शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

कहानी म्युल्लर साहब की

ये हैं म्युल्लर साहब। ये अरेट्सरीड क्षेत्र हैं जो बायरन के बिलकुल दक्षिण में पड़ता है। म्युल्लर साहब एक उपकर्मी हैं तथा जो इनकी फ़ेक्टरिओं में बनता है वो आपने सुपरमार्केट में ज़रूर देखा होगा। म्युल्लर साहब दूध के बढ़िया बढ़िया उत्पाद बनाते हैं। असल में तो गाय ही दूध देती है, मगर म्युल्लर साहब इनकी सुंदर पैकिंग करके सुपरमार्केट में लाने का प्रबंध करते हैं ताकि आप इसे खरीद सकें।

म्युल्लर साहब के उत्पाद इतने अच्छे हैं कि बोहलन साहब ने इनका विज्ञापण बना डाला। क्योंकि म्युल्लर साहब एक उपकर्मी हैं तो उन्होंने सोचा क्यों न एक नई फ़ैक्टरी लगाई जाए, वो भी साख्सेन में जो पूर्वी जर्मनी में पड़ता है। असल में तो किसी को भी दूध की एक नई फ़ैक्टरी की ज़रूरत नहीं क्योंकि पहले से ही ऐसी बहुत सी फ़ैक्टरियां हैं जो दूध के उत्पादों का उत्पादन करती हैं। लेकिन म्युल्लर साहब ने फ़िर भी एक नई फ़ैक्टरी बना डाली।

अब क्योंकि साख्सेन में लोग बहुत ग़रीब और बेकार हैं, प्रदेषिय सरकार ने भी नई फ़ैक्टरी के लिए माली मदद दी। अब दूध की फ़ैक्टरिओं में बहुत ज़्यादा लोगों को तो काम दिया नहीं जा सकता। लेकिन म्युल्लर साहब ने अर्ज़ी भरी तथा डाक द्वारा भेज दी। कुछ दिनों बाद साक्सेन की सरकार तथा बरुस्सल से युरोपिय युनियन ने उन्हें 7 करोड़ यूरो का चेक भेज दिया। ये रकम सात शून्य वाला है, अर्थात बहुत ज़्यादा पैसा। आपकी पैसा बचाने की समर्था से कहीं ज़्यादा पैसा।

तो म्युल्लर साहब ने नई फ़ैक्टरी खोली तथा 158 लोगों को काम पर लगाया। वाह म्युल्लर साहब! नई फ़ैक्टरी में म्युल्लर साहब ने इतने उत्पाद बना डाले कि बेचने मुश्किल हो गए क्योंकि वहां पहले से ही कई दूध की फ़ैक्टरिआं तथा उत्पाद मौजूद थे। असल में म्युल्लर साहब को ये पहले से ही मालूम था। मालूम तो साक्सेन की सरकार तथा युरोपिय युनियन वालों को भी पहले से था। ये कोई राज़ नहीं। फ़िर भी उन्होंने उसे पैसा दिया। ये पैसा उनका नहीं आपका है।

ये विडंबना ही सही लेकिन ऐसा ही है। लेकिन म्युल्लर साहब ने किया क्या? नीदर साक्सेन जो कि जर्मनी के दूर उत्तरी ईलाके में है, में म्युल्लर साहब ने 85 बरस पुरानी एक फ़ैक्टरी खरीद रखी थी। अभी नई फ़ैक्टरी के चलते उन्हें इस पुरानी फ़ैक्टरी की ज़रूरत न थी। इस लिए इन्होंने ये फ़ैक्टरी बंद कर दी और 175 लोगों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा।

अगर आप स्कूल में अच्छे रहे हैं तो आपने अनुमान लगा लिया होगा कि म्युल्लर साहब को 17 कम लोगों को काम देने के सात करोड़ यूरो मिले। यानि उन्हें एक कर्मी को हटाने के चालीस लाख यूरो मिले। म्युल्लर साहब के मन में अंदर ही अंदर तो लड्डू फूटते हैं लेकिन बाहर से अत्यंत ही दुखी दिखाई दते हैं तथा अपनी प्रेशानियों की दास्तान सुनते फिरते हैं। लेकिन वे इत्मिनान से नहीं बैठते बल्कि और नई तरकीबें सोचते रहते हैं।

आपको वे प्लास्टिक के गिलास तो याद होंगे जिनमें पहले म्युल्लर साहब दूध बेचा करते थे। इनमें आधा लिटर दूध समाता था। लेकिन अभी कुछ समय से म्युल्लर साहब दूध इन गिलासों में नहीं बल्कि कांच की बितलों में बेच रहे हैं। ये अच्छी दिखती हैं, दोबारा भरी जा सकती हैं। वो बात अलग है कि इनमें सिर्फ़ 400ml दूध समाता है तथा कीमत उतनी ही है। यहां भी म्युल्लर साहब कुछ बचत कर रहे हैं। बचत करना तो एक अच्छी बात मानी जाती है।

अब अगर आप पूछें कि ऐसे घटिया इन्सान को पेड़ पर लटका क्यों नहीं दिया जाता तो मैं कहूंगा कि ऐसा करना भी आसान नहीं। लेकिन आप जब अगली बार सुपरमार्केट में जाएं तो म्युल्लर साहब की चीज़ों को पड़ी रहने दें तथा साथ में रखी हुई चीज़ें ख़रीदें। वे भी उतनी ही स्वादिष्ट हैं, सस्ती हैं और शायद एक कंपनी का उत्पाद हैं जिनके लिए 'सामाजिक उत्तरदायतिव' अभी भी कुछ मायने रखता हो।