू के काफी दूर चले जाने के बाद राजू पेड़ से उतरकर सुन्दर के पास आया। उसने सुन्दर को जगाया। सुन्दर जाग गया। दोनों मित्र आगे चलने को तैयार हुए। रास्ते में चलते-चलते राजू ने सुन्दर से पूछा - ‘‘कहो मित्र, भालू ने तुम्हारे कान में क्या-क्या बातें कहीं?’’

सुन्दर राजू की मित्रता की परीक्षा पहले ही कर चुका था। इस कारण वह राजू के फिर मित्र कहकर पुकारने पर चिढ़ गया और बोला - ‘‘भाई, मुझसे भालू ने कहा कि जो मित्र खतरे के समय तुम्हें अकेला छोड़ जाए उसके साथ जंगल में कभी भी सप़$र मत करना।’’

सुन्दर की बात को राजू ने सत्य माना और वह मन-ही-मन पछताने लगा। सच है, सच्चे मित्र की परीक्षा मुसीबत में ही होती है।

गुरुवार, 23 जनवरी 2014

शेर की बीमारी

प्रेमचन्द ‘महेश’
एक शेर बहुत बूढ़ा हो चुका था। जंगल में घूमकर शिकार करना अब उसके बस की बात नहीं थी। इस कारण वह भूख से बेचैन रहने लगा। जंगल के जानवरों ने शेर की इस बुरी दशा को देख चैन की साँस ली और निडर होकर जंगल में घूमने लगे। जंगल में मंगल छा गया। सब पशु बड़े सुख से दिन काटने लगे। शेर ने यह सब देखा। वह मन-ही-मन जल-भुन गया। उसे जानवरों पर बड़ा क्रोध आया। पर बेचारा करता क्या! जानवरों को पकड़ना तो दूर अब उन्हें डराना-धमकाना भी उसके बस की बात न थी। आखिरकार चुप होकर बैठ रहा और घर बैठे ही जानवरों के शिकार से पेट भरने की बात सोचने लगा।
कुछ दिनों बाद जंगल में शेर के बहुत बीमार होने की खबर फैली। सभी जानवरों ने इसे सत्य माना। सबने शेर के अन्तिम दर्शन करने का निश्चय किया। सब बारी-बारी से शेर की गुफ़ा में उसे ढाढ़स बँधाने के लिए जाने लगे।
शेर ने अपने बीमार होने का खूब स्वाँग रचा था। वह गरदन लटकाए, मँुह को पंजों में दबाए और पेट को अपने पैरों में फँसाए पड़ा रहता था। उसे देखने आने वाले जानवर उसे देखकर यही समझते कि अब यह इस दुनिया में दो-चार दिन का ही मेहमान है।
जंगल के सभी जानवरों का शेर के निकट तक जाने पर रहा-सहा डर भी जाता रहा। अब वे शेर के पास खूब देर तक बैठे रहने लगे। शेर ने अब अपने पेट भरने का अच्छा अवसर देखा। उसके पास आने वाले जानवरों की भीड़ जब कम रह जाती तब वह चुपके से एक-दो जानवरों को अपने पंजों में दबा लेता था। उसकी इस चालाकी को पास खड़े जानवर तनिक भी समझ नहीं पाते थे। इस प्रकार से अब शेर भूखों मरने से बच गया और प्रतिदिन घर बैठे बढ़िया-से-बढ़िया शिकार पाने लगा।
जंगल के जानवरों की संख्या रोज़ाना घटती रही। बहुत से जानवरों के मित्र, बच्चे व अन्य कुटुम्बी गायब होने लगे। सबको यह सन्देह होने लगा कि जंगल में अब कोई दूसरा शेर आ गया है। सबने मिलकर सारा जंगल छान मारा पर दूसरा शेर कहीं न मिला। रोज़-रोज़ जानवरों की घटती संख्या को देख सब जानवर बहुत ही परेशान हो गए। वे सब मिलकर लोमड़ी के पास गए। लोमड़ी ने सबका खूब स्वागत किया फिर पूछा - ‘‘कहो भाई, तुम सब कैसे आए?’’
उन सब जानवरों का अगुआ बनकर जंगली सूअर बोला - ‘‘बहिन, तुम जानती ही हो कि जंगल का राजा शेर तो बीमार पड़ा है, पर फिर भी रोजाना न जाने कौन हम पशुओं में से एक-दो को चट कर जाता है। हमें इसका बड़ा भय लग रहा है।’’
लोमड़ी शेर की बीमारी की बात सुन पहले खूब हँसी। कुछ देर चुप रहने के बाद वह बोली - ‘‘अब तुम सबको घबराने की कोई जरूरत नहीं। मैं तुम सबकी मदद करूँगी।’’
लोमड़ी की बात सुन जंगली सूअर बोला - ‘‘बहिन, हम सब तुमसे सहायता माँगने ही तो आए थे। तुमने हमको सहायता देने का वचन दे ही दिया है। इस कारण हम अब बेफिक्र हैं।’’
इसके बाद लोमड़ी ने कहा - ‘‘तुम सब अब घर जाओ। मैं जल्दी ही तुम्हारे शिकारी को खोज निकालँूगी।’’
लोमड़ी की बात सब जानवरों के मन भा गई। सब खुशी-खुशी अपने घर लौट चले।
दूसरे दिन शाम को लोमड़ी शेर की गुफ़ा पर पहँुची। उस समय शेर गुफ़ा में जागा बैठा था। वह लोमड़ी को देखकर बोला - ‘‘आओ, मेरी गुफ़ा के अन्दर आओ। बाहर खड़ी-खड़ी थक जाओगी।’’
शेर की मीठी-मीठी बातों में भला लोमड़ी कब आने वाली थी। अतः वह बोली - ‘‘धन्यवाद, मैं बाहर ही ठीक हँू।’’
इस पर शेर को कुछ क्रोध-सा आया। पर क्रोध को दबाकर बड़े प्रेम से बोला - ‘‘मैं तो बीमार हँू। हिलने-डुलने से लाचार हँू। तुमको मैं खा थोड़े ही जाउँ$गा। तुम मेरे पास प्रेम से आकर बैठो।’’ शेर की बातें सुन लोमड़ी खिलखिलाकर हँसती हुई बोली - ‘‘अरे, जंगल के राजा! तुम बुढ़ापे में तो यह छल-कपट छोड़ दो। तुम्हारी गुफा में अनेक जानवरों के जाने के पैरों के निशान तो मिल रहे हैं, पर उनके वापस लौटने का एक भी निशान नहीं है। मैं तुम्हारी गुफ़ा में आकर अपनी मौत अन्य जानवरों की भाँति नहीं बुलाना चाहती। तुम्हारी बीमारी तो बुढ़ापे में घर बैठे शिकार मिल जाने का एक बहाना है। मैंने जंगल के जानवरों के रोज़ाना कम होते जाने का कारण जान लिया। अब तुम्हारा बीमारी का बहाना नहीं चलेगा।’’ और यह कहकर वह भाग चली।
इसीलिए यह सत्य कहा गया है कि झूठी बात अधिक देर तक नहीं चलती।

नया घर

प्रेमचन्द ‘महेश’
एक बार एक चालाक लोमड़ी कुएँ में गिर पड़ी। कुआँ गहरा था। उसने कुएँ से बाहर निकलने की लाख कोशिशें कीं, खूब उछली-कूदी पर बाहर न निकल सकी। अपनी सारी मेहनत को बेकार जानकर और अपने जीवन की आशा को छोड़कर वह हार मानकर कुएँ में चुपचाप बैठी रही।
काफी देर बाद एक प्यासी बकरी उस कुएँ पर आई। बकरी ने कुएँ में झाँककर देखा तो उसने वहाँ पानी पर लोमड़ी को बैठे पाया। यह देख उसने लोमड़ी से पूछा - ‘‘बहिन लोमड़ी, यहाँ बैठी क्या कर रही हो?’’
लोमड़ी बड़ी चालाक थी। इस कारण वह अपने दुख को छुपाकर बड़ी प्रसन्न हो बकरी से कहने लगी - ‘‘अरी बहिन, सारे जंगल में तेज गर्मी पड़ रही है। सारे नदी-नाले सूख चुके हैं। पीने को पानी भी नहीं मिलता। इसी कारण गर्मी और प्यास से बेफिक्र रहने के लिए मैंने इस कुएँ में ही अपना नया घर बनाया है।’’
बकरी मूर्ख होने के साथ-ही-साथ प्यास और गर्मी से बेचैन भी थी। अतः वह लोमड़ी की चालाकी से भरी बातों को सत्य समझी और बोली - ‘‘बहिन, तुम ठीक कहती हो। सारे जंगल में मैं घूम-फिर आई किन्तु कहीं पीने को पानी नहीं मिला। और गर्मी, उसकी बात तो पूछो मत। गर्मी ने तो हम सबका होश-हवास उड़ा ही दिया है। तुम्हारी यह दूर की खोज बहुत ठीक है। यहाँ तुम दोनों बातों से बेफिक्र हो।’’
बकरी की बातें सुनकर लोमड़ी उसकी मूर्खता पर मन- ही-मन हँसी। उसने सोचा कि क्यों न इस मूर्ख बकरी को भी अपने पास ही कुएँ में बुलाया जाए? अतः वह बड़ी हमदर्दी से बोली - ‘‘तो बहिन बकरी, फिर बातें बनाने से फायदा क्या? तुम प्यास और गर्मी दोनों ही से बेचैन हो। तुम यहाँ आ जाओ। यहाँ का पानी खूब मीठा है और गर्मी तो यहाँ है ही नहीं। इसके सिवाय हम और तुम दोनों यहाँ मिलकर आराम से रहंेगे।’’
लोमड़ी की चालाकी से भरी बातें बकरी के मन भा गईं। उसने कुएँ में गिरने और फिर बाहर निकलने की बात सोचने की ओर ध्यान ही नहीं दिया। बस तेज छलाँग मारकर कुएँ में जा पहँुची।
बकरी ने कुएँ में पहँुचकर खूब पानी पिया। पानी पीकर खूब उछली और प्रसन्न हो उठी। लोमड़ी यह सब चुपचाप देखती रही। कुछ देर बाद बकरी ने कहा - ‘‘बहिन लोमड़ी, तुम मेरे कुएँ में आने से प्रसन्न नहीं हो क्या?’’
लोमड़ी ने कहा - ‘‘नहीं-नहीं, मुझे भला प्रसन्नता क्यों नहीं है? तुम जैसी साथिन पाकर भला कौन खुश न होगा? पर मैं कुछ सोच रही हँू।’’ और यह कहते-कहते लोमड़ी कुछ उदास-सी हो गई।
बकरी अब भी लोमड़ी की बातों को जान न सकी और बड़े ही भोलेपन से बोली - ‘‘बहिन, तुम क्या सोच रही हो? मुझे भी बताओ? शायद मैं भी तुम्हारी बातें सुनकर तुम्हारी कुछ मदद कर सकँू।’’
लोमड़ी पहले कुछ देर तक चुप रही। किन्तु फिर बड़े दुख के साथ कहने लगी - ‘‘अरी, बहिन बकरी, इस कुएँ में हम और तुम दोनों कैदी हैं। हम दोनों में से कोई भी अब बाहर नहीं निकल सकता। हम दोनों यहाँ बस मर जाएँगे।’’
लोमड़ी की बातें सुनकर बकरी को अब भी कुछ समझ नहीं पड़ा। वह तो पानी और ठंड पाकर मस्त पड़ी थी। इसीलिए बड़ी मस्ती के साथ वह बोली - ‘‘बहिन लोमड़ी, बाहर जाने की हमें आवश्यकता ही क्या? जंगल के भय से हम यहाँ बेफिक्र हैं। तुम भी क्या बेकार की बातें सोचती हो!’’
इस पर लोमड़ी ने कहा - ‘‘पर यहाँ हम कैदी हैं। हमें खाना और जंगल की प्यारी-प्यारी हवा यहाँ मिलने वाली नहीं है। अतः हम मर जाएँगे। इस कुएँ से बाहर निकलने का एक उपाय मैंने सोचा है।’’
बकरी अब कुछ होश मंे आई और बोली - ‘‘क्या उपाय सोचा है तुमने बहिन? जरा मैं भी सुनँू!’’
‘‘इस कुएँ से बाहर निकलने का केवल यही उपाय है कि तुम कुएँ में खड़ी हो जाओ और फिर मैं तुम्हारी पीठ पर चढ़कर कुएँ से बाहर निकल जाउँ$। इसी प्रकार फिर मैं तुम्हें निकालँूगी। बोलो, तुम्हें ये दोनों शर्तें स्वीकार हैं?’’ लोमड़ी ने बकरी से पूछा।
बकरी लोमड़ी की बातों पर पूरी तरह से विश्वास कर चुकी थी। उसे लोमड़ी की बातें बड़ी अच्छी और मीठी लग रही थीं। इसीलिए उसने कहा - ‘‘अरी बहिन, तुम खूब सोचती हो! लो, दोनों के बाहर आने-जाने का रास्ता भी बन गया। मैं अभी कुएँ में खड़ी होकर तुम्हें अपनी पीठ पर चढ़ाकर कुएँ से बाहर करती हँू। और फिर तुम मुझे भी बाहर निकाल देना।’’
इतना कहने के तुरन्त बाद ही बकरी कुएँ की दीवार के सहारे तनकर खड़ी हो गई। लोमड़ी मन-ही-मन खूब उछली। उसने सोचा, बकरी से अब अधिक बातें नहीं करनी चाहिए। इसीलिए एकदम उछलकर बकरी की पीठ पर चढ़ गई और छलाँग मारकर कुएँ के बाहर हो गई।
कुएँ के बाहर पहँुचकर दोनों ने एक-दूसरे को देखा। लोमड़ी बकरी को देखकर खूब हँसी। बकरी बेचारी लोमड़ी की चालाकी अब भी नहीं समझी और बोली - ‘‘बहिन, हँसती क्यों हो? अब तुम अपने वायदे के अनुसार मुझे भी कुएँ के बाहर निकालो। यहाँ कुएँ में मेरा दम घुटने लगा है।’’
बकरी की मूर्खता से भरी बातें सुनकर लोमड़ी खूब हँसी और फिर बोली - ‘‘अरी मूर्ख बकरी, यदि तेरे दाढ़ी के बाल जितने सिर हों तो भी तू मूर्ख ही रहेगी। भला मैं अब फिर कुएँ में गिरकर तुझे बाहर निकालँू। वह तो तू ही मूर्ख है जो व्यर्थ में अपनी जान गँवा बैठी। तूने कुएँ में गिरने से पहले निकलने की बात सोची भी नहीं। तेरे लिए यह ठीक भी है। मूर्ख की मौत ऐसे ही होती है। तू तो अब अपने नए घर मंे बेफिक्र रह।’’ इतना कहकर लोमड़ी कुएँ में झाँककर खूब हँसी और फिर जंगल की ओर उछलती-कूदती भाग निकली। बकरी बेचारी कुएँ में ही खड़ी रही।
इसीलिए तो कहा है कि किसी काम को करने से पहले उसको खूब सोच-समझ लो।

बुधवार, 22 जनवरी 2014

राजा और बन्दर

एक राजा को नाच देखने का बड़ा शौक था। वह अपने देश के सारे नाचने वालों का नाच देख चुका था। सभी नाचने वालों के नाच से उसका मन भर चुका था। अब उसके दरबार में कोई भी नया नाचने वाला नहीं आता था। इस कारण वह दुखी रहने लगा।
एक दिन वह राजा एक सरकस देखने गया। वहाँ उसने बन्दरों को नाचते देखा। वह उनके नाच को देखकर बहुत खुश हुआ। उसने अपने राज में पहँुचकर बन्दरों का नाच देखने का निश्चय किया। अनेक बन्दर नचाने के लिए बुलाए गए। इन बन्दरों को बहुमूल्य पोशाकों और गहनों से सजाया गया। सजाने के बाद सब बन्दरों को राजदरबार में पहँुचाया गया। राजदरबार में सभी बन्दरों का नाच शुरू हुआ। बन्दरों ने बहुत सुन्दर नाच दिखलाया। राजदरबार में बैठे सभी राजदरबारी बन्दरों के नाच को देखकर झूम उठे। राजा की खुशी का तो कहना ही क्या था! वह तो उस नाच को देखकर अपनी सुध-बुध खो चुका था। बन्दरों की नकल करने की कला उसे बहुत भाई।
अब राजा बन्दरों के नाच को देखने में इतना तल्लीन रहने लगा कि वह राजकाज करना भूल गया। राजदरबार में वह अब नहीं जाता था। अपने महल में ही वह बन्दरों को नचाया करता। उनके नाचने में आनन्द लिया करता। राज के जो अधिकारी उससे मिलने पहँुचते उनसे बस बन्दरों के नाच का ही जिक्र किया करता। बन्दरों के नाच को अब वह मनुष्यों के नाच से अधिक अच्छा बताने लगा था।
राजा की इस हालत को देख राजदरबारी दुखी रहने लगे। बिना राजा के उनका काम चल ही नहीं पाता था। एक दिन सब राजदरबारी मिलकर राजा के महल में गए। सबने राजा सेे बन्दरों का नाच देखने की प्रार्थना की। राजा उनकी प्रार्थना को सुन बहुत खुश हुआ। उसने तुरन्त ही अपने नौकरों को बुलाया। नौकर आए। उसने नौकरों को बन्दरों को लाने का हुक्म दिया। नौकरों ने तुरन्त ही बन्दरों को सजा-सँवारकर राजा के सामने लाकर खड़ा कर दिया।
बन्दरों की पोशाकों को देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ। अपने सभी राजदरबारियों को उन पोशाकों को दिखाता हुआ बोला - ‘‘आह, इन सुन्दर नाचने वालों के लिए ये सुन्दर पोशाकें ठीक लगती हैं। ऐसे सुन्दर नाचने वाले मैंने आज तक नहीं देखे।’’ और इतना कहकर उसने बन्दरों को नचाना शुरू कर दिया।
बन्दर नाचने लगे। बन्दरों का नाच जोर-शोर से चल रहा था। राजा उनके नाच की बड़ाई कर रहा था। बन्दरों को वह आदमी से भी बड़ी अक्ल वाला बता रहा था। इसी बीच एक राजदरबारी ने कुछ चने के दाने बन्दरों की ओर फेंके। उन चने के दानों को देखकर बन्दर अपना नाच भूलकर अपनी स्वाभाविक हरकत पर उतर आए। वे सब नाचना भूलकर चने के दानों पर झपटे। कुछ बन्दर आपस में लड़ने-झगड़ने लगे। कुछ अपने बहुमूल्य गहने और पोशाकें नष्ट करने लगे। इस प्रकार से नाच के स्थान पर अब बन्दरों की लड़ाई होने लगी। सभी दरबारी बन्दरों की इन करतूतों पर अब ठहाका मारकर हँसने लगे।
राजा सब कुछ देखकर बोला - ‘‘मैं बन्दरों को बहुत अच्छा नाचने वाला और तेज बुद्धि वाला समझता था। अब मालूम हुआ ये बन्दर हैं और कुछ नहीं। इन पर मैंने बहुत-सा धन समय बेकार ही खर्च किया।’’ इतना कहकर उसने सब बन्दरों को अपने महल से भगा दिया।
किसी ने ठीक कहा है कि मूर्ख को विद्वान मानने वाला मनुष्य बाद में पछताता है।

मंगलवार, 21 जनवरी 2014

साझे का हिस्सा

एक दिन शेर, लोमड़ी और जंगली सूअर ने मिलकर जंगल में ख़ूब शिकार किया। शाम के समय शेर ने जंगली सूअर से शिकार के लगे ढेर को तीन हिस्सों में बाँटने को कहा। जंगली सूअर बड़ी प्रसन्नता से उस शिकार को बाँटने में लग गया। उसने शिकार को तीन बराबर-बराबर हिस्सों में बाँटा और शेर तथा लोमड़ी से अपना-अपना हिस्सा उठाने को कहा। शेर इस बँटवारे को देखकर क्रोधित हो उठा और उसने जंगली सूअर को मार डाला। लोमड़ी बैठी-बैठी यह सब देख रही थी। वह भागने को तैयार ही थी कि शेर ने उससे कहा - ‘‘शिकार का हिस्सा अब तुमको बाँटना होगा। वह नालायक जंगली सूअर गलत ढंग से हिस्सा बाँटने पर मारा गया।’’
लोमड़ी ने शेर की बात मानी। उसने सारे शिकार की एक बड़ी ढेरी बनाई। ख़ूब देर तक सोचने के बाद उसने उस ढेरी में से सिर्फ एक जानवर अपने लिए रखकर शेष सब शेर को दे दिए। लोमड़ी के इस बँटवारे से शेर ख़ुश हुआ।
इसी बीच वहाँ गुर्रामल भालू आ गया। वह शेर से बोला - ‘‘मुझे भी हिस्सा चाहिए।’’
‘‘बेटा गुर्रामल, तू तो जिद ही पकड़ गया है। भला तेरा-मेरा क्या साझा? पर तू बच्चा है तेरा हठ मुझे मानना ही पड़ेगा। चल, तेरा-मेरा साझा पक्का रहा।’’ शेर ने यह कहकर गुर्रामल की ओर देखा।
गुर्रामल शेर की बातें सुनकर नाचने लगा। दोनों इस साझे से ख़ुश जो थे।
अब गुर्रामल उत्साह के साथ शिकार को जाने लगा। जंगल के भयानक जानवरों का उसे अब डर तो था ही नहीं। वे सभी जानवर उससे डरते थे। शेर चचा के साझे का यह अद्भुत प्रभाव देख गुर्रामल मन-ही-मन फूला न समाता था। उसने दिन भर साहस से कई जानवरों का शिकार किया और शाम के समय उन सबको लेकर शेर चचा के पास पहुँचा।
शेर गुर्रामल के लाए शिकार को देखकर खूब प्रसन्न हुआ। उसने गुर्रामल की पीठ थपथपाई। तत्पश्चात गुर्रामल ने कहा - ‘‘चचा, आपका आशीर्वाद आज सफल हुआ है। अब आप शिकार के दो बराबर-बराबर हिस्से करके एक मुझे दे दें और एक आप रख लें।’’
शेर ने लाए शिकार पुनः ध्यान से देखा। हिरन और खरगोश को देखकर उसके मँुह में पानी भर आया। वह सोचने लगा कि क्यों न पूरे शिकार को ही हड़प कर लिया जाए। यह सोच वह बोला - ‘‘गुर्रामल, इस शिकार के तीन हिस्से करो।’’
गुर्रामल जो भोला बच्चा था, नासमझ था, बोला - ‘‘चचा, हम दो ही तो साझी हैं, फिर इस शिकार के तीन हिस्से क्यों करें?’’
शेर ने गुर्रामल की बात सुनी। उसने तीन हिस्से वाली बात पर फिर ज़ोर देते हुए कहा - ‘‘तुम्हें तीन हिस्से ही करने होंगे, गुर्रामल।’’
‘‘पर चचा कैसे? यह तो समझाओ।’’
अब गुर्रामल की हठीली बातों पर शेर को क्रोध आने लगा और वह बोला - ‘‘तुम्हें तीन हिस्से ही करने होंगे। पहला हिस्सा मेरा होगा क्योंकि मैं जंगल का राजा हूँ। दूसरा हिस्सा भी मेरा ही होगा क्योंकि मैं तुम्हारा साझेदार हूँ। तीसरा हिस्सा भी तुम्हें मुझे ही देना होगा क्योंकि मैं तुमसे बलवान हूँ। अगर तुम ये तीनों हिस्से मुझे नहीं दोगे तो मैं तुम्हें जान से मार डालूंगा।’’
शेर की इस धमकी और अन्याय भरी बातों को सुनकर गुर्रामल सकपका कर बोला - ‘‘चचा, तुम ऐसा अन्याय क्यों कर रहे हो? इस शिकार में से आधा हिस्सा ले लो और आधा हिस्सा तुम मुझे दे दो मैं भूखा हूँ।’’
शेर ने सोचा कि गुर्रामल आसानी से भागने वाला नहीं। अतः वह अपनी आँखें लाल-पीली करके बोला - ‘‘चाचा का बच्चा! जाता है कि नहीं? कहता है भूखा हँू। चल जा, भाग जा। मैं भी भूखा हूँ कहीं तुझे ही ना खा बैठूँ।’’
गुर्रामल ने शेर की बातें सुनीं। उसकी शक्ल की ओर कुछ देर तक देखा। वह शेर से कुछ कहने ही जा रहा था कि शेर उसकी ओर जैसे ही मुँह फाड़कर झपटने को था वैसे ही वह नौ दो ग्यारह हो गया।
सच है, बलवान की हमेशा जीत होती है

अमर दीप

प्रेमचन्द ‘महेश’

पं. नलिन विलोचन शर्मा
बिहार प्रान्त हिन्दी भाषा और साहित्य सेवियों की प्रमुख जन्मभूमि रहा है। समय-समय पर बिहार की पावन भूमि में अनेक राष्ट्रभाषा सेवी जन्म धारण करते रहे हैं। ‘जातं मृत्यु ध्रुवं’ के अनुसार बिहार के रजकण में उत्पन्न हिन्दी का एक महान साहित्यकार, सिद्धहस्त सम्पादक, सफल कहानीकार, कवि, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रधानमन्त्री, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के अनुसन्धान विभाग के कुशल निर्देशक तथा पटना विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष आचार्य नलिन विलोचन शर्मा 22 सितम्बर सन् 1961 को हमसे बिछुड़कर चले गए।

पं. नलिन विलोचन शर्मा हिन्दी के कर्मठ साहित्य सेवी स्वं. पं. रामवतार जी शर्मा के सुपुत्र थे। उनका जन्म 28 फरवरी, सन् 1918 को हुआ था। उन्होंने साहित्यिक सेवा सन् 1932 से आरम्भ की। अपने जीवन के अल्पकाल में नलिन जी ने जो कार्य किए वे स्तुत्य हैं। उन्होंने हिन्दी साहित्य की अभिवृद्धि एवं प्रचार के अतिरिक्त ‘दृष्टिकोण’ ‘कविता’ और ‘साहित्य’ जैसे हिन्दी के साहित्यिक पत्रों का सफलतापूर्वक सम्पादन किया। ‘सदल मिश्र ग्रन्थावली’, ‘हस्तलिखित हिन्दी पोथियों का विवरण’ (कई भागों में), ‘लोक साहित्य आकार सूची’, ‘लोक गाथा परिचय’ और ‘लोक कथा कोश’ का भी सम्पादन कर अपने साहित्यिक श्रम का परिचय नलिन जी ने दिया। अनेक कहानियों और कविताओं के प्रणयन के अतिरिक्त ‘गोस्वामी तुलसी दास’, ‘अयोध्या प्रसाद खत्री’, ‘साहित्य का इतिहास दर्शन’ जैसे शोधपूर्ण ग्रन्थों की रचना से नलिन जी असाधारण प्रतिभा वाले श्रेष्ठ साहित्यकार सिद्ध होते हैं। उनके प्रकाशित कहानी-संग्रह में ‘विष के दांत’ प्रमुख हैं। इस संग्रह में लेखक ने मानव मन की गहरी सूझ-बूझ के ज्ञान का परिचय पाठक के समक्ष प्रस्तुत किया है।

नलिन जी ने संस्कृत साहित्य का गम्भीर अध्ययन भी किया था। उनकी पाश्चात्य साहित्य में भी असाधारण गति थी। वे अपने गहन गम्भीर अध्ययन और तीक्ष्ण बुद्धि के कारण हिन्दी के मान्य आलोचकों में गिने जाते थे।
साहित्यकार के अतिरिक्त नलिन जी एक स्वतन्त्र एवं मौलिक विचारक भी थे। वे सुसंस्कृत, मृदुभाषी, और उत्कृष्ट कोटि के क्षाम शील व्यक्ति थे। अहिंसा उनकी हर साँस में जीवित थी। सारांश में, वे ‘विद्या ददाति विनयम्’ की प्रतिमूर्ति थे।

आज उनका पार्थिव शरीर हमारे बीच में नहीं है तो क्या? उनकी कृतियों के भीतर से, मित्रों के स्मृति-संस्मरणों से जो धवल कीर्ति गाथा झाँकती है, वह उनको अमर किए हैं। यह सच है कि बिहार इस असाधारण प्रतिभा के अभाव में आज रंक-सा बन गया है। नलिन जी के आकस्मिक निधन से हिन्दी की क्षतिपूर्ति निकट भविष्य में होनी असम्भव है। परन्तु नलिन जी सिंहासनासीन होकर गए हैं। उनकी मरणोत्तर आयु अभी शेष है।


पं. सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’
भारती की वीणा की झंकार को अपने हृदय से निःसृत करनेवाला, अमर शब्द सौन्दर्य शिल्पी, अमृतपुत्र कवि महाप्राण निराला का पार्थिव शरीर 16 अक्तूबर, सन् 1960 को पंचतत्वों में विलीन हो गया। वह महा मानव उन रस सिद्ध कवियों में से था जो महात्मा भृर्तहरि के शब्दों में ‘नास्ति येषां यशः शरीरे जरामरणजं भयम्’ के अनुसार यश शरीर से अमर होकर अपनी विशिष्टता और भौतिक शरीर की ओजमयी अमिट छाप हिन्दी जगत के स्मृति पटल पर छोड़ गया। निराला के महा प्रयाण से भारती के मन्दिर का रत्नदीप बुझ गया। हिन्दी साहित्य काश का ज्योर्तिमान सूर्य अस्त हो गया। उस महाप्राण के स्वर्गारोहण से हिन्दी काव्य के ज्योति-तूर्य का नाद अचानक रुक गया और हिन्दी का भाव-जगत, जिसको उस महाप्राण ने जीवन दान देकर विकसित किया था, अचानक ही हतप्रभ हो गया। महाप्राण निराला का जन्म सन् 1890 में बंगाल प्रान्त के महिषादल राज्य में हुआ। उनके पिता पं. राम सहाय जी राज्य कोष के संरक्षक थे। निराला जी का जीवन दुखों में बीता। दुःख ही उनके जीवन का अन्त तक साथी रहा। उन्होंने एक कविता ‘सरोज स्मृति’ में कहा भी है -
‘‘दुख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ उसे, जो नहीं कही।’’
हिन्दी जगत में निराला की शक्ति व्यंग्यकार, अनुवादक, साहित्य-समीक्षक, सम्पादक, निबन्ध लेखक, कहानीकार, रेखा-चित्रकार, कवि और उपन्यास लेखक के रूप में विकसित हुई मिलती है। अपने व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों की दृष्टि से निराला महान् थे, महा मानव थे। उनका विशाल व्यक्तित्व, विचारोदात्तता, मानवीय सहानुभूति और सदाशयता की अनेक कहानियाँ प्रचलित हैं।

हिन्दी साहित्य में निराला रामकृष्ण परम हंस तथा स्वामी विवेकानन्द के वेदान्त और राष्ट्र प्रेम, कवीन्द्र रवीन्द्र के सौन्दर्य प्रेम और बंकिम चन्द्र के मार्मिक व्यंग्य प्रभाव को लेकर अवतरित हुए। उन्होंने अपने साहित्य के द्वारा भक्ति तथा रहस्य भावना, नव जागरण का सन्देश, दीन दुखियों तथा पीड़ितों के प्रति सहानुभूति के चित्र प्रस्तुत करने के अतिरिक्त प्रकृति के भी सुन्दर चित्र प्रस्तुत किए। उन्होंने प्रकृति का चित्रण कहीं स्वतन्त्र रूप से, कहीं छाया वादी शैली द्वारा प्रकृति का मानवीय करण तथा कहीं रहस्य भावना सम्बन्धी प्रकृति का मधुर चित्रण प्रस्तुत किया है। उन्होंने काव्य को जन मानस तक पहुँचाने के लिए लोक हृदय के स्पन्दन का स्पर्श किया। छन्दों में अपनी कोमल तथा कठोर अँगुलियों से हास्य गर्भित रुदन तथा करुणा-संचित अटूट हास्य भरा। अपनी अपौरुषेय वाणी से निराला ने नवजागरण का सन्देश फूँका। वीणा-वादिनि के स्तवन से स्वतन्त्र रव का घोष तथा अमृत-मंत्र का संचार कर भारतीयों की अलस निद्रा को दूर किया।

निराला वास्तव में निराला व्यक्तित्व लेकर हिन्दी साहित्य क्षेत्र में अवतीर्ण हुए थे। उनकी निराली मान्यताएं, निराले छह अतुकान्त कविता में संगीत का अपूर्व मणि-कांचन योग उन्हें हिन्दी जगत में निराला बनाने में समर्थ हुआ। निराला ने हिन्दी के काव्य क्षेत्र में पदार्पण करते ही काव्य की परम्परा में उसकी शैली और तकनीक में एक अनजाना महार्णव लहरा दिया। काव्य पोत के रजत बन्धों को सहसा तोड़ दिया। उन्होंने अपनी निराली प्रतिभा से नए छन्द और नए भावों का प्रजनन किया तथा परम्पराओं के शिथिल रूढ़िग्रस्त आडम्बरों को तोड़ डाला। निराला के प्रादुर्भाव से हिन्दी जगत में एक तूफान आया और उस तूफान के बाद जो दिशाएँ मूक और सूनी हुईं तो वहाँ से एक ऐसी छन्द परम्परा का तथा एक ऐसी भाव बेला का स्पन्दन उठा जो अब तक अनजाना था।

निराला सरस्वती के वरदपुत्र थे। वीणापाणि सरस्वती उनके कंठ में विराजती थी। उनकी वाणी कविता के भावों को साकार रूप प्रदान करने में अत्यन्त सहायक सिद्ध होती थी। ‘जुही की कली’ सात्त्विक सौन्दर्य और श्रृंगार का स्वरूप उपस्थित करने में उतनी ही समर्थ थी जितना कि ‘राम की शक्ति पूजा’ और ‘बादल राग’ ओज गुण को और ‘विधवा’ तथा ‘भिक्षुक’ ने तो न मालूम कितनी बार उनके कलकंठ से निकल कर करुणा की सरिता बहाई थी।
निराला ने जहाँ कोमल भाव-स्वरों की मधुर सरगम छेड़ी और स्निग्ध सुरभिमय कल्पना की पराग धूलि बिखेरी, वहाँ वे व्यंग्य और कटाक्ष में भी पीछे नहीं रहे हैं। वे आरम्भ से ही अस्वस्थ सामाजिक रुढ़ियों के विरोधी रहे। उनकी रचनाओं में व्यक्त तथा समाज पर स्थान-स्थान पर व्यंग्य बाणों का प्रहार पाठकों को मिलता है। उनका व्यंग्य शिष्ट है, उच्च कोटि का है और वह प्रतीकों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। उनकी सबसे प्रसिद्ध व्यंग्य पुस्तक ‘कुकुरमुत्ता’ है। कुकुरमुत्ते के सहारे निराला ने पूँजीवाद पर आक्रमण किया है और समाज के उपेक्षित तथा निम्न वर्ग की वकालत करते हुए उनकी महत्ता दिखाई है
कुकुरमुत्ता कहता है -
अबे सुन बे गुलाब,
भूल मत जो पाई ख़ुशबू, रंगों आब,
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतरा रहा है कैपिटलिस्ट।
इस रूप में निराला ने दबे, निराश्रित, असहाय गरीबों को अपनी कविता में वाणी दी और सामाजिक असमानता पर तीव्र प्रहार भी किया। निराला की कविता का स्वर उदात्त रहा। उनकी कविता में भारत के समस्त सांस्कृतिक इतिहास की प्रबुद्ध चेतना का शक्ति पुंज देखा जा सकता है। निराला के काव्य की पृष्ठभूमि भारतीय दर्शन ऐतिहासिक मीमांसा, सांस्कृतिक जीवन और ऐतिहासिक चेतना से अनुप्राणित होती रही। इसी कारण उनकी निम्नलिखित पंक्तियां राष्ट्रीय उद्बोधन की चेतना का जन मानस में स्पन्दन कर सकने में सक्षम हैं -
तुम हो महान्,
तुम सदा हो महान्,
है नश्वर यह दीन भाव,
कायरता, कामपरता,
ब्रह्म हो तुम,
पदरज भर भी है नहीं,
पूरा यह विश्व-भार!
‘जागो फिर एक बार’ शीर्षक की ये उद्धृत पंक्तियां आज भी राष्ट्रीय जन जागरण की बेला का आवाहन कर रही है।
निराला जी ने खड़ी बोली हिन्दी कविता को अपनी निरन्तर साधना से विश्व कविता साहित्य के समकक्ष खड़ी करने में महान योग दिया। उनकी काव्य भाषा बंगला से प्रभावित है जिसमें संस्कृत के शब्दों की बहुलता है, उन्होंने भाषा और शब्दों की चित्रमयता, संगीतात्मकता और नाद-सौन्दर्य की ओर विशेष ध्यान रखा। अपनी प्रखर प्रतिभा से निराला ने हिन्दी को ‘परिमल’, ‘गीतिका’, ‘अनामिका’, ‘अणिमा’, ‘अर्चना’, ‘आराधना’, ‘गीत गुंज’, ‘कुकुरमुत्ता’, ‘तुलसी दास’, ‘नए पत्ते’, ‘बेला’, ‘अपरा’ जैसे काव्य ग्रन्थ प्रदान किए। ‘अप्सरा, ‘अलका’, ‘निरुपमा’, ‘प्रभावती’, जैसे उपन्यासों से तथा ‘लिली’, ‘बिल्लेसुर बकरिहा’, ‘सुकुल की बीबी’, ‘चातुरी चमार’, ‘चोटी की पकड़’ तथा काले कारनामे’ आदि कहानियों से हिन्दी कथा साहित्य को समृद्ध किया। इतना ही नहीं कवीन्द्र रवीन्द्र साहित्य, रामकृष्ण और विवेकानन्द साहित्य का हिन्दी में सफल अनुवाद भी उन्होंने किया। उन्होंने हिन्दी में निबन्ध और आलोचनाएं भी लिखी हैं जिनसे उनकी प्रतिभा का एक सफल आलोचक के रूप में मूल्यांकन किया जा सकता है।

निराला के जीवन से सम्बन्धित अनेक संस्मरण इस बात की साक्षी देते हैं कि वे मानव संवेदनशीलता में परिपूर्ण महा मानव थे। एक संस्मरण प्रस्तुत है। जाड़े के दिनों की एक घटना है। बसंत पंचमी का दिन था। निराला का जन्मोत्सव मनाया जा रहा था। प्रयाग स्थित केसरवानी कॉलेज में रात्रि को 9.10 बजे तक प्रोग्राम चलता रहा। यों निराला जी कभी किसी सभा-सोसायटी में नहीं जाते थे। उस दिन अपने भक्तों के विशेष आग्रह पर वह उसमें उपस्थित थे। कड़ाके का जाड़ा पड़ रहा था, इसलिए सभी लोग अपने सभी उपलब्ध साधनों से भयंकर शीत के आक्रमण का सामना कर रहे थे। मंच पर निराला जी भी एक कम्बल ओढ़े बैठे थे। अन्त में वे बोलने के लिए खड़े हुए। कुछ देर तक वे शान्त भाव से बोलते रहे फिर जैसा कि उन दिनों उनका स्वभाव बन गया था, वह कुछ भावाभिभूत हो उठे और कन्धे तक ओेढ़े कम्बल को उन्होंने उतार फेंका और भीगे कंठ से उन्होंने कहा - ‘‘तुम्हारा निराला यह है।’’ लोगों ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से देखा कि एक लंगोटी के अतिरिक्त उनके शरीर पर वस्त्र नाम की कोई चीज नहीं थी। बाद में पता चला कि भक्तों ने उन्हें आते समय वह कम्बल जबरदस्ती ओढ़ा दिया था। वस्तुतः वह अपने कमरे में नंगे बदन केवल लंगोटी पहने ही पाए गए थे। बात यह थी कि उस दिन प्रातः काल उन्होंने अपने सारे कपड़े गंगा के किनारे शीत से ठिठुरते भिखारियों को बाँट दिए थे।

आज उस महान् साहित्यकार की व्यथा-भरी कहानी का पटाक्षेप हो चुका है। अब उसकी अमूल्य साहित्य निधि ही शेष है। भविष्य को उसी का समुचित मूल्यांकन करना है। मैं इन शब्दों में उस महाप्राण के सभी रूपों को नमन कर निम्नलिखित काव्य पंक्तियों में श्रद्धांजलि प्रस्तुत करता हुआ अपना यह प्रसंग समाप्त करता हूँ।
‘‘भारती के अजिर में हम कर रहे वन्दन तुम्हारा!
तुमने जीवन को उपेक्षित कर सदा हमको दुलारा
हम रहे निष्ठुर सदा ही तुम रहे मानव निराला
सूर्य तुम तज देह नश्वर कर रहे भू पर उजाला
तेरी ज्योति से छलकती रसिक उर की काव्य हाल
मधुप-मानस मत्त करता उड़ा रहा परिमल तुम्हारा!!
भारती उपवन के सौरभ, कान्त सन्ध्या-रूपसि के
कर दिए उन्मुक्त कुन्तल तुमने वाणी सुन्दरी के
तुम रजत-निर्झर बहाते तुंग हिमगिरि से निराला
छेड़ते हो तुम गगन में आज ‘बादल-राग’ माला
गूँजता है प्रति निलय में गीति का सरगम तुम्हारा!!’’


राम नरेश त्रिपाठी
हिन्दी जगत अभी निराला तथा नलिन जी के बिछोह की गहन अनुभूतियों से मुक्त भी न हो पाया था कि 17 जनवरी सन् 1962 को पं. रामनरेश जी त्रिपाठी ने त्रिवेणी-तट पर नश्वर शरीर का साथ छोड़ दिया। उनके निधन से हिन्दी साहित्य की एक उज्ज्वल प्रतिभा अकस्मात लुप्त हो गई। त्रिपाठी जी का जन्म जौनपुर ज़िले के कोइयापुर ग्राम में सं. 1946 में एक साधारण किसान के घर में हुआ था। आपके जीवन के कार्य क्षेत्र का प्रारम्भ प्राइमरी स्कूल के अध्यापक रूप में हुआ। एक मारवाड़ी परिवार के आग्रह से आप कुछ समय तक मारवाड़ में रहे। आपने मारवाड़ में एक पुस्तकालय की स्थापना की जिसमें हिन्दी, संस्कृत तथा अंग्रेज़ी की पुस्तकों का पर्याप्त मात्रा में संग्रह किया।

इसके पश्चात त्रिपाठी जी ने सारे देश का भ्रमण किया। उन्होंने एक और नन्दन वन काश्मीर की सौन्दर्य श्री के अवलोकन करने से लेकर दक्षिण में कन्या कुमारी के सागर की उत्ताल तरंगों में लहराते आँचल की छटा का भ्रमणानन्द लिया तो उधर असम प्रदेश से लेकर सौराष्ट्र तक की यात्रा का सुख लूटा। देश दर्शन की यह छटा त्रिपाठी जी के हृदय में बस गई जो राष्ट्र भक्ति की भावना से सहज ही विकसित हो उनके खंड काव्यों - ‘पथिक’, ‘मिलन’, और ‘स्वप्न’, में प्रशस्त हो उठी। त्रिपाठी जी के ये काव्य प्रकृति का सुरम्य चित्रण, अहिंसा, सत्याग्रह, देशभक्ति और विश्व प्रेम के पवित्र उदात्त भावों से ओतप्रोत हैं। उनके ये तीनों खंड काव्य अहिन्दी क्षेत्रों के हज़ारों हिन्दी प्रेमियों ने पढ़े।
इन्हीें दिनों स्वतन्त्रता-संग्राम की गूँज सारे भारतवर्ष में छाई हुई थी। त्रिपाठी जी स्वतन्त्रता संग्राम में स्वयं भी कूद पड़े और अपनी रचनाओं द्वारा अन्य देश सेवियों को भी राष्ट्र-सेवा के लिए प्रेरित करने में सफल हुए। त्रिपाठी जी को गांधी जी तथा मालवीय जी दोनों ही का पूर्ण स्नेह प्राप्त था। ‘मालवीय जी के साथ 30 दिन पुस्तक’ में आपने मालवीय जी की कीर्ति का प्रशस्त गान किया है। राष्ट्रीय कार्यों के अतिरिक्त साहित्यिक कार्यों में भी त्रिपाठी जी ने सक्रिय सहयोग दिया है। हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग के कार्यकर्ता के नाते त्रिपाठी जी ने राष्ट्र भाषा हिन्दी के उत्थान में अविस्मरणीय योगदान दिया। वे दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार के लिए भी गए।

त्रिपाठी जी ने अनेकों विषयों पर लेखनी चलाकर हिन्दी साहित्य की वृद्धि की। उन्होंने मौलिक, अनूदित और सम्पादित सभी प्रकार की रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। गद्य साहित्य का भंडार भी उन्होंने भरा और पद्य साहित्य के क्षेत्र में तो उन्हें सुयश मिला ही। काव्य-संकलन के रूप में त्रिपाठी जी ने हिन्दी साहित्य को महत्त्वपूर्ण देन दी। उनके ये संग्रह ‘कविता-कौमुदी’ छह भागों में हिन्दी की प्राचीन कविता, आधुनिक कविता, उर्दू कविता, बंगला कविता, संस्कृत कविता तथा ग्राम-गीत में विभक्त है। ‘कविता-कौमुदी’ का पहला संग्रह जब प्रकाशित हुआ तो वह देश के कई विश्व-विद्यालयों में BA, MA की उच्च कक्षाओं में पाठ्य पुस्तक के रूप में स्वीकृत किया गया था। इस प्रकार हिन्दी के श्री वैभव की वृद्धि करने में त्रिपाठी जी के ये संग्रह महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुए। त्रिपाठी जी सुहृदय, कोमल करुण स्वभाव के अति श्रेष्ठ मानवतावादी कलाकार थे। उन्होंने भगवान के दर्शन नर नारायण और दरिद्र नारायण के रूप में किए थे। मथुरा-वृन्दावन के वैभवशाली सुवर्ण रत्न-राशि मंडित मन्दिरों में विराजमान भगवान की झाँकी उन्हें पसन्द नहीं थी। सन् 1921 के असहयोग आन्दोलन के बन्दी जीवन में त्रिपाठी जी ने जो गीत पंक्तियां लिखीं, वे पंक्तियां देश के लाखों हिन्दी प्रेमियों का कंठ घोष बनीं। आज भी वे गेय पंक्तियां सुन्दर तथा प्रेरणा स्वरूप हैं और त्रिपाठी जी की पावन पुनीत स्मृति दिलाने में सक्षम हैं।

मैं ढूँढता तुझे था जब कुंज और बने में,
तू खोजता मुझे था तब दीन के वतन में,
तू आह बन किसी की मुझको पुकारता था,
मैं था तुझे बुलाता संगीत में भजन में।

तू ही विहँस रहा था मंसूर के रुदन में।
आख़िर चमक पड़ा तू गांधी की हड्डियों में।
बाल साहित्य के प्रणयन में त्रिपाठी जी का प्रमुख स्थान है। उन्होंने बालोपयोगी लगभग 50 पुस्तक लिखीं। इन पुस्तकों के माध्यम से त्रिपाठी जी ने रामायण, महाभारत, पंचतन्त्र और हितोपदेश की सारगर्भित कहानियों तथा उपदेशों को सरल भाषा में बाल-मानस में हृदयंगम कराने का सफल प्रयास किया। उन्होंने ‘बानर’ नाम का एक बाल मासिक पत्र भी निकाला था।

गद्यकार के रूप में त्रिपाठी जी ने उपन्यास, कहानियाँ, नाटक और जीवन-चरित्र लिखे, जिनमें उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा का पूर्ण परिचय मिलता है। उनके उपन्यासों, कहानियों और नाटकों का विषय समाज की कुरीतियों, विषमताओं और असंगतियों पर कुठाराघात, देश प्रेम, समाज को सत्य और नीति की ओर उन्मुख करने पर बल तथा सर्वमंगल की भावना है।

त्रिपाठी जी ने अनेक शोध ग्रन्थ लिखे हैं। रामायण पर उनके दो शोध ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। एक राम चरित मानस की सुसम्पादित टीका तथा दूसरी ‘मानस मधु’ है। साथ ही ‘तुलसी दास और उनकी कविता’ नामक ग्रन्थ भी उन्होंने लिखा। इस ग्रन्थ में त्रिपाठी जी ने गोस्वामी जी की जीवनी तथा उनके काव्य के सम्बन्ध में अनेक मौलिक खोजें भी प्रस्तुत की है। त्रिपाठी जी रामचरितमानस के प्रकांड मर्मज्ञ थे। उनकी रामायण सम्बन्धी विद्वता से प्रभावित होकर पं. जवाहर लाल नेहरू ने भी उनसे रामायण पढ़ी थी।

लेखक और कवि के अतिरिक्त त्रिपाठी जी प्रकाशक, मुद्रक, संगठनकर्ता, कुशल माली, किसान और गृहस्थी थे। उन्होंने अपने 72 वर्ष के जीवन में माँ सरस्वती के अतिरिक्त कभी भी किसी के आगे हाथ नहीं पसारा। उनकी अनेक रचनाएँ आज भी जन मानस में प्रचलित हैं जो प्रेरणा दायी हैं। ‘हे प्रभो आनन्द दाता ज्ञान हमको दीजिए’ वाली प्रार्थना त्रिपाठी जी की ही है। इस प्रार्थना का पाठ आज भी प्राप्त बेला में ग्राम-ग्राम में गूंजता है।
‘हिन्दुस्तानी अकादमी’ हिन्दी साहित्य सम्मेलन पत्रिका तथा ‘नवनीत’ जैसे सुविख्यात मासिक पत्रों के आरम्भिक काल में आशीर्वाद और अतुल बल प्रदान करने में त्रिपाठी जी सदैव स्मरणीय रहेंगे।

निराला और पं. नलिन विलोचन शर्मा के बाद भारती का यह कर्मठ पुजारी भी चल बसा। पर वह तो आत्मा की अनश्वरता का अनुभव अपनी निम्नलिखित कविता में कर चुका था -
निर्भय स्वागत करो मृत्यु का
मृत्यु एक विश्राम-स्थल
जीव जहाँ से फिर चलता है
धारण कर नव जीवन सम्बल ड्ड

शान्ति

प्रेमचन्द ‘महेश’
पात्र
गंगुली:बौद्धमठ के श्रमण
पंचुली:’’
तोरू:’’
कोमू:’’
सोमू:’’
तथागत:सत्य और अहिंसा के अवतार।
अन्य श्रमण आदि।
स्थान: बौद्ध मठ का उद्यान।
समय: प्रातःकाल का प्रथम पहर।
(दृश्य - सघन सुरम्य कानन के बाईं ओर बौद्ध-संघाराम बना हुआ है। और इसके सामने प्रांगण में विटप, लता और वल्लरियों से शोभायमान उद्यान है। उस उद्यान में कुछ श्रमण बैठे हुए हैं।)
गंगुली:भगवान तथागत ने सद् धर्म के श्रमणों को अपनी रुचि के अनुसार नाम चुनने का आदेश दिया है।
पंचुली:मित्र! नाम बदलने की प्रथा से क्या तात्पर्य है मैं समझ नहीं सका?
तोरू:मित्र! रहस्य का अन्त तो मैं भी न पा सका।
कोमू:जिसने तथागत की वाणी और कर्मों का रहस्य पा लिया, उसे अनन्त का छोर स्वयं ही मिल गया। अपनी बुद्धि तो इस रहस्य में प्रवेश कर ही नहीं पाती।
सोमू:अरे! यह भी कोई पूछने और रहस्य की बात है। दीक्षा प्राप्त श्रमणों का रूप सहज ही स्पष्ट हो जाए, इसीलिए तथागत ने यह पद्धति निकाली है।
गंगुली:(गम्भीर मुद्रा में) सद् धर्म के ग्रहण और सुनाम के चयन से शीघ्र ही निर्वाण मिल जाए...इसका केवल यही उद्देश्य है।
पंचुली:मित्रो! तुम सबके कथनों से कुछ समझा तो मैं भी। मेरी दृष्टि में इस प्रथा का कारण है - सद् धर्म का उत्थान और नवीन नाम के अनुरूप उससे प्राप्त होनेवाली प्रेरणा।
तोरू:तो मैं अपना नाम ‘शील’ घोषित करता हूँ।
(सब हँसते हैं।)
कोमू:और मैं ‘शान्ति’।
सोनू:अरे, हट कल के दस्यु और निखट्टू, कौमू! तू ‘शान्ति’ के अनुरूप शान्ति ग्रहण नहीं कर सकता। तू दूसरा नाम चयन कर, ‘शान्ति’ मेरे लिए छोड़ दे।
कोमू:क्यों छोड़ दूँ? सद् धर्म में सब समान हैं। मेरे पूर्व कर्म चाहे कैसे ही रहे हों पर अब मैं अपना नवीन निर्माण करूँगा। ‘शान्ति’ प्राप्ति का मेरा अधिकार तुम्हारे ही समान है। तुम ही अन्य नाम का चयन करो।
सोमू:मैं तो ‘शान्ति’ नाम ही चयन करूँगा। ‘शान्ति’ शब्द सदैव भगवान की वाणी और हृदय में निवास करता है। मैं भगवान के उपदेशों से प्राप्त शान्ति के अनुकूल स्वयं शान्ति ग्रहण करूँगा।
पंचुली:तुम दोनों ‘शान्ति’ के बिलकुल अयोग्य हो। एक ओर दस्यु - कोमू और दूसरी ओर व्यापार और वाणिज्य में आठों याम लीन - सोमू। तुम दोनों पर पूर्व कर्मों की छाप रहेगी और मिटाए से न मिट सकेगी। तुम ‘शान्ति’ का नाम व्यर्थ ही सिद्ध करोगे। तुम दोनों यह नाम मुझे देकर अन्य किसी नए नाम का चयन कर लो। ‘शान्ति’ का निवास केवल शम से पूर्ण विचारों में ही परिपक्वता से हो सकता है, घृणा या भय से पूर्ण विचारों में नहीं।
गंगुली:वाह! रक्त-पिपासु धर्मान्ध ब्राह्मण - पंचुली...वाह!
तुम...तुम स्वयं को ‘शान्ति’ नाम से घोषित करना चाहते हो। जरा तुम अपने कर्मों को तो देखो! यजमान की दक्षिणा में सन्तुष्ट नहीं। सायं प्रातः धन की लालसा में रत रहते हो। तुममें यह अशान्ति और चाहते हो बनना ‘शान्ति’,...मुझे देखो तथागत की वाणी पर मैंने तलवार को त्याग क्षमा को अस्त्र बनाया। सांसारिक वातावरण से छूट लगातार बीस-बीस घंटे निर्वाण प्राप्ति में समाप्त किए। ‘शान्ति’ पहले मुझे मिलनी चाहिए या तुम दोनों को? तुम ‘सत्य’ ‘जय’ ‘अजय’ और ‘विजय’ नामों में से अपनी रुचि के अनुकूल अपने नामों का चयन कर सकते हो।
कोमू:जिसकी तलवार में तनिक भी क्षत्रियत्व शेष न हो,
जो आततायियों से सज्जनों के त्राण करने में भय खाता हो,...वह...वह शान्ति प्राप्त क्या करेगा? जिसे अपने कार्य में शान्ति नहीं, उसे सद् धर्म जैसे पावन और पुनीत धर्म में भी शान्ति मिलनी असम्भव और बिलकुल असम्भव है। ‘शान्ति’ नाम का चयन मैंने किया है और मैं ही वह प्राणी हूँ, जो क्षुद्र-वृत्ति से प्रगति की ओर अग्रसर हुआ है। अत: ‘शान्ति’ का अधिकारी मैं ‘शान्ति’ हँ।
तोरू:मित्रो! व्यर्थ क्यों झगड़ते हो? यदि आपस में तुच्छ बातों के लिए इस प्रकार से लड़ोगे तो सद् धर्म का प्रचार और राष्ट्र का उद्धार क्या करोगे? ‘शान्ति’ का अधिकार मेरी दृष्टि में कोमू का है, उसे लेने दो।
गंगुली:अरे चल ‘शील’। पक्षपात और व्यंग्य करता है, और फिर स्वयं को ‘शील’ कहलवाना चाहता है।
तोरू:मैं सत्य का पक्ष लेकर अन्याय पर व्यंग्य करता हूँ। मैं तुम सबकी भाँति नाम का भूखा नहीं। यदि तुम चाहो तो मेरा नाम ले सकते हो।
पंचुली:अरे, चल ‘पीली के पाँचे’, ‘शील’ जैसा शील अपने रूप में ला, फिर पंच बनना।
सोमू:भाई, यह ‘शील’ नहीं,...हम सबों के लिए लोहे की कील है! कील!!
(सब हँसते हैं)
तोरू:पंचुली! तुम ब्राह्मण के रूप में शूद्र व्यक्ति जरा-सी वार्ता के लिए क्रोध करते हो। और सोमू तुम हँसोड़ बनकर सद् धर्म का शमन करना चाहते हो। हास्य जीवन है पर वह परिधि के अन्दर ही होना चाहिए। परिधि के बाहर हास्य कटु, तिक्त, विष और मृत्यु का रूप धारण कर लेता है।
सोमू:भगवान तथागत के उपदेश और वाणी के अनुसार मैं सद् धर्म की ओर प्रवृत्त हुआ हूँ। मुझमें त्याग की क्षमता है। मैं शान्ति ‘शान्ति’ के इच्छुकों को त्यागता हूँ।...पर तुममें कोई भी ‘शान्ति’ के योग्य नहीं। तुम सब में अहंकार, स्वाभिमान और स्वार्थ-भावना का बाहुल्य है। शान्ति के लिए त्याग, तप और सहिष्णुता की आवश्यकता है, वह तुम सब में है ही नहीं। यदि मुझ में शान्ति का प्रकाश स्वयं विद्यमान होगा तो मैं स्वयं ‘शान्ति’ बन सद् धर्म के प्रचार से विश्व को शान्ति दूँगा।
तोरू:धन्य! धन्य!! साधु! साधु!! मुझसे भी त्यागी और महात्यागी।
गंगुली:ढोंगी है! नहीं तो क्या शान्ति को त्याग सकता था?
पंचुली:शान्ति के तेज ने भय उत्पन्न कर दिया। उससे डर कर शान्ति का त्याग किया है।
सोमू: शुद्र को शूद्रता ही अच्छी लगती है। वह शूद्रता से बाहर निकलने में अपना अपमान समझता है। कोमू की शूद्रता इसी कथन का साक्षात प्रमाण है। चलो पथ का कंटक टला अब ‘शान्ति’ मैं हूँ।
पंचुली:अरे मित्र! भूल गए।....ब्राह्मण का तप और तेज व्यर्थ थोड़े ही जाता है? उसके द्वारा किए हुए एक-एक कर्म का फल मिलता है।...और हवन में दी हुई तिनके-तिनके की आहुति का प्रसाद मिलता है। यह मेरा प्रसाद और मेरा फल है। अत: इसका भोगी मैं हूँ।
(भगवान तथागत का प्रवेश। उनके आते ही सब श्रमण खड़े होकर नतमस्तक हो जाते हैं। वे उन्हें आशीर्वाद देते हैं और पास पड़ी आसन्धी पर बैठ जाते हैं।)
तथागत:कहो, श्रमण प्रवर गंगुली, किस विषय पर वाद-विवाद कर रहे हो?
गंगुली:भगवन््! हम सभी श्रमण आपकी दीक्षा को भली प्रकार ग्रहण करने और सद् धर्म का प्रचार करने के लिए प्रेरणा एवं सम्मान देने वाले नवीन नामों के चयन पर विवाद कर रहे हैं।
पंचुली:भगवन्! तोरू ने ‘शील’ नाम का चयन किया है और, और मैं ‘शान्ति’ का नाम चयन करने जा रहा हूँ।
पर...गंगुली...और सोमू मेरे मार्ग में...
कोमू:भगवन्! ‘शान्ति’ नाम का पूर्व चयन मैंने किया था पर अनर्गल वाद-विवाद को देख मैंने उसका त्याग कर दिया। मुझमें यदि शान्ति की शक्ति और प्रवृत्ति होगी तो मैं...‘शान्ति’ को स्वयं प्राप्त कर लूँगा।
तथागत:भिक्षुओ! तुम सब क्यों व्यर्थ के कार्यों की ओर अग्रसर हो रहे हो? नाम से निर्वाण की प्राप्ति नहीं हो सकती। तुम सब अव्याकृत बातों में पड़ रहे हो। तुम्हें निर्वाण चाहिए तो तुम सदाचार और सत्य का प्रचार करो। अहिंसा की कृपाण और क्षमा का शस्त्र ले जगती का उद्धार करो। तब ही निर्वाण तुम्हारा स्वागत करेगा। नाम का चयन तो केवल प्रेरणा प्राप्ति के लिए है। नामकरण से निर्वाण उस समय तक मिलना असम्भव है, जब तक उसके लिए तुम सुविचार, त्याग और तप का आलम्बन न लोगे। कोमू श्रमण का त्याग सराहनीय है। उन्हें निर्वाण-प्राप्ति सम्भव है, यदि वे उसके लिए सतत प्रयत्न करें।
(श्रवण का प्रवेश)
श्रमण:(तथागत से) भगवन्!...संघ के वृद्ध श्रमण आचार्य अमर का दीर्घकालीन रोगग्रस्त रहने के बाद आज स्वर्गवास
हो...
(सब शान्त हो जाते हैं।)
तथागत:उन्हें शान्ति और निर्वाण मिले। भद्र! उनकी निर्जीव देह की रथी बनाकर अग्नि में जलाने दो और उनका भस्म पर स्पूप निर्मित कर दो। (भिक्षुओं से) भिक्षुओ, देखो, जब इस नश्वर और परिवर्तन से भरे संसार में भिक्षु अमर-ही-अमर नहीं रहे तो तुम केवल नवीन नामकरण-मात्र से ही निर्वाण चाहते हो, तनिक सोचो तो।
श्रमण:तो भगवन्, मुझे जाकर श्रमण-प्रवर अमर की अन्त्येष्टि सम्बन्धी कार्य करने की आज्ञा दें।
तथागत:अच्छा भद्र! जाओ...और हम सब भी अभी आते हैं।
(श्रमण जाता है।)
पंचुली:भगवन्! मुझे उस क्षण न जाने क्या हो गया था। मैं...सद् धर्म के उद्देश्यों को भूल गया था...और भूल गया था, आपके प्रवचनों को। मैं...अब सचेत हो गया हूँ...आचार्य अमर की महान् समाधि से! मैं अब ‘शान्ति’ आदि कोई भी नाम ग्रहण नहीं करूँगा। मैं श्रमण श्रेष्ठ कोमू के त्याग को अब समझा।
गंगुली:तथागत! मुझे सद्बुद्धि दें। मैं ‘शान्ति’ के नवीन नामकरण की प्राप्ति के लिए अनर्गल विवाद कर रहा था। मैं भी अब समझ पाया हूँ कोमू के उस त्याग और शान्तिमय हृदय को। कोमू ही मेरी दृष्टि में ‘शान्ति’ का सही अधिकारी है।
सोमू:भगवन्! मैं अपने पूर्व वाणिज्य कर्म को भूल न सका, उस कर्म की धन से असन्तुष्टि और मोह की प्रवृत्ति ‘शान्ति’ प्राप्ति के लिए उभर आई। कोमू से सबसे पूर्व मैंने ही यह वाद-विवाद किया। यदि मैं न करता तो...
तथागत:भिक्षुओ! तुम सबके विचार सुने। भिक्षु वर कोमू को मैं तुम सबके कथानानुसार त्याग पर अपनी ओर से बधाई देता हूँ। जिस मनुष्य के पास त्याग है, उसमें ‘शान्ति’, सत्य और अहिंसा जैसे गुण स्वयं ही विद्यमान हैं। कोमू का त्याग धन्य है। मैं कोमू को ‘शान्ति’ के त्याग करने पर अपनी ओर से ‘शान्ति’ के नवीन नामकरण की भेंट देता हूँ।
कोमू:भगवन्! मैं आपकी आज्ञा और भेंट को टाल नहीं सकता पर मैं इसके लिए अभी तो पूर्णतः अयोग्य हूँ। आपके गुणों के विशाल सागर के सामने मैं एक क्षुद्र लहर हूँ। और शान्ति...
तथागत:भिक्षु वर! कभी-कभी क्षुद्र लहर भी सागर में एक छोर से दूसरे छोर तक हलचल मचा देती है। तुम क्षुद्र नहीं, विशाल हो। तुम अब कोमू नहीं ‘शान्ति’ हो! शान्ति!!
कोमू:भगवन्! आपकी यह कृपा मुझे स्मरणीय है। (शीश झुकाता है।)
(सब श्रमण तथागत के समक्ष नतमस्तक हो जाते हैं और -
बुद्धं शरणं गच्छामि
धम्मं शरणं गच्छामि
संघं शरणं गच्छामि
का गान करने लगते हैं।)
(पटाक्षेप)

ये विचित्र मानव

प्रेमचन्द ‘महेश’

किसी प्रदेश का रहन-सहन संयोग की बात नहीं, वरन भौगोलिक परिस्थितियों का परिणाम है। - अज्ञात

एस्कीमो
उत्तरी अमेरिका में हडसन की खाड़ी के उत्तरी किनारे पर 65°-75° उत्तरी अक्षांश व बैफिनलैंड के चारों ओर बसनेवाले निवासियों को एस्कीमो कहते हैं। एस्कीमों संसार की एक अति प्राचीन जाति है। एस्कीमो, एशकीमेक का बिगड़ा रूप है, जिसका अर्थ है कच्चा माँस खाने वाले। उत्तरी अमेरिका के जिन प्रदेशों में ये लोग रहते हैं, उन भागों में शीत ऋतु बहुत लम्बी और ग्रीष्म ऋतु बहुत छोटी होती है। इसी कारण से इन प्रदेशों में शीत-ऋतु का ही साम्राज्य छाया रहता है। और यहाँ की भूमि प्रायः हिमाच्छादित ही रहती है इन प्रदेशों में वर्ष में केवल दो या तीन माह को छोड़ कर शेष मासों में तापक्रम सदा हिमांग (Freezing point) से नीचे ही रहता है।

एस्कीमो लोगों की औसतन ऊँचाई 5श्.2श्श् से लेकर 5श्.4श्श् तक होती है। इनका मुँह चौड़ा बाल भूरे तथा भद्दे होते हैं। इनका रंग पक्का व गेहूँआ तथा आँखें मंगोलियन फोल्ड लिये हुए गहरे भूरे रंग की होती है। इन लोगों की यह सूरत शक्ल कुछ-कुछ red indians व उत्तर पूर्वी एशिया के मंगोल जाति के लोगों से मिलती-जुलती होती है।
एस्कीमो लोगों के रीति-रिवाजों में एकता तथा स्वभाव में निश्छलता एवं शान्त प्रियता देखने योग्य होती है। ये सीधे-साधे एवं सरल प्रकृति के होते हैं। इस जाति में आपसी द्वन्द्व एवं संघर्ष नाममात्र को नहीं दिखाई देता। शिकार इस एस्कीमो जाति का प्रिय व्यसन तथा जीवन यापन करने का एक मात्र आधार है।
एस्कीमो लोग एक प्रकार के बंजारे होते हैं। इनके ग्रीष्म कालीन निवास स्थान समुद्र तटीय क्षेत्रों में बने होते हैं। इनकी ऊँचाई लगभग 5 से 6 फुट के बीच में होती है। ये मकान पत्थर और खालों द्वारा निर्मित तथा लकड़ी के सख्त तख्तों एवं व्हेल की हड्डी से ढँके होते हैं। इन लोगों के शीत कालीन निवास स्थान इग्लू ;प्हसववद्ध कहलाते हैं, जो कि पत्थर के स्थान पर बर्फ़ द्वारा निर्मित होते हैं। ऐसे मकान गुम्बज जैसे प्रतीत होते हैं। ये इग्लू लगभग तीन फुट ऊँचे और इनके अन्दर का व्यास चार या पाँच फुट का होता है। एस्कीमो लोगों की वेशभूषा अधिकतर ग्रीष्म ऋतु के शिकार पर निर्भर करती है। केरीबो और सफेद भालू की खाल जो कि बहुत गर्म, हलकी एवं मजबूत होती है ग्रीष्म कालीन शिकार में ही इन्हें प्राप्त हो सकती है।

एस्कीमो की जनसंख्या 40,000 के लगभग आँकी गई है। ये लोग प्रायः ग्रामीण बस्तियों में रहते हैं जो दस से तीस मील की दूरी पर पाई जाती हैं, बस्तियों के लोग आपस में सम्बन्धी होते हैं। परन्तु ये लोग शादी अधिकतर दूसरे समूहों के लोगों से करते हैं। इन प्रदेशों के रीति-रिवाज़ अजीब हैं। एक व्यक्ति को किसी लड़की से शादी करने पर उसे उस बस्ती के समीप शिकार खेलने का अधिकार मिल जाता है। इस प्रकार एक व्यक्ति कई-कई बस्तियों में शादी करके उन स्थानों पर शिकार खेलने का अधिकार प्राप्त कर लेता है।

यह लोग अपने शिकार खेलने के औजार बनाने में बड़े सिद्धहस्त हैं। इनके शिकार खेलने के मुख्य औज़ारों में हारफून (Harphoon) भाले तथा तीर कमान आदि हैं। श्रम-विभाजन का वास्तविक रूप एस्कीमो के जीवन में देखने योग्य है। एस्कीमो केवल घर के बाहरी काम करते हैं शेष घर के अन्य कार्य स्त्रियों को ही करने होते हैं। इनकी स्त्रियाँ ही मछली, बेरों, जड़ों तथा सब्जियों को सुखाने का काम करती हैं। उन्हीं पर बच्चों की अद्योपान्त देखभाल का भार रहता है।
ऐतिहासिक खोजों के अनुसार अनुमान किया गया है कि इन लोगों की संस्कृति 2000 वर्ष से अधिक पुरानी है परन्तु आज भी उसका स्वरूप ज्यों का त्यों देखने को मिलता है। हडसन की खाड़ी के पश्चिमी प्रदेशों में जहाँ ये लोग गोरांग मानवों के सम्पर्क में आए हैं, उन स्थानों पर यह लोग यूरोपियन ढंग के पक्के भवन इत्यादि बनाकर उन्हीं के फैशन में रंग गए हैं।

खिरगीज
(Khirghis)
स्टेप्स के घास के मैदानों में जो लोग तियान शान (Tien shan) पर्वत श्रेणी के दक्षिण तथा पामीर (Pamir) पठार पर पाए जाते हैं खिरगीज़ कहलाते हैं। खिरगीज़ की जनसंख्या 10 लाख है, और ये लोग मंगोल जाति के लोगों से मिलते-जुलते हैं। इनका रंग पीला, बाल भद्दे व काले, कद ठिगना होता है। इनके प्रत्येक समूह का एक प्रधान होता है, जो प्रायः वंश-परम्परा से चला आता है। ये लोग ढीली व लम्बी बाँहों तथा तंग कालरवाला एक चोगा पहनते हैं, जिसे ये अपनी भाषा में ‘काफतंग’ (Caftung) कहते हैं। शत ऋतु में ये भीषण बर्फ़ के तूफान (snow storms or Buran) से बचने के लिए तीन या चार ‘काफतंग’ पहनकर उसके ऊपर एक जाकट पहन लेते हैं। शिकार खेलते समय यह भारी जूते व ब्रीजेस (Breaches) भी पहनते हैं

खिरगीज जाति के लोग ग्रीष्म काल में घुमक्कड़ का जीवन व्यतीत करने वाले होते हैं। अतः यह अपने साथ ऐसा डेरा या तम्बू जिसको यार्ट (Yart) कहते हैं, रखते हैं। यह डेरा आध घंटे में उखाड़ा या लगाया जा सकता है। इस डेरे के अन्दर सभी प्रकार की आवश्यक वस्तुएँ व घरेलू सामान रखे होते हैं। इसे ये ऊँटों पर लादकर एक स्थान से दूसरे स्थान को बड़ी सुगमता से ले जाते हैं। इन लोगों का मुख्य शिकार हिरन है। हिरन की खाल और कस्तूरी को ये नखलिस्तान के लोगों के पास ले जाकर अच्छे दामों में बेचते हैं।

खिरगीज लोग स्थिर एवं स्थायी जीवन में विश्वास नहीं करते। घुमक्कड़ जीवन को ये आनन्ददायी एवं आत्मसम्मान पूर्ण जीवन समझते हैं। इस घुमक्कड़ जीवन ने ही इन्हें वीर उत्साही तथा स्वतन्त्रता प्रेमी बनाया है। खेती अथवा व्यापार इन्हें अस्थायी निवास के कारण बहुत कम प्रिय हैं। कष्ट प्रकृति के भीषण प्रकोपों ने इन्हें भाग्यवादी बना दिया है। इनमें इन कष्टों और मुसीबतों के कारण एक-दूसरे के प्रति घनिष्ठ एवं निश्छल प्रेम तथा भाई चारे का नाता संसार के सभ्य कहे जाने वाले राष्ट्रों के लिए अनुकरण करने योग्य है।

खिरगीज जाति के लोग अपने पूर्वजों के शब्दों का अक्षरशः पालन करना अपना परम कर्तव्य समझते हैं। अपनी बात और प्रतिष्ठा की साख की ईमानदारी के साथ रक्षा करनेवाले होते हैं। इनमें धनी पुरुष कई स्त्रियाँ, कई बच्चों का पिता तथा कई चाकरों का स्वामी कहलाने का अधिकारी होता है। खिरगीज जाति के लोग चमड़े की बोतल, कालीन, दरियाँ, बर्तन तथा याक ;ल्ंाद्ध के ऊन से कपड़े बनाने के घरेलू उद्यम भी करते हैं। जिन क्षेत्रों में खिरगीज जाति के लोग विदेशी सभ्य समाज के सम्पर्क में आए हैं वहाँ वे निरन्तर प्रगति की ओर अग्रसर हो रहे हैं किन्तु समय के आधार तथा परिवर्तनशीलता के इस युग में इनकी उन्नति नगण्य है।

भील
(Bhils)
भारतवर्ष में भीलों की संख्या अनुमानतः 10 लाख है। ये लोग राजस्थान के दक्षिण में दुंगरपुर तथा बाँसवाड़ा रियासतों, पश्चिमी प्रतापगढ़, सम्पूर्ण मेवाड़ तथा पर्वतीय सिरोही के क्षेत्रों में मिलते हैं। भील जाति एक ऐसी जाति है जो कि प्राचीन काल से चली आ रही है। इसकी जातिगत विशेषताओं में समय की गति के साथ-साथ जो परिवर्तन हुए हैं वे नगण्य हैं। भील जाति के लोग बड़े संशयशील प्रकृति के असभ्य और डरपोक होते हैं। संशय एवं भय के निवारण हेतु ये मूक पशुओं की बलि देते हैं किन्तु पिछली शताब्दी में ये पशुओं के स्थान पर नर बलि भी देते थे। इनकी माता (goddess) के मन्दिरों का पुजारी भूपा (Bhopa) कहलाता है। जब कभी यह भूषा अपने अंगों से थर-थर काँपने लगते हैं, तब इन लोगों में ऐसा विश्वास उत्पन्न होता है कि हमारे भूपा महाराज के शरीर में देवी का आह्वान हुआ है और वह नव वर्ष के लिए नव सन्देश देने आई है।

भील लोगों का भूत-प्रेत में अटूट विश्वास होता है। ‘डाकन’ तथा शिकोत्री’ नाम से ये भूतों को सम्बोधित करते हैं। भील लोगों की मन्त्रों के प्रति अगाध श्रद्धा है। ग्रहण के सम्बन्ध में इनका विश्वास है कि सूर्य या चन्द्र को कोई दैत्य सताता है। उस समय ये हे काला राला मेल रें मेल बाप जी ने’ (हे अंधकार बाप जी को छोड़ दे) का तीव्र तम स्वरों से उच्चारण करते हैं। भील लोग हृष्ट-पुष्ट एवं चुस्त होते हैं। इनके पैर मामूली लम्बे, शरीर हलका, कद मामूली तथा रंग कत्थई होता है। ये लोग स्वभाव से हंसमुख तथा विनोदी होते हैं। घोर शीत ऋतु में भी ये अपने तन को ढँकते नहीं वरन ताप के सम्मुख बैठकर शीत को भगाते हैं। माँस, मछली, दारू और महुए के फूलों का भील लोग अपने भोजन में बहुत प्रयोग करते हैं।

भीलों की सामाजिक प्रथाएं अजीब हैं। भीलों की गृहस्थियों में प्रायः बड़े भाई की ही शादी की जाती है। उनकी मृत्यु के पश्चात बड़े भाई की बहु की शादी छोटे भाई (देवर) से कर दी जाती है। इस प्रकार की शादी ‘देवर वत्ता’ (Devar vatta) कहलाती है। ऐसी शादियों में प्रायः यह देखा जाता है कि वर की उम्र 10-12 वर्ष होती है और दूसरी ओर वधू चार-पाँच बच्चों की माँ बन चुकी होती है। हमारे यहाँ की दहेज प्रथा की भाँति इन लोगों में भी दहेज प्रथा है, जिसे ये लोग दोपा (Dopa) कहते हैं। इस प्रथा के अन्तर्गत लड़की का पिता लड़के को शादी के समय गहने, धन, भेड़ तथा बकरी पूर्व निश्चित मात्रा में देता है। यह प्रथा हमारे यहाँ की दहेज प्रथा उन्मूलन की भाँति समाप्त होती जा रही है। भीलों में विधवा विवाह तथा अनिच्छुक शादियाँ प्रायः कम होती हैं।

भील जाति अन्य भारत वासियों की तरह होली व दिवाली बड़ी धूम-धाम से मनाती है। मदिरा के मद में मस्त होकर नाचरंग में लीन होना इन उत्सवों की एक साधारण बात है। विविध वाद्य यन्त्रों से निसृत स्वर लहरियों पर पद थिरकन, स्वर घोष तथा सारे वातावरण का उसमें मग्न हो जाना भीलों के नृत्यों की एक विशेषता है। दीप मालिका के त्यौहार पर यहाँ की अन्धकारमय रजनी का दीपों और मशालों की रोशनी से जगमगा उठना, झिलमिल दीपों की पंक्तियों का झिलमिलाना मन हरण दृश्य है। भील जाति अधिकतर मोटा वस्त्र पहनना पसन्द करती है। ऊँची धोती तथा सफेद साफा भील मनुष्यों की मुख्य पोशाक है। यहाँ की स्त्रियाँ चाँदी के गहने और पैरों में मधुर एवं मनोहर ध्वनि करनेवाली ‘पैंजनी’ (Pinjanis) पहनती हैं। विधवा स्त्रियाँ इनको नहीं पहनती।

भील लोग ऊँची भूमि जिसे ‘पाल्स’ (Pals) कहते हैं पर विशेष रूप में रहते हैं। इनकी अनेक गृहस्थियों के समूह का एक सरदार होता है जो ‘मुक्खी’ या ‘गमेठी’ कहलाता है। यह वंशीय होता है। इस समूह के अन्तर्गत उत्पन्न होनेवाले सभी झगड़ों को वह एक ‘पंचस’, ‘जिसमें अधिकतर बुद्धिमान मनुष्य होते हैं, की सहायता से सुलझाता है। भील लोग मूर्ति पूजक, बड़े धार्मिक विचार वाले, मंत्र और भजनों से विशेष अनुराग रखने वाले, बहुत सच्चे तथा अहिंसा प्रेमी होते हैं। मृतक शरीर का ये दाह-संस्कार करते हैं।

बुधवार, 8 जनवरी 2014

Indian Groom Collection

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