रविवार, 6 नवंबर 2011

सटुट्टगार्ट में दीपावली कार्यक्रम 2010

6 नवंबर को सटुट्टगार्ट की वैदिक संस्था ने Turnhalle में एक सफल दीपावली कार्यक्रम किया जिसमें तरह तरह के गायन और नृत्य प्रस्तुत किये गये। लगभग तीन सौ से अधिक लोगों ने इसमें भाग लिया। कार्यक्रम में अधिकतर आंगतुक भारतीय थे और माहौल बिल्कुल घरेलू और अनौपचारिक था। वैदिक संस्था पिछले 5 सालो से यहां दिवाली तथा अन्य त्योहारों का आयोजन करती आ रही है! श्रीमती शशी पूनिया ने पूरी तरह हिन्दी में मंच संचालन करके लोगों को चौंका दिया। म्युनिक कोंसलावास से कोंसल श्री यश पाल मोतवानी ने भी अपने सन्देश में कहा कि उन्हें यह देखकर हैरानी हो रही है कि यह कार्यक्रम पूरी तरह हिन्दी में हो रहा है। उन्होंने भी हिन्दी में अलग अलग समुदायों में दीपावली के महत्व के बारे में बताया। फिर कार्यक्रम के शुरू होने पर वैदिक संस्था के बच्चों ने प्रार्थना गाई। स्थानीय कलाकार फरीद ने माहौल बनाने के लिए तबले और हारमोनियम पर कुछ हिन्दी गज़लें पेश कीं। Bollywood Arts नामक समूहों ने कई Bollywood गानों पर नृत्य पेश किये (जैसे घाघरा)। तीन बच्चियों ने भी फाल्गुनी पाठक के गाने 'मैंने पायल जो छनकाई' पर नृत्य पेश किया। निकिता ने 'क्या बोलती तू' गाने को mix करके break dance की दिखने वाला Bungloo नृत्य पेश किया। पैरिस से 'Desi Crew' नामक भांगड़ा समूह ने पंजाबी DJ music पर जानदार भांगड़ा पेश किया। इसी बीच रात्रि भोज भी हुआ, जिसके लिये पूरे हॉल में लंबी सी पंक्ति लग गई। हालांकि कार्यक्रम का प्रवेश शुल्क पन्द्रह यूरो था पर रात्रि भोज का शुल्क केवल दो यूरो के साथ बहुत निम्न रखा गया था। कार्यक्रम को सफल बनाने में वैदिक संस्था के पूनिया परिवार, शर्मा परिवार एवं संस्था के सदस्यों तथा उनके ढेर सारे साथियों का बच्चों समेत पूर्ण समर्पण अत्यन्त महत्वपूर्ण था।

शनिवार, 5 नवंबर 2011

म्युनिक का दीपावली कार्यक्रम 2010

5 नवंबर को म्युनिक के Milbertshofen Kulturhaus में दीपावली कार्यक्रम हुआ जिसमें तीन सौ से अधिक लोग शरीक हुए। 23 वर्षीया सनेहा कुमार ने अंग्रेज़ी में और एक जर्मन साथी ने जर्मन भाषा में मंच संचालन किया। कार्यक्रम में म्युनिक से भारतीय महाकोंसल श्री अनूप कुमार मुद्गल ने अंग्रेज़ी में दीपावली के इतिहास और महत्व के बारे में बताया। अजय बहुरूपिया ने संस्कृत में श्लोक पढ़े। स्नेहा भारद्वाज ने शास्त्रीय नृत्य की शैली में गणेष पूजा प्रस्तुत की। बच्चों के एक समूह ने 'तारे ज़मीन पर' फिल्म के गाने 'बम बम बोले' पर एक Choreography पेश की। चन्द्रा देवी के नृत्य समूह ने ढेर सारे Bollywood गीतों पर नृत्य प्रस्तुत किया, सैकत भट्टाचार्य ने भारत की बढ़ती आर्थिक व्यवस्था के बारे में कुछ बातें कहीं और कैरियोकि पर दो बंगाली गाने और एक हिन्दी फिल्मी गीत 'कल हो न हो' प्रस्तुत किया। सटुट्टगार्ट से 'पंजाबी गभरूज़' भांगड़ा समूह ने भांगड़ा पेश किया। भांगड़े की ताल पर तो हॉल में बैठे लोग भी झूमने लगे और मंच पर आकर नाचने लगे। भोजन का इन्तज़ाम बारह यूरो शुल्क के साथ स्वागत रेस्त्रां द्वारा किया गया था। इसी बीच बाहर खुली हवा में पटाखे छोड़ने का इन्तज़ाम भी किया गया। कार्यक्रम की समाप्ति पर हॉल की कुर्सियां हटाकर हॉल को डिस्को में बदल दिया गया। कार्यक्रम का प्रवेश शुल्क दस यूरो था और लगभग सारी टिकटें पहले ही इंटरनेट द्वारा बेच दी गईं थीं। इसलिये कई पंजाबियों को इंटरनेट के आदि न होने के कारण कार्यक्रम के बारे में पता ही नहीं चला। कई लोग दूर दूर से आए पर उन्हें टिकट न मिलने पर वापस जाना पड़ा। भारत घूम चुके कई जर्मन आंगतुकों को यहां प्रस्तुत किए गए भारत और असली भारत में बहुत अन्तर लगा। और अंग्रेज़ी और जर्मन में लंबी लंबी व्याख्याएं उन्हें खलीं।

रविवार, 1 मई 2011

टैगोर परिवार पर बनेगा वृत्तचित्र

बर्लिन निवासी फिल्म निर्माता Nils Visé टैगोर परिवार पर दो भागों में एक वृत्तचित्र बनाने जा रहे हैं। पहला भाग रवीन्द्रनाथ टैगोर के दादा द्वारकानाथ टैगोर पर आधारित होगा और दूसरा भाग खुद रवीन्द्रनाथ टैगोर पर। इस साल मार्च / अप्रैल में वे जर्मनी और भारत में फिल्म की casting करेंगे। 7 मई 2011 को रवीन्द्रनाथ टैगोर के 150वें जन्मदिन पर वे इस फिल्म के promotional trailors दिखाना चाहते हैं। फिर गर्मियों में शूटिंग करना चाहते हैं। फिर 7 अगस्त 2011 को रवीन्द्रनाथ टैगोर की 70वीं पुण्यतिथि तक वे फिल्म को पूरा करना चाहते हैं।Nils Visé ने इस फिल्म के लिए एक साल तक काफी शोध किया है। UNESCO भी टैगोर परिवार की विरासत के लिए उनकी मदद करेगा। बंग्लादेश की सरकार उनकी मदद कर रही है। भारत की भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद, NFDC और संस्कृति मन्त्रालय से उन्हें कुछ मदद की उम्मीद है। इस फिल्म पर कुल लगभग तीन लाख साठ हज़ार यूरो का खर्च आएगा। इस फिल्म में archive material, interviews और biographies का मिश्रण होगा।



Nils Visé इस फिल्म में इस परिवार की कई बातों को उभारना चाहते हैं, जैसे द्वारकानाथ टैगोर पहले भारतीय थे जो यूरोप में आए। इंगलैण्ड के शाही परिवारों में उनका उठना बैठना था। वे यूरोप भी खुद अपने जहाज़ में आते थे। एक बार राजा राम मोहन राय के साथ आकर उन्होंने यूरोप में ब्रह्मा समाज की स्थापना की। उनके बेटे देवेन्द्रनाथ टैगोर यानि रवीन्द्रनाथ टैगोर के पिता ब्रह्मा समाज के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। ब्रह्मा समाज ब्राह्मणों का एक धार्मिक और उदार समूह था। यह पूरी दुनिया में विख्यात हुआ। कलकत्ता के उत्तर में शान्तिनिकेतन नामक गांव में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने विश्व प्रसिद्ध भारती विश्वविद्यालय की स्थापना की। इस विश्वविद्यालय का उद्देश्य उदारता के साथ, बिना भेदभाव से सभी को लोकतान्त्रिक रूप से शिक्षा उपलब्ध करवाना था। 1913 में रवीन्द्रनाथ टैगोर को अपनी कृति 'गीताञ्जली' के लिए नोबल पुरस्कार मिला। वे पहले गैर यूरोपीय थे जिन्हें नोबल पुरस्कार मिला। पर असल में यह बंगालियों के मन में स्वतन्त्रता की लड़ाई को ठण्डा करने के लिए किया गया था। पर इसके द्वारा वे दूसरे नोबल पुरस्कार विजेता Albert Einstein के सम्पर्क में आए। वे कई बार बर्लिन आए और Einstein से मिले। यहां से भारत और जर्मनी के बीच intellectual और cultural योगदान शुरू हुआ। उस समय जर्मनी का माहौल बहुत बिगड़ा हुआ था। लोग बहुत डरे हुए थे और depressed थे। रवीन्द्रनाथ टैगोर की लम्बी दाढ़ी, उनकी गर्माहट भरी आवाज़, उनका सुकून, प्रकृति और धर्म के बारे में उनकी बातें यहां के लोगों को भाईं। दूसरी ओर Einstein हमेशा physics की बातें करते थे। इन दिनों भारत का तो यहां trend था। भारत के बारे में बहुत से नाटक खेले जाते थे। पर नाज़ियों के आने से सभी भारतीयों को जाना पड़ा। पहले पहले तो नाज़ियों को गर्व था कि भारतीयों और जर्मनों का मूल एक है। पर फिर उन्होंने देखा कि भारतीय काफ़ी अलग दिखते हैं। रवीन्द्रनाथ टैगोर का नाम भी यहूदियों के पादरी 'रब्बी' से मिलता जुलता था। इसलिए उन्होंने भारतीयों को खदेड़ दिया। उस समय बहुत भारतीय थे यहां। बहुत से भारतीय छात्र इंगलैण्ड पढ़ने जाते थे। इंगलैण्ड ने जर्मनी को भारत में व्यापार करने से रोक रखा था। इसलिए जर्मनी ने भारतीय छात्रों को यहां बुलाना शुरू कर दिया। भारतीय छात्र भी ब्रिटिश उत्पादों और सेवाओं का boycott के लिए जर्मनी को prefer करने लगे। धीरे धीरे जर्मनी भारतीयों, खास कर बंगालियों के लिए भारत से बाहर स्वतन्त्रता संग्राम का मुख्य केन्द्र बन गया। बर्लिन में उन्होंने national committee of indians की स्थापना की। 1957 में रवीन्द्रनाथ टैगोर की कृति पर आधारित प्राण अभीनीत Bombay Talkies की फिल्म 'काबुलीवाला' पहली भारतीय फिल्म थी जो Berlinale में दिखाई गई। उसे Silver Bear मिला था।

रवीन्द्रनाथ टैगोर के एक वंशज बर्लिन में 40 साल से रह रहे हैं। उनकी आयु लगभग 65 वर्ष है। उनकी दो बेटियां जर्मनी में ही पैदा हुई और बड़ी हुई हैं। वे अपने पारिवारिक इतिहास के बारे में लगभग कुछ नहीं जानतीं। कहा जाता है कि द्वारकानाथ टैगोर का इंगलैण्ड की queen victoria के साथ भी सम्बन्ध रहा है।

Nils Visé 16 साल से फीचर फिल्में और commercials बना रहे हैं। कुछ सालों से उनका सम्बन्ध भारत के साथ  काफ़ी बढ़ गया है। 2003 में एक भारतीय फिल्म निर्माता ने जर्मनी में किसी फिल्म की शूटिंग के लिए उन्हें सम्पर्क किया। वह शूटिंग तो नहीं हो पाई पर जर्मन फिल्म निर्माताओं में यह बात फैल गई कि उनका किसी भारतीय फिल्म निर्माता के साथ ताल्लुक है। 2004 में उन्होंने मुम्बई में अपना कार्यालय खोल लिया। 2009 में उन्होंने अपनी कम्पनी को private limited के रूप पञ्जीकृत करवा लिया। उनका फकीर चन्द मेहरा की भारतीय लोकप्रिय फिल्म निर्माण कम्पनी eagle films के साथ गठजोड़ है। उन्होंने Pro7 के लिए मुम्बई में एक फिल्म बनाई। Volkswagen के लिए भारत में कई projects कर चुके हैं। जैसे corporate videos, photo shootings, commercials, press conferences के लिए audio video presentations आदि। Volkswagen कम्पनी भारत में सबसे बड़े investors में से एक है। 2007 में पुणे में plant लगाने के बाद वह 2008 में Jetta कार launch कर चुकी है। अब वह Audi और Skoda के साथ कई और जर्मन कारें भारत में launch करने जा रही है।

http://www.advise-film.com/

सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

मोटरसाइकलों पर आधारित व्यापार मेला

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18 से 20 फरवरी तक म्युनिक में मोटरसाइकल कारोबार पर आधारित बवेरिया के सबसे बड़े व्यापार मेले का आयोजन हुआ जिसमें 19 देशों की पौने तीन सौ कम्पनियों ने भाग लिया। इसमें भारी भरकम, 1000cc से ऊपर से मोटरसाइकलों से लेकर हलके मोटरसाइकल, स्कूटर, तीन पहियों वाले trikes, चार पहियों वाले quads, उपयुक्त कपड़े हेल्मेट, तकनीक, tuning, और टूर आदि आयोजित करने वाली कम्पनियों ने अपने उत्पाद और सेवाएं प्रस्तुत कीं। जर्मनी में ठण्ड के बावजूद मोटरसाइकलों के शौकीनों की कमी नहीं। यहां या तो रेस के लिए मोटरसाइकल चलाए जाते हैं या फिर लम्बी यात्राओं के लिए। इसलिए ये आमतौर पर 1000cc से बड़े ही होते हैं। खासकर लम्बी यात्राओं के लिए अमरीका के भारी भरकम Harley-Davidson मोटरसाइकलों का यहां बहुत craze है। ठीक वैसे ही जैसे अमरीका में जर्मनी की BMW कारों का craze है। बहुत सारी कम्पनियां इन मोटरसाइकलों को किराए पर देकर यूरोप के, अमरीका के या पूरी दुनिया के हज़ारों किलोमीटरों के टूर लगवाती हैं। सबसे लोकप्रिय है अमरीका का Route 66.
http://www.imot.de/

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

हिन्दी पुस्तक का जर्मन में अनुवाद


Book reading of German translation published by Draupadi Publications of a Hindi book by indian author Uday Prakash, in Munich.

दस नवंबर को म्युनिक के 'Eine Welt Haus' में हिन्दी लेखक 'उदय प्रकाश' की हिन्दी पुस्तक '.... और अन्त में प्रार्थना' के जर्मन रूपान्तर 'Doktor Wakankar. Aus dem Leben eines aufrechten Hindus' का एक विशेष सभा में परिचय दिया गया। इस सभा में दो मॉडरेटरों द्वारा जर्मन अनूदित पुस्तक में से कुछ अंश पढ़कर श्रोताओं को सुनाए गए और साथ ही मूल लेखक 'उदय प्रकाश' ने पुस्तक और विषय सम्बंधी जानकारी दी। मॉडरेटरों, लेखक और श्रोताओं के आपसी संवाद की सुविधा के लिए एक जर्मन-अंग्रेज़ी अनुवादक भी उपस्थित थीं। मूल हिन्दी पुस्तक भारत में 'वाणी प्रकाशन, दिल्ली' द्वारा प्रकाशित की गई थी। और जर्मनी में इसे 'द्रौपदी प्रकाशन' (Draupadi Verlag) ने प्रकाशित किया है। वहां जर्मन अनूदित पुस्तकें बिक्री के लिए भी उपलब्ध थीं।

मॉडरेटर Renate Börger ने श्रोताओं का स्वागत किया और लेखक 'श्री उदय प्रकाश' पुस्तक का परिचय देते हुए कहा कि 1952 में जन्मे उदय प्रकाश की पुस्तक में हिन्दू राष्ट्रवाद और एक डॉक्टर के पेशे के बीच झूलते हुए 'डा. दिनेश मनोहर वाकणकर' की कहानी है। उन्होंने कहा कि वे कुल बीस पच्चीस मिनट के समय में पुस्तक में चुने गए पांच अध्यायों में से कुछ अंश पढ़ेंगी। हर पठन के बाद पोडियम पर उनके साथ बैठे उदय प्रकाश जी से प्रश्नोत्तर भी किया जाएगा। फिर उन्होंने उदय प्रकाश जी को मूल हिन्दी पुस्तक में से कुछ पंक्तियां पढ़कर सुनाने का अनुरोध किया ताकि श्रोताओं को मूल भाषा का थोड़ा आभास हो सके। उदय प्रकाश जी ने उपन्यास की कुछ आरम्भिक पंक्तियां पढ़ीं।

पुस्तक के बारे में बताते हुए 'उदय प्रकाश जी' ने कहा कि 48 वर्ष की आयु के 'डा. वाकणकर' चमड़ी के रोगों के डाक्टर होने के साथ साथ 'राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ' के सक्रिय सदस्य भी हैं। 1990 में लिखी यह कोई काल्पनिक कहानी नहीं बल्कि सच्ची कहानी है (हालांकि हिन्दी पुस्तक पर लिखा हुआ है कि सभी पात्र काल्पनिक हैं)। एक दंगे में पुलिस की गोली द्वारा एक मुस्लिम युवक मारा जाता है। वहां के न्याय मन्त्री, जो सीमेंट के व्यापारी भी हैं, उन्हें झूठी शव परीक्षा रिपोर्ट बनाने को कहते हैं, जिसमें मृत्यु का कारण गोली नहीं बल्कि पत्थर-बाज़ी बताया जाए। उस समय मैं दिल्ली में एक हिन्दी समाचार पत्र में बतौर पत्रकार काम करता था। समाचार पत्र ने कई बार मेरी सच्ची रिपोर्टें छापने से मना किया जिसके कारण मैं नौकरी छोड़ कर मध्यप्रदेश लौट आया। वहां मेरी मुलाकात डा. वाकणकर से हुई। उस घटना के बाद उनकी दिमागी हालत ठीक नहीं थी। मैं उन्हें दिल्ली लाया। वे 'राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ' को एक सांस्कृतिक संगठन समझते थे पर यह एक राजनैतिक संगठन सिद्ध हुआ। हमने कई प्रेस कॉन्फ़्रेंस आयोजित करके इस मुद्दे को उजागर करने का प्रयत्न किया।'

इस पर Renate Börger ने पूछाः भारत में 'राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ' की बीस हज़ार से अधिक शाखाएं हैं। आप हिन्दू राष्ट्रीय आन्दोलन की व्याख्या कैसे करेंगे? उदय प्रकाश जी ने उत्तर दिया कि भारतीय जनसांख्यिकी में दलित भी हैं। भारतीय संविधान के निर्माता डा. अंबेडकर ने कहा था कि दलित हिन्दू नहीं हैं। वे अलग हैं। उन्होंने दलितों से आह्वान किया था कि हिन्दू धर्म में उन्हें मुक्ति नहीं मिलेगी इसलिए वे बौद्ध धर्म अपनाएं। 1996 में भारत में एक सर्वेक्षण से पता चला कि भारत में केवल अधिक जाने वाले केवल चार पांच समूह नहीं (जैसे हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई आदि) बल्कि दो हज़ार पच्चीस समूह हैं। यहां चौबीस नहीं बल्कि दो सौ भाषाएं हैं। इतनी सारी जातियों में किसी तरह का राजनैतिक एकीकरण सम्भव नहीं। लेकिन मीडिया लोगों को एक कृत्रिम पहचान देने का प्रयत्न करता है। यह पुस्तक बाबरी मस्जिद विध्वंस से भी पहले लिखी गई थी। इसमें गुजरात दंगों, ईसाई मिशनरियों पर हिंसक आक्रमण आदि के द्वारा तनाव पैदा करने का उल्लेख किया गया है। पर पिछड़ी जातियां अब अपनी पहचान दर्ज करवा रही हैं। पिछले दो चुनावों में यह देखने को मिला है। इस पार्टी को हार का मुंह देखना पड़ा है। अगर भविष्य में भी वे हारते हैं तो भविष्य बेहतर होगा।'

साथ ही उदय प्रकाश ने नब्बे के दशक में आरम्भ हुई वैश्वीकरण की लहर का अपने गांव पर पड़ते असर का उल्लेख करते हुए कहां 'एक कागज़ बनाने वाली फ़ैक्टरी ने मेरे गांव की कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण कर लिया। वहां महुआ के पेड़ों, जड़ी बूटियों की बजाय तेज़ी से बढ़ने वाले नील-गिरी के पेड़ (eucalyptus) की बड़ी मात्रा में खेती होने लगी। इन पेड़ों की शाखाएं नहीं होतीं और ये बहुत पानी चूसते हैं जिससे पानी का स्तर गिरता जाता है। इस वजह से और पानी के लिए और गहरी खुदाई करनी पड़ती है। अब तो बरसात का मौसम भी अता पता नहीं। मेरा घर दरिया के किनारे था। वह दरिया अब सूख चुका है। एक सर्वेक्षण के अनुसार स्वतन्त्रता के समय 1947 में भारत में 48% भूमि पर जंगल थे। अब केवल 12% भूमि पर जंगल हैं। ये आंकड़े भी भ्रामक हैं। पूर्वी और पश्चिमी भारत तो पर्याप्त बरसात के कारण बच गया। पर कुछ अन्य क्षेत्रों में से तो जंगल पूरी तरह ग़ायब हो चुके हैं। आदिवासी इसकी सबसे बड़ी कीमत चुकाते हैं। वे सदियों से जंगलों में रहते आए हैं। बॉक्साइट, लौह, कोयले आदि प्राकृतिक संसाधनों के लिए उन्हें बेघर कर दिया जाता है। ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों की तरह उनमें मृत्यु दर, जन्म दर से भी अधिक है। अब तक अस्सी लाख आदि-वासियों का सफ़ाया हो चुका है। भारत की अभी भी 11% जनसंख्या आदि-वासियों की है। यह गिनती इटली, इंगलैण्ड और फ़्रांस की कुल आबादी से भी अधिक है।'

श्रोताओं में से किसी ने पूछा 'दलितों और पिछड़ी जातियों ने कट्टरपन्थ के विरुद्ध लड़ाई में क्या भूमिका निभाई है?' उदय प्रकाश जी ने उत्तर दिया 'उत्तर प्रदेश सबसे अधिक आबादी वाला प्रान्त है। वहां अब मायावती द्वारा दलितों की सरकार चल रही है। वे जातिवाद के विरुद्ध लड़ रहे हैं। अरुंधति राय आदि-वासियों के लिए लड़ रही है। लेकिन जातिवाद को सही मायनों में समाप्त करने के लिए बहुत गहन चिन्तन की ज़रूरत है। लेकिन मैं कोई नेता नहीं बल्कि लेखक हूं। मेरे अगले उपन्यास में एक लड़की और एक छोटी जाति के लड़के की प्रेम कहानी है। मुझे डर लगता है कि जिस तरह से भारत में तरह तरह भेदभावों के द्वारा अपने हित साधे जाते हैं, उससे स्थित बहुत विस्फोटक बन सकती है। महात्मा गांधी जी सत्ता के विकेन्द्रीकरण की बात करते थे। पर ऐसा नहीं हुआ। पर वहीं पर भारत की अनेकता और विविधता के कारण लोकतन्त्र अभी भी शक्तिशाली है। केवल दस वर्ष पहले ही सोनिया गांधी का उसके विदेशी मूल को लेकर कितना विरोध हुआ। लेकिन अब वे प्रधान मन्त्री तक बन सकती हैं।'

एक श्रोता ने पूछा 'भारतीय राजनैतिक पटल पर भारतीय युवा लोगों की क्या भूमिका है?' उदय प्रकाश जी ने कहा 'भारत में 77% जनसंख्या देहात में रहती है। बर्लिन में भी इसी विषय को दर्शाती एक प्रदर्शनी चल रही है जिसका शीर्षक है 'what makes india urban'. लगभग 28.5 करोड़ युवा लोग शहरों में रहते हैं। यह विश्व का चौथा सबसे बड़ा उपभोक्ता बाजार है। भारत में दो तरह की युवा पीढ़ियां हैं। 15-20% साधन संपन्न लोग हैं। बाकी लोग ऐसे हैं जो हर सुविधा और शिक्षा से वंचित हैं। वे विकल्प के रूप में हथियार उठाते हें। नक्सली आन्दोलन इसी का परिणाम है। भारतीय मध्य वर्ग, खास तौर पर तकनीकी प्रगति के बाद उपजे मध्य वर्ग के मन में 77% जनसंख्या वाले वंचित और गरीब लोगों के लिए कोई सहानुभूति नहीं है। यह गरीब लोग एक डॉलर से भी कम दैनिक आय में गुज़र बसर करती है। दुनिया का मलेरिया से मरने वाला हर तीसरा व्यक्ति भारतीय है। विश्व के 1.6 करोड़ कुष्ठरोगियों में से 1.2 करोड़ भारतीय हैं। पवन कुमार वर्मा की पुस्तक 'Great Indian Middle Class' (हिन्दी में 'भारत के मध्य वर्ग की अजीब दास्तान') इसी सच्चाई को दर्शाती है। 'अन्तरराष्ट्रीय पारदर्शिता संस्था' (Transparency International) ने पारदर्शिता के पैमाने पर भारत को विश्व में 163वां स्थान दिया है। इसी से भारत में भ्रष्टाचार का अन्दाज़ा लग जाता है।'

एक अन्य श्रोता ने पूछा 'भारतीय युवा वर्ग का राजनीति के प्रति क्या रवैया है? राजनीति में उनका झुकाव और भागीदारी कितनी है?' उदय प्रकाश जी ने कहा 'अभी भी स्वर्ण वर्ग के हिन्दू सत्ता में हैं। यहां पर 1968 में यूरोप के छात्रों द्वारा किए गए आन्दोलन जैसा कोई आन्दोलन नहीं है। थोड़ा बहुत जो युवा आन्दोलन हुआ, वह 1977 में आपात-काल के दौरान जयप्रकाश नारायण के प्रतिनिधित्व में हुआ। भारत में दो तरह का युवा वर्ग है। एक ओर वैश्वीकरण का फायदा उठाता हुआ, अच्छे वेतन पाता हुआ युवा वर्ग है। राजनीति में उसकी रुचि नहीं है। दूसरा गरीब युवा वर्ग जिसमें बेरोज़गारी व्यापक है। इस युवा वर्ग के पास हथियार उठाने के सिवा कोई विकल्प नहीं बचता। ये दो समानान्तर पीढ़ियां आपस में किसी दिन टकरा सकती हैं, जिसके बारे में सोच कर ही मैं डर जाता हूं। भारत में 60-70 करोड़ लोग हिन्दी बोलते हैं। इसलिए मैं अपने प्रकाशक का बहुत धन्यवादी हूं जिन्होंने मेरी आवाज़ को जन जन तक पहुंचाया। मैं अपने जर्मन प्रकाशकों का भी बहुत आभारी हूं, जिन्होंने वैश्वीकरण की चमक दमक में भी भारत के एक अंधियारे कोने निकलती हुई इस आवाज़ को सुनने की हिम्मत की है। यह आवाज़ बड़ी बड़ी बातें करती किसी अन्तरराष्ट्रीय कंपनी की नहीं बल्कि एक आम आदमी की है।

अधिकतर श्रोताओं का मानना था कि कार्यक्रम बहुत ही रोचक था। लेखक ने बड़ी हिम्मत, सच्चाई और ईमानदारी के साथ अनके बातें बताईं। श्रोताओं में से Christine कहती हैं कि लगता है कि अनुवादक ने भारतीय सन्दर्भ में पहले से तैयारी नहीं की थी। बहुत से भारतीय शब्द जैसे ब्राह्मण, क्षत्रीय, किसान, आदिवासी, दलित आदि उसने वैसे के वैसे ही उपयोग किए। इन महत्वपूर्ण शब्दों का भी जर्मन भाषा में अनुवाद किया जाना चाहिए था, क्योंकि इन्हें ठीक तरह समझे बिना श्रोताओं की समझ आधी अधूरी रह गई होगी। श्रोताओं में से Ingrid ने पुस्तक खरीदी और उदय प्रकाश जी से ऑटोग्राफ लिया।

फ़िल्म 'वीर' म्युनिक में प्रदर्शित



Salman's latest film 'Veer' is on german tour. First show in Munich witnessed half filled hall with sufficiently satisfied filmgoers. Most watchers find it to be entertaining and a clean film.




ਸਲਮਾਨ ਦੀਆਂ ਫਿਲਮਾਂ ਆਮ ਪੰਜਾਬੀ ਲੋਕਾਂ ਲਈ ਕਾਫੀ ਮਨੋਰੰਜਕ ਹੁੰਦੀਆਂ ਹਨ. ਪਿਛਲੀ ਫਿਲਮ 'ਵੀਰ' ਵੀ ਕੁੱਝ ਇਸ ਤਰਾਂ ਦੀ ਸੀ.




सलमान खान की नयी फ़िल्म 'वीर' का पहला शो म्युनिक के Neue Rottmann नामक एक सिनेमाघर में 21 जनवरी को आयोजित हुआ। लेकिन फ़िल्म को देखने उम्मीद से बहुत कम लोग आये। शो के निर्धारित समय तक बहुत कम लोग आये थे। इस लिये फ़िल्म देर से शुरू की गई। तब लगभग आधा हॉल भर गया था। फ़िल्म देखने वालों में कुछ पंजाबी लड़के थे, कुछ जर्मन लोग थे, बाकी पाकिस्तान, अफ़्गानिस्तान आदि के कुछ परिवार थे।  अधिकतर देसी लोगों को फ़िल्म ठीकठाक, साफ़ सुथरी, मनोरंजक और परिवार के साथ बैठकर देखने लायक लगी। फ़िल्म की कहानी और सन्देश किसी को कितना प्रभावित या प्रेरित कर पाये, यह कहना मुश्किल है। फ़िल्म के वितरक अशरफ़ क्षुब्ध हैं। कहते हैं म्युनिक में एक तो भारतीय लोग कम हैं, ऊपर से उन्हें फ़िल्म देखने का कोई चाव नहीं है। यही शाहरुख खान की फ़िल्म होती तो बाहर खड़े होने को भी जगह नहीं मिलती। लेकिन बड़ी फ़िल्में उन्हें मिल नहीं पातीं। अब शाहरुख की नयी फ़िल्म 'My Name is Khan' को लोग पूछ रहे हैं। लेकिन यह फ़िल्म भी किसी जर्मन वितरक कंपनी के पास है। लोग कहते हैं कि Cinemaxx या Mathäser जैसे किसी अच्छे सिनेमाघर में फ़िल्म लगाओ, तब देखने आयेंगे, लेकिन उनके किराये बहुत मंहगे हैं। इस हॉल में भी कोई खराबी नहीं है। साउण्ड, स्क्रीन, सीटें आदि सब कुछ ठीक ठाक है।

फ़िल्म में अपने देश और संस्कृति में विश्वास जगाने का प्रयत्न किया गया है। लेकिन ब्रिटिशों के विरुद्ध अत्यधिक रोष, और कई सारे भावुक सीन फ़िल्म को कई जगह पर, खास कर अन्त में बिना वजह बहुत लंबा और बोझिल बना देते हैं। गाने बहुत अच्छे हैं। एडिटिंग बहुत ही नपी तुली है।

http://www.erosentertainment.com/
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रविवार, 13 फ़रवरी 2011

म्युनिक मन्दिर में सरस्वती पूजा 2011

13 फरवरी को IGCA ने म्युनिक के हरि ओम मन्दिर में सरस्वती पूजा का आयोजन किया। पण्डित धर्म पराशर ने विद्या, कला और संगीत की देवी मां सरस्वती की पूजा अर्चना संपन्न की। अमरजीत सिंह शौकीन ने मन्दिर की रसोई में ही चने, चावल, दाल, पूरियों और खीर के साथ स्वादिष्ट भोजन प्रसाद (लंगर) तैयार किया। शालिनी सिन्हा, मिथिलेष सिन्हा, राजेश मिस्त्री और रूपा सेन ने मिलकर बच्चों के painting competition और fancy dress competition की व्यवस्था की। दोनों प्रतियोगिताओं में बच्चों को सात साल तक की आयु और सात साल से अधिक की आयु की दो श्रेणियों में बांटा गया। हालांकि प्रतियोगिता के लिए बच्चों के नाम लिखवाने के लिए पहले से आग्रह किया गया था। पर बिल्कुल मौके पर लगभग दोगुने बच्चे भाग लेने के लिए पहुंच गए। भारतीय कोंसल श्री यशपाल मोतवानी, उनकी धर्मपत्नी, कोंसल श्री गोलदार, उनकी धर्मपत्नी, पूर्णिमा अरोड़ा और वर्षा पाटिल ने जज की भूमिका अदा की। fancy dance competition में बड़े बच्चों की श्रेणी में शबरी बनी प्रियंका जोशी को पहला ईनाम, नारद मुनि और कृष्ण बने बच्चों को दूसरा ईनाम और द्रौपदी बनी रिया अरोड़ा को तीसरा ईनाम मिला। छोटे बच्चों में नारद मुनि बनी श्रेया मंगला को तीसरा ईनाम और गायत्री माता बनी सृष्टि जैन को दूसरा ईनाम मिला। पहला ईनाम एक पांच वर्षीय बच्ची 'सुहानी' को मिला जिसने बहुत ही creative idea के साथ सब्ज़ियां बेचने वाली लड़की की भूमिका निभाई और आलू ले लो, प्याज ले लो आदि आवाज़ें लगाईं। सभी को यह बहुत रोचक लगा और बहुत पसन्द आया। नारद मुनि की भूमिका में श्रेया मंगला ने हिन्दी में संवाद बोले 'नारायण नारायण, आप सभी जनों को नारद मुनि का सादर प्रणाम' और सृष्टि जैन ने गायत्री मन्त्र गाया। इसके अलावा cowboy, राजकुमारी, कृष्ण आदि बने अन्य बच्चों को भी सान्त्वना पुरस्कार मिले। अमरजीत सिंह शौकीन ने बच्चों को ईनाम बांटे। ऐसे ही painting competition में भी पहले, दूसरे और तीसरे ईनाम के अलावा भाग लेने वाले सभी बच्चों को सान्त्वना पुरस्कार मिले। इसके अलावा कई बच्चों ने मिलकर स्नेहा भारद्वाज द्वारा choreographed शास्त्रीय संगीत पर एक dance performance भी दी। पन्द्रह वर्षीय प्रिया अरोड़ा ने हिन्दी में हरिवंश राय बच्चन की एक कविता सुनाई।

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

पौने पांच सौ साल बाद मिला डूबा हुआ जहाज़

The spices exhibition in Rosenheim opens window to vast and long story of world trade of spices. This story is about a small part of this exhibition, a story about the Portuguese ship 'Bom Jesus' which was found in April 2008 on Namibian coast, 476 years after it was lost in storm while heading for India.

Munich के पास Rosenheim नामक शहर में चल रही मसालों के वैश्विक व्यापार पर आधारित एक बड़ी प्रदर्शनी का एक अध्याय इस लेख में पेश किया जा रहा है. यह प्रदर्शनी अक्तूबर 2010 तक चलेगी, देखना ना भूलें. लेख के अन्त में प्रदर्शनी का web पता देखें.

आज से केवल दो साल पहले एक खोज ने मसालों के सदियों पुराने विश्व व्यापार के इतिहास में एक नया अध्याय खोल दिया. April 2008 में Namibia के समुद्री तट के पास एक हीरों की खान के पास 476 साल पुराना डूबा हुआ एक पुर्तागाली जलपोत मिला जो टनों के हिसाब से तांबा, सोना आदि लाद कर भारत जा रहा था. इससे पहली बार ज्ञात हुआ कि उस समय में Germany के व्यापारी कितनी भारी मात्रा में इस व्यापार में संलग्न थे. इस खोए हुए पोत में से लगभग सौ टन की कुल 7484 चीज़ें मिलीं जिन में 21 किलो चांदी के सिक्के, ग्यारह किलो सोने के सिक्के, सात टन लकड़ी, पांच anchor, कांसे और लोहे की तोपें, तलवारें, तोपों के गोले, बन्दूकें, तांबे और टीन के बरतन, 78 हाथी के दांत, साढे छह टन सीसा, सौ किलो टीन, बीस टन तांबा और पोतों की स्थिति मापने के लिए अनेक यन्त्र शामिल थे.

4 march 1533 को Bom Jesus नामक यह पोत तीन अन्य पोतों के साथ Potugal की Lisbon बन्दरगाह से भारत की ओर चला. यह 29 meter लम्बा और साढे आठ meter लम्बा बिल्कुल नया और आधुनिक पोत था. इसकी लकड़ी पानी में 9cm और ऊपर 7cm मोटी थी. इस में चौरस आकार के पाल थे जिन पर पुर्तगाली cross बना हुआ था. इस में लदा सामान Europe की कई प्रमुख बन्दरगाहों से आया था जैसे Gdańsk, Antwerp, Seville, Venice और Cadiz. इस में लदे तांबे के गोले Augsburg के Fugger नामक व्यापारिक परिवार से थे जिन की Slovakia में तांबे की खानें थीं. इस तांबे के बदले में Potugal भारत में काली मिर्च और अन्य मसालों का व्यापार करता था. 1510 में गोवा पर कब्जा करने के बाद तांबे के सिक्के भी वहीं बनाए जाने लगे थे जिन से व्यापार में बेहतर कमाई होती थी. इस के अलावा यह तांबे के गोले खम्भात की खाडी में, कोचीन में और मालाबार क्षेत्र में भी बेचे जाते थे. इनके अलावा पोत में लदा साढे छह टन सीसा भी Fugger परिवार से ही आने का अनुमान है. वे सीसे को Poland से ख़रीद कर Venice भेजते थे और वहां से यह Lisbon आता था. यह भी भारत में इमारतें बनाने के काम आता था. सीसे का गोला-बारूद बनाने में भी बहुत प्रयोग था. हर सिपाही करीब छह किलो सीसा लिए घूमता था. पोत में एक दो टन पारा भी था जो इद्रिया और अलमदन की खानों से आया था. अनुमान के अनुसार यह भी Fugger परिवार की ही सम्पत्ति थी. इसे भी भारत में बरतन बनाने और शीशे पर परत चढ़ाने के लिए बेचा जाता था. पारे के व्यापार से सब से अधिक नफा होता था. इस पोत में समुद्री युद्धों के लिए आधुनिक तोपें लगीं हुईं थीं. इन तोपों से 113mm व्यास के साढे पांच किलो भारी लोहे के गोले छोड़े जाते थे. हर गोले को दागने के लिए साढे पांच किलो बारूद की आवश्यकता होती थी. गोला 368 meter प्रति second की गति से जाता था. यह गोला 765 meter दूर बलूत की लकड़ी की 125 mm मोटी दीवार को आसानी से तोड़ सकता था. 220 meter की दूरी पर तो 480 mm मोटी लकड़ी भी इस के आगे नाकाम थी. हर तरह की तोप के लिए पत्थर और लोहे के गोले भी इस पोत में थे और हर तोप को दागने के लिए दो तोपची भी थे. इन में से बहुत से तोपची German थे. इस पोत पर इतना असला इस लिए था क्योंकि पोतों को Somalia के पास भारत में व्यापार करने वाले Muslim जलपोतों पर हमला बोलने की आज्ञा थी. पोतों के कप्तान अपने नाविकों को लूट का एक हिस्सा देने का प्रलोभन देते थे. पोत के हर नाविक को मसालों एक बोरी अपने साथ घर लाने अनुमति थी. यह उस समय बहुत बड़ी बात होती थी. इस के सपनों में लोग समुद्र के खतरों को भूल कर साथ जाने को तैयार हो जाते थे.

Lisbon से चलते समय इस पोत में 70 नाविक, 24 अधिकारी, 36 यात्री और 120 सैनिक थे. September 1533 में गोवा में तीन German व्यापारी बेसब्री से इस पोत के पहुंचने की प्रतीक्षा कर रहे थे. पर यह पोत दक्षिण अन्ध महासागर में African तट के पास एक तूफ़ान में फंस गया और हवा और तूफ़ान के द्वारा तट के पास धकेल दिया गया. फिर यह पोत सारे लोगों और सामान के साथ 476 सालों तक लापता रहा. हालांकि इस पर सवार लोगों की कुछ व्यक्तिगत चीज़ें मिली हैं पर खुद लोगों का कोई सुराग आज तक नहीं मिला है.

उपरोक्त चित्र National Geographic द्वारा पाई गई चीज़ों का अध्ययन कर के दोबारा तैयार किया गया है कि यह मूल रूप से कैसा दिखता होगा. February 2010 में National Geographic ने पहली बार इस के बारे में report प्रकाशित की

http://www.gewuerze-ausstellung.de/

मसालों के व्यापार पर प्रदर्शनी

America पहुंचने के कुछ सप्ताह बाद 4 नवंबर 1492 को Christoph Columbus ने एक पत्र में लिखा 'आज मैं ने अपना जलपोत दोबारा पानी में उतार दिया है. मैं भगवान का नाम ले कर दक्षिण पश्चिम दिशा में सोने, मसालों और नए देशों की खोज में अपनी यात्रा जारी कर रहा हूं.' केवल Columbus ही नहीं, सारा विश्व की उस समय में मसालों में रुचि थी. काली मिर्च, लौंग, जयफल, दाल-चीनी आदि मसाले उस समय में इतने कीमती थे कि उनका व्यापार सब से अधिक मुनाफ़े वाला धंधा था. Columbus, Ferdinand Magellan और Vasco da Gama जैसे नाविकों की कीमती और खतरनाक खोजी यात्राएं इस लिए सम्भव हो सकीं क्योंकि उस समय के राजा इन दुर्लभ मसालों तक पहुंचने के लिए लगातार नए नए समुद्री रास्ते ढूंढ रहे थे. आज हमें घर बैठे कौडियों के दाम पर ये मसाले मिलते हैं, इस लिए हम इसका अनुमान नहीं लगा सकते कि इस उपलब्धि के पीछे कितनी लम्बी कहानी, कितना नरसंहार, कितना पैसा, कितना अपराध और कितनी हिंसा अपने निशान छोड़ चुकी है.इस लम्बी यात्रा का सफ़र आप भी कर सकते हैं, असली मसालों, ख़ुशबूओं, चित्रों, video के साथ. Munich के पास Rosenheim शहर में 'Lokschuppen' नामक इमारत में मसालों के व्यापार पर आधारित एक सात महीने लम्बी, विशाल और विस्तृत प्रदर्शनी चल रही है जो अक्तूबर तक रहेगी. इस में कीमती मसालों के सन्दर्भ में अनेक देशों, संस्कृतियों और लोगों की कहानियां बताई गई हैं. इस प्रदर्शनी को आयोजित करने के लिए दो वर्ष तक शोधकार्य होता रहा. वहां काम करने वाले करीब बीस guides को छह महीने तक अध्धय्यन कर के परीक्षा पास करने पर ही guide का काम करने की अनुमति मिली है. ये guide आपको हर चीज़ के पीछे की कहानी इतने विस्तार से बताएंगे कि आप अलग अलग guides से कई बार टूर करना चाहेंगे. बस आपको German ठीक ठाक समझ आनी चाहिए.

http://www.gewuerze-ausstellung.de/

शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

ਬਰਸੀ ਤੇ ਵਿਸੇਸ ਸਮਾਗਮ ਕਰਾਇਆ ਗਿਆ

ਜਲੰਧਰ 4 ਫਰਬਰੀ (ਮਪ) ਸਹੀਦ ਬਾਬਾ ਨੱਥਾ ਸਿੰਘ ਜੀ ਦੇ ਪਵਿੱਤਰ ਅਸਥਾਨ ਪਿੰਡ ਕੰਦੋਲਾ ਕਲਾਂ ਵਿਖੇ ਸ: ਮਹਿੰਦਰ ਸਿੰਘ (ਧਾਲੀਵਾਲ) ਸਾਬਕਾ ਪ੍ਰਧਾਨ ਜੀ ਦੀ ਬਰਸੀ ਨੂੰ ਮੁੱਖ ਰੱਖ ਕੇ ਸ੍ਰੀ ਅਖੰਡ ਪਾਠ ਸਾਹਿਬ ਜੀ ਦੇ ਭੋਗ ਪਾਏ ਗਏ! ਭੋਗ ਤੋ ਅਪਰੰਤ ਜਥੇਦਾਰ ਸੁਖਵੀਰ ਸਿੰਘ (ਸੁੰਨੜ) ਸਰਪੰਚ ਦੇ ਢਾਡੀ ਜਥੇ ਨੇ ਸਹੀਦ ਬਾਬਾ ਦੀਪ ਸਿੰਘ ਜੀ ਦੇ ਪ੍ਰਸੰਗ ਦੁਆਰਾ ਸੰਗਤਾ ਨੂੰ ਨਿਹਾਲ ਕੀਤਾ! ਇਸ ਸਮੇ ਅੁਚੇਚੇ ਤੋਰ ਤੇ ਜਰਮਨ ਤੋ ਪਹੁੰਚੇ ਹੋਏ ਸਵਿ: ਸ: ਮਹਿੰਦਰ ਸਿੰਘ ਜੀ ਦੇ ਲੜਕੇ ਸ: ਹਰਜਿੰਦਰ ਸਿੰਘ (ਧਾਲੀਵਾਲ) ਨੇ ਅੁੱਦਮ ਕਰਕੇ ਹਰ ਸਾਲ ਦੀ ਤਰਾ ਛੋਟੇ-ਛੋਟੇ ਬੱਚਿਆਂ ਨੂੰ ਸਿੱਖ ਧਰਮ ਨਾਲ ਜੋੜਨ ਦਾ ਜਤਨ ਕੀਤਾ! ਜਿੰਨਾ ਬੱਚਿਆਂ ਨੇ ਸਟੇਜ ਤੋ ਜਵਾਨੀ ਜਪੁਜੀ ਸਾਹਿਬ, ਦੱਸ ਗੁਰੂਆਂ ਦੇ ਨਾਮ, ਪੰਜ ਪਿਆਰਿਆਂ ਦੇ ਨਾਮ ਜਾ ਹੋਰ ਧਾਰਮਿਕ ਕਬਿਤਾਵਾ ਸੁਣਾਈਆਂ! ਅੂੰਨਾਂ ਬੱਚਿਆਂ ਨੂੰ ਸਨਮਾਤ ਕੀਤਾ ਗਿਆ ਸਨਮਾਨ ਚਿੰਨ ਦੇਕੇ ਜਿਸ ਵਿੱਚ ਤਕਰੀਬਨ 65 ਬੱਚਿਆਂ ਨੇ ਹਿੱਸਾ ਲਿਆ! ਇਸ ਮੋਕੇ ਸੁਖਵੀਰ ਸਿੰਘ (ਸੂੰਨੜ) ਜੀ ਦੇ ਢਾਡੀ ਜਥੇ ਵਲੋ ਕਢਾਈ ਗਈ ਸੀਡੀ ਨੂੰ ਵੀ ਰਲੀਜ ਕੀਤਾ ਗਿਆ! ਅੰਤ ਵਿੱਚ ਧਾਲੀਵਾਲ ਪ੍ਰਵਾਰ ਵਲੋ ਆਏ ਹੋਏ ਰਿਸਤੇਦਾਰ ਅਤੇ ਸੇਵਾਦਾਰਾਂ ਨੂੰ ਵੀ ਸਨਮਾਨ ਚਿੰਨ ਦੇਕੇ ਸਨਮਾਤ ਕੀਤਾ ਗਿਆ! ਅਤੇ ਆਈ ਹੋਈ ਸੰਗਤ ਦਾ ਤਹਿਦਿਲੋ ਧੰਨਵਾਦ ਕੀਤਾ ਗਿਆ! ਗੁਰੂ ਕੇ ਲੰਗਰ ਅਤੁੱਤ ਵਰਤਾਏ ਗਏ!

गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

जर्मन लोग सीख रहे हैं हिन्दी

 म्युनिक के Münchner Volkshochschule में इस समय विश्व की करीब 50 भाषायें सिखायी जाती हैं जिनमें हिन्दी भी एक है। यहां हर समेस्टर में हिन्दी के अलग अलग स्तर के छह कोर्स चलते हैं जिनमें भारतीय मूल के श्री गुन्तुरू वानामली लोगों को हिन्दी पढ़ाते हैं। करीब चौबीस घंटे के हर कोर्स में दस छात्र पढ़ते हैं। अधिकतर लोग भारतीय भाषा और संस्कृति के बारे कुछ जानने की इच्छा से हिन्दी सीखते हैं।छात्रा Sabine Bräu कहती हैं कि उनका ब्वॉयफ़्रेण्ड एक भारतीय है। इसलिये वे थोड़ी हिन्दी सीखना चाहती हैं। लेकिन उन्हें ध्वनियों में अन्तर सुनने में बहुत दिक्कत आती है जैसे क और ख में अन्तर, ट और ठ में अन्तर, त और थ में अन्तर आदि। हिन्दी पढ़ना उन्हें सुनने से अधिक आसान लगता है। उल्टे छात्रा Marcella Moschini को हिन्दी पढ़ना मुश्किल लगता है और सुनना आसान।

Münchner Volkshochschule में ऐसी भाषाओं के लिये अलग विभाग है जिन्हें सीखने की मांग रोमन भाषाओं की अपेक्षा कम है। बसेरा की इस विभाग की मुख्य अध्यक्षिका Anna Rief (Fachgebietsleiterin, Seltener gelernte Sprachen) के साथ हुयी खास बातचीत में उन्होंने खुलासा किया कि सबसे अधिक सीखे जाने वाली भाषायें रोमन भाषायें हैं जैसे अंग्रेज़ी, फ़्रैंच, स्पेनिश, इटालियन, पुर्तगाली आदि। उसके बाद करीब 38 दूसरी भाषायें 'कम सीखे जाने वाली भाषाओं' (Seltener gelernte Sprachen) की श्रेणी में आती हैं जैसे अरबी, चीनी, हिन्दी आदि। अरबी और चीनी भाषा सीखने की मांग तो दरअसल इतनी है कि इन्हें 'कम सीखे जाने वाली भाषाओं' की श्रेणी में शामिल करना उचित नहीं है। इनकी तुल्ना में हिन्दी की स्थिति कमज़ोर ज़रूर है लेकिन इतनी बुरी नहीं है। भारत में पर्यटन करने के बहुत सारे इच्छुक लोग जाने से पहले थोड़ी भाषा सीख लेना चाहते हैं। बॉलवुड फ़िल्मों ने भी जर्मन लोगों में हिन्दी में रुची जगायी है। बहुत से लोग केवल भारतीय संस्कृति में रुची की वजह से हिन्दी सीखना चाहते हैं। हालांकि भाषा और लिपि, दोनों सीखना उन्हें थोड़ा भारी पड़ता है। अन्य भारतीय भाषायें सीखने की मांग लगभग न के बराबर है। श्री गुन्तुरू वानामली ने एक बार तेलगू सिखाने का भी प्रस्ताव रखा था लेकिन केवल दो तीन लोगों ने इसे सीखने के लिये फ़ोन किया। कोई भी कोर्स तभी चलाया जाता है जब उस भाषा को सीखने वाले लोगों की गिनती आठ अथवा उससे अधिक हो। इसलिये उनके लिये तो भारत की भाषा हिन्दी ही है जिसे अधिकतर भारतीय समझ लेते हैं।

Münchner Volkshochschule म्युनिक में स्थित एक संस्था है जो विभिन्न विषयों में अल्पकालिक प्रशिक्षण और सेमिनार आयोजित करती है, जैसे सेहत, कला, भाषायें, राजनिति, बिजनेस, कंप्यूटर आदि। यहां हर समैस्टर में कुल मिलाकर लगभग 7000 कोर्स, सेमिनार एवं टूर इत्यादि आयोजित किये जाते हैं। करीब एक लाख सत्तर हज़ार लोग हर वर्ष इनमें भाग लेते हैं। Anna Rief कहती हैं कि ये संस्था इस तरह की युरोप में सबसे बड़ी संस्था है। इसका कारण ये भी है कि म्युनिक में लोगों के पास पैसा है, काम है, और वे कुछ अतिरिक्त करने या सीखने के लिये पैसा निकाल सकते हैं।

http://www.mvhs.de/

http://www.gunturu.de/

गुरुवार, 27 जनवरी 2011

गणतन्त्र दिवस

गणतन्त्र दिवस पर म्युनिक और फ्रैंकफर्ट स्थित भारतीय कोंसलावासों में झण्डा फहराया गया। working day होने के बावजूद ढेर सारे लोगों ने उपस्थिति जताकर कार्यक्रमों की शान बढ़ाई। म्युनिक में महाकोंसल श्री अनूप कुमार मुदगल और फ्रैंकफर्ट में महाकोंसल श्री अजीत कुमार ने राष्ट्रपति का सन्देश पड़ते हुए भारत देश की achievements और challanges से और नागरिकों के कर्त्तव्यों से लोगों को परिचित करवाया। उसके बाद अतिथियों के लिए हल्का फुल्का नाशता परोसा गया। म्युनिक में स्वागत रेस्त्रां ने पकौड़े और समोसे परोसे और फ्रैंकफर्ट में मयूर रेस्त्रां ने जलेबियां और अन्य पकवान परोसे।
http://presidentofindia.nic.in/

शनिवार, 22 जनवरी 2011

indibay की पहली बैठक

20 जनवरी को indibay नामक नई संस्था की पहली बैठक में कोई तीस लोग शामिल हुए, अधिकतर जर्मन लोग। म्युनिक के शिराज नामक भारतीय रेस्त्रां में हुई बैठक के मुख्य अतिथि थे भारतीय महाकोंसल श्री अनूप मुदगल। संस्था के संस्थापक Martin Hübler और संजय तांबे ने अतिथियों का स्वागत करते हुए संस्था और इसके उद्देश्यों के बारे में बताया और साठ यूरो प्रति वर्ष शुल्क के साथ इसका सदस्य बनने के लिए आह्वान किया। फिर अनूप मुदगल ने भारतीय भूगोल, अर्थव्यवस्था और विभिन्न क्षेत्रों में आदान प्रदान की संभावनाओं के बारे में लोगों को बताया। उन्होंने कहा कि नौ दस प्रतिशत जैसी उच्च विकास दर भारत की अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए आवश्यक है। इसके बाद प्रश्नोत्तर सत्र भी हुआ जिसमें लोगों ने, जो भारत के साथ काम करने के इच्छुक थे पर कई तरह के डर से के कारण समझ नहीं पा रहे थे कि भारत के साथ काम करना कितना आसान है, कई प्रश्न पूछे। खासकर चीन और भारत में तुलना सम्बंधी कई प्रश्न पूछे। जैसे कि चीन के बारे में यहां मीडिया में बहुत कुछ छपता है पर भारत के बारे लगभग कुछ भी नहीं, ऐसा क्यों। चीन बहुत आक्रामक तौर पर दूसरे देशों में अपने पैर पसार रहा है, जैसे अफ्रीका, पर भारत चुप चाप रहता है। इससे पश्चिमी युवा भी चीन की ओर अधिक आकर्षित होते हैं, चीनी भाषा सीखते हैं, चीन घूमने जाते हैं, पर भारत की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। कारोबार में भी चीन पर भरोसा करना आसान होता है, जबकि भारतीयों की कारोबार करने की शैली सामान्यत किसी प्रणाली तहत नहीं, बल्कि अन्दाज़ से होती है। इसलिए उनके साथ कारोबार करना आसान नहीं। इन प्रश्नों पर अनूप मुदगल चीन पर किसी टिप्पणी से बचते हुए केवल इतना कहा कि भारत दूसरों के साथ मिलकर आगे बढ़ना चाहता है, किसी की कीमत पर नहीं। शुरू शुरू में वहां उथल पुथल नज़र आती है पर थोड़ी देर बाद वहां के लोगों की mentality समझ आ जाती है और काम सामान्यत चलने लगता है। कुछ अतिथियों का मानना था कि भारत की बजाय चीन अधिक unpredictable है क्योंकि बरसों वहां रहने के बाद भी पश्चिमी कंपनियां खुद कुछ कमा नहीं पाई हैं बल्कि अपनी know how खो बैठी हैं।