रविवार, 6 नवंबर 2011
सटुट्टगार्ट में दीपावली कार्यक्रम 2010
शनिवार, 5 नवंबर 2011
म्युनिक का दीपावली कार्यक्रम 2010
रविवार, 1 मई 2011
टैगोर परिवार पर बनेगा वृत्तचित्र
Nils Visé इस फिल्म में इस परिवार की कई बातों को उभारना चाहते हैं, जैसे द्वारकानाथ टैगोर पहले भारतीय थे जो यूरोप में आए। इंगलैण्ड के शाही परिवारों में उनका उठना बैठना था। वे यूरोप भी खुद अपने जहाज़ में आते थे। एक बार राजा राम मोहन राय के साथ आकर उन्होंने यूरोप में ब्रह्मा समाज की स्थापना की। उनके बेटे देवेन्द्रनाथ टैगोर यानि रवीन्द्रनाथ टैगोर के पिता ब्रह्मा समाज के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। ब्रह्मा समाज ब्राह्मणों का एक धार्मिक और उदार समूह था। यह पूरी दुनिया में विख्यात हुआ। कलकत्ता के उत्तर में शान्तिनिकेतन नामक गांव में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने विश्व प्रसिद्ध भारती विश्वविद्यालय की स्थापना की। इस विश्वविद्यालय का उद्देश्य उदारता के साथ, बिना भेदभाव से सभी को लोकतान्त्रिक रूप से शिक्षा उपलब्ध करवाना था। 1913 में रवीन्द्रनाथ टैगोर को अपनी कृति 'गीताञ्जली' के लिए नोबल पुरस्कार मिला। वे पहले गैर यूरोपीय थे जिन्हें नोबल पुरस्कार मिला। पर असल में यह बंगालियों के मन में स्वतन्त्रता की लड़ाई को ठण्डा करने के लिए किया गया था। पर इसके द्वारा वे दूसरे नोबल पुरस्कार विजेता Albert Einstein के सम्पर्क में आए। वे कई बार बर्लिन आए और Einstein से मिले। यहां से भारत और जर्मनी के बीच intellectual और cultural योगदान शुरू हुआ। उस समय जर्मनी का माहौल बहुत बिगड़ा हुआ था। लोग बहुत डरे हुए थे और depressed थे। रवीन्द्रनाथ टैगोर की लम्बी दाढ़ी, उनकी गर्माहट भरी आवाज़, उनका सुकून, प्रकृति और धर्म के बारे में उनकी बातें यहां के लोगों को भाईं। दूसरी ओर Einstein हमेशा physics की बातें करते थे। इन दिनों भारत का तो यहां trend था। भारत के बारे में बहुत से नाटक खेले जाते थे। पर नाज़ियों के आने से सभी भारतीयों को जाना पड़ा। पहले पहले तो नाज़ियों को गर्व था कि भारतीयों और जर्मनों का मूल एक है। पर फिर उन्होंने देखा कि भारतीय काफ़ी अलग दिखते हैं। रवीन्द्रनाथ टैगोर का नाम भी यहूदियों के पादरी 'रब्बी' से मिलता जुलता था। इसलिए उन्होंने भारतीयों को खदेड़ दिया। उस समय बहुत भारतीय थे यहां। बहुत से भारतीय छात्र इंगलैण्ड पढ़ने जाते थे। इंगलैण्ड ने जर्मनी को भारत में व्यापार करने से रोक रखा था। इसलिए जर्मनी ने भारतीय छात्रों को यहां बुलाना शुरू कर दिया। भारतीय छात्र भी ब्रिटिश उत्पादों और सेवाओं का boycott के लिए जर्मनी को prefer करने लगे। धीरे धीरे जर्मनी भारतीयों, खास कर बंगालियों के लिए भारत से बाहर स्वतन्त्रता संग्राम का मुख्य केन्द्र बन गया। बर्लिन में उन्होंने national committee of indians की स्थापना की। 1957 में रवीन्द्रनाथ टैगोर की कृति पर आधारित प्राण अभीनीत Bombay Talkies की फिल्म 'काबुलीवाला' पहली भारतीय फिल्म थी जो Berlinale में दिखाई गई। उसे Silver Bear मिला था।
रवीन्द्रनाथ टैगोर के एक वंशज बर्लिन में 40 साल से रह रहे हैं। उनकी आयु लगभग 65 वर्ष है। उनकी दो बेटियां जर्मनी में ही पैदा हुई और बड़ी हुई हैं। वे अपने पारिवारिक इतिहास के बारे में लगभग कुछ नहीं जानतीं। कहा जाता है कि द्वारकानाथ टैगोर का इंगलैण्ड की queen victoria के साथ भी सम्बन्ध रहा है।
Nils Visé 16 साल से फीचर फिल्में और commercials बना रहे हैं। कुछ सालों से उनका सम्बन्ध भारत के साथ काफ़ी बढ़ गया है। 2003 में एक भारतीय फिल्म निर्माता ने जर्मनी में किसी फिल्म की शूटिंग के लिए उन्हें सम्पर्क किया। वह शूटिंग तो नहीं हो पाई पर जर्मन फिल्म निर्माताओं में यह बात फैल गई कि उनका किसी भारतीय फिल्म निर्माता के साथ ताल्लुक है। 2004 में उन्होंने मुम्बई में अपना कार्यालय खोल लिया। 2009 में उन्होंने अपनी कम्पनी को private limited के रूप पञ्जीकृत करवा लिया। उनका फकीर चन्द मेहरा की भारतीय लोकप्रिय फिल्म निर्माण कम्पनी eagle films के साथ गठजोड़ है। उन्होंने Pro7 के लिए मुम्बई में एक फिल्म बनाई। Volkswagen के लिए भारत में कई projects कर चुके हैं। जैसे corporate videos, photo shootings, commercials, press conferences के लिए audio video presentations आदि। Volkswagen कम्पनी भारत में सबसे बड़े investors में से एक है। 2007 में पुणे में plant लगाने के बाद वह 2008 में Jetta कार launch कर चुकी है। अब वह Audi और Skoda के साथ कई और जर्मन कारें भारत में launch करने जा रही है।
http://www.advise-film.com/
सोमवार, 21 फ़रवरी 2011
मोटरसाइकलों पर आधारित व्यापार मेला
18 से 20 फरवरी तक म्युनिक में मोटरसाइकल कारोबार पर आधारित बवेरिया के सबसे बड़े व्यापार मेले का आयोजन हुआ जिसमें 19 देशों की पौने तीन सौ कम्पनियों ने भाग लिया। इसमें भारी भरकम, 1000cc से ऊपर से मोटरसाइकलों से लेकर हलके मोटरसाइकल, स्कूटर, तीन पहियों वाले trikes, चार पहियों वाले quads, उपयुक्त कपड़े हेल्मेट, तकनीक, tuning, और टूर आदि आयोजित करने वाली कम्पनियों ने अपने उत्पाद और सेवाएं प्रस्तुत कीं। जर्मनी में ठण्ड के बावजूद मोटरसाइकलों के शौकीनों की कमी नहीं। यहां या तो रेस के लिए मोटरसाइकल चलाए जाते हैं या फिर लम्बी यात्राओं के लिए। इसलिए ये आमतौर पर 1000cc से बड़े ही होते हैं। खासकर लम्बी यात्राओं के लिए अमरीका के भारी भरकम Harley-Davidson मोटरसाइकलों का यहां बहुत craze है। ठीक वैसे ही जैसे अमरीका में जर्मनी की BMW कारों का craze है। बहुत सारी कम्पनियां इन मोटरसाइकलों को किराए पर देकर यूरोप के, अमरीका के या पूरी दुनिया के हज़ारों किलोमीटरों के टूर लगवाती हैं। सबसे लोकप्रिय है अमरीका का Route 66.
http://www.imot.de/
बुधवार, 16 फ़रवरी 2011
हिन्दी पुस्तक का जर्मन में अनुवाद
Book reading of German translation published by Draupadi Publications of a Hindi book by indian author Uday Prakash, in Munich.
दस नवंबर को म्युनिक के 'Eine Welt Haus' में हिन्दी लेखक 'उदय प्रकाश' की हिन्दी पुस्तक '.... और अन्त में प्रार्थना' के जर्मन रूपान्तर 'Doktor Wakankar. Aus dem Leben eines aufrechten Hindus' का एक विशेष सभा में परिचय दिया गया। इस सभा में दो मॉडरेटरों द्वारा जर्मन अनूदित पुस्तक में से कुछ अंश पढ़कर श्रोताओं को सुनाए गए और साथ ही मूल लेखक 'उदय प्रकाश' ने पुस्तक और विषय सम्बंधी जानकारी दी। मॉडरेटरों, लेखक और श्रोताओं के आपसी संवाद की सुविधा के लिए एक जर्मन-अंग्रेज़ी अनुवादक भी उपस्थित थीं। मूल हिन्दी पुस्तक भारत में 'वाणी प्रकाशन, दिल्ली' द्वारा प्रकाशित की गई थी। और जर्मनी में इसे 'द्रौपदी प्रकाशन' (Draupadi Verlag) ने प्रकाशित किया है। वहां जर्मन अनूदित पुस्तकें बिक्री के लिए भी उपलब्ध थीं।
मॉडरेटर Renate Börger ने श्रोताओं का स्वागत किया और लेखक 'श्री उदय प्रकाश' पुस्तक का परिचय देते हुए कहा कि 1952 में जन्मे उदय प्रकाश की पुस्तक में हिन्दू राष्ट्रवाद और एक डॉक्टर के पेशे के बीच झूलते हुए 'डा. दिनेश मनोहर वाकणकर' की कहानी है। उन्होंने कहा कि वे कुल बीस पच्चीस मिनट के समय में पुस्तक में चुने गए पांच अध्यायों में से कुछ अंश पढ़ेंगी। हर पठन के बाद पोडियम पर उनके साथ बैठे उदय प्रकाश जी से प्रश्नोत्तर भी किया जाएगा। फिर उन्होंने उदय प्रकाश जी को मूल हिन्दी पुस्तक में से कुछ पंक्तियां पढ़कर सुनाने का अनुरोध किया ताकि श्रोताओं को मूल भाषा का थोड़ा आभास हो सके। उदय प्रकाश जी ने उपन्यास की कुछ आरम्भिक पंक्तियां पढ़ीं।
पुस्तक के बारे में बताते हुए 'उदय प्रकाश जी' ने कहा कि 48 वर्ष की आयु के 'डा. वाकणकर' चमड़ी के रोगों के डाक्टर होने के साथ साथ 'राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ' के सक्रिय सदस्य भी हैं। 1990 में लिखी यह कोई काल्पनिक कहानी नहीं बल्कि सच्ची कहानी है (हालांकि हिन्दी पुस्तक पर लिखा हुआ है कि सभी पात्र काल्पनिक हैं)। एक दंगे में पुलिस की गोली द्वारा एक मुस्लिम युवक मारा जाता है। वहां के न्याय मन्त्री, जो सीमेंट के व्यापारी भी हैं, उन्हें झूठी शव परीक्षा रिपोर्ट बनाने को कहते हैं, जिसमें मृत्यु का कारण गोली नहीं बल्कि पत्थर-बाज़ी बताया जाए। उस समय मैं दिल्ली में एक हिन्दी समाचार पत्र में बतौर पत्रकार काम करता था। समाचार पत्र ने कई बार मेरी सच्ची रिपोर्टें छापने से मना किया जिसके कारण मैं नौकरी छोड़ कर मध्यप्रदेश लौट आया। वहां मेरी मुलाकात डा. वाकणकर से हुई। उस घटना के बाद उनकी दिमागी हालत ठीक नहीं थी। मैं उन्हें दिल्ली लाया। वे 'राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ' को एक सांस्कृतिक संगठन समझते थे पर यह एक राजनैतिक संगठन सिद्ध हुआ। हमने कई प्रेस कॉन्फ़्रेंस आयोजित करके इस मुद्दे को उजागर करने का प्रयत्न किया।'
इस पर Renate Börger ने पूछाः भारत में 'राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ' की बीस हज़ार से अधिक शाखाएं हैं। आप हिन्दू राष्ट्रीय आन्दोलन की व्याख्या कैसे करेंगे? उदय प्रकाश जी ने उत्तर दिया कि भारतीय जनसांख्यिकी में दलित भी हैं। भारतीय संविधान के निर्माता डा. अंबेडकर ने कहा था कि दलित हिन्दू नहीं हैं। वे अलग हैं। उन्होंने दलितों से आह्वान किया था कि हिन्दू धर्म में उन्हें मुक्ति नहीं मिलेगी इसलिए वे बौद्ध धर्म अपनाएं। 1996 में भारत में एक सर्वेक्षण से पता चला कि भारत में केवल अधिक जाने वाले केवल चार पांच समूह नहीं (जैसे हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई आदि) बल्कि दो हज़ार पच्चीस समूह हैं। यहां चौबीस नहीं बल्कि दो सौ भाषाएं हैं। इतनी सारी जातियों में किसी तरह का राजनैतिक एकीकरण सम्भव नहीं। लेकिन मीडिया लोगों को एक कृत्रिम पहचान देने का प्रयत्न करता है। यह पुस्तक बाबरी मस्जिद विध्वंस से भी पहले लिखी गई थी। इसमें गुजरात दंगों, ईसाई मिशनरियों पर हिंसक आक्रमण आदि के द्वारा तनाव पैदा करने का उल्लेख किया गया है। पर पिछड़ी जातियां अब अपनी पहचान दर्ज करवा रही हैं। पिछले दो चुनावों में यह देखने को मिला है। इस पार्टी को हार का मुंह देखना पड़ा है। अगर भविष्य में भी वे हारते हैं तो भविष्य बेहतर होगा।'
साथ ही उदय प्रकाश ने नब्बे के दशक में आरम्भ हुई वैश्वीकरण की लहर का अपने गांव पर पड़ते असर का उल्लेख करते हुए कहां 'एक कागज़ बनाने वाली फ़ैक्टरी ने मेरे गांव की कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण कर लिया। वहां महुआ के पेड़ों, जड़ी बूटियों की बजाय तेज़ी से बढ़ने वाले नील-गिरी के पेड़ (eucalyptus) की बड़ी मात्रा में खेती होने लगी। इन पेड़ों की शाखाएं नहीं होतीं और ये बहुत पानी चूसते हैं जिससे पानी का स्तर गिरता जाता है। इस वजह से और पानी के लिए और गहरी खुदाई करनी पड़ती है। अब तो बरसात का मौसम भी अता पता नहीं। मेरा घर दरिया के किनारे था। वह दरिया अब सूख चुका है। एक सर्वेक्षण के अनुसार स्वतन्त्रता के समय 1947 में भारत में 48% भूमि पर जंगल थे। अब केवल 12% भूमि पर जंगल हैं। ये आंकड़े भी भ्रामक हैं। पूर्वी और पश्चिमी भारत तो पर्याप्त बरसात के कारण बच गया। पर कुछ अन्य क्षेत्रों में से तो जंगल पूरी तरह ग़ायब हो चुके हैं। आदिवासी इसकी सबसे बड़ी कीमत चुकाते हैं। वे सदियों से जंगलों में रहते आए हैं। बॉक्साइट, लौह, कोयले आदि प्राकृतिक संसाधनों के लिए उन्हें बेघर कर दिया जाता है। ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों की तरह उनमें मृत्यु दर, जन्म दर से भी अधिक है। अब तक अस्सी लाख आदि-वासियों का सफ़ाया हो चुका है। भारत की अभी भी 11% जनसंख्या आदि-वासियों की है। यह गिनती इटली, इंगलैण्ड और फ़्रांस की कुल आबादी से भी अधिक है।'
श्रोताओं में से किसी ने पूछा 'दलितों और पिछड़ी जातियों ने कट्टरपन्थ के विरुद्ध लड़ाई में क्या भूमिका निभाई है?' उदय प्रकाश जी ने उत्तर दिया 'उत्तर प्रदेश सबसे अधिक आबादी वाला प्रान्त है। वहां अब मायावती द्वारा दलितों की सरकार चल रही है। वे जातिवाद के विरुद्ध लड़ रहे हैं। अरुंधति राय आदि-वासियों के लिए लड़ रही है। लेकिन जातिवाद को सही मायनों में समाप्त करने के लिए बहुत गहन चिन्तन की ज़रूरत है। लेकिन मैं कोई नेता नहीं बल्कि लेखक हूं। मेरे अगले उपन्यास में एक लड़की और एक छोटी जाति के लड़के की प्रेम कहानी है। मुझे डर लगता है कि जिस तरह से भारत में तरह तरह भेदभावों के द्वारा अपने हित साधे जाते हैं, उससे स्थित बहुत विस्फोटक बन सकती है। महात्मा गांधी जी सत्ता के विकेन्द्रीकरण की बात करते थे। पर ऐसा नहीं हुआ। पर वहीं पर भारत की अनेकता और विविधता के कारण लोकतन्त्र अभी भी शक्तिशाली है। केवल दस वर्ष पहले ही सोनिया गांधी का उसके विदेशी मूल को लेकर कितना विरोध हुआ। लेकिन अब वे प्रधान मन्त्री तक बन सकती हैं।'
एक श्रोता ने पूछा 'भारतीय राजनैतिक पटल पर भारतीय युवा लोगों की क्या भूमिका है?' उदय प्रकाश जी ने कहा 'भारत में 77% जनसंख्या देहात में रहती है। बर्लिन में भी इसी विषय को दर्शाती एक प्रदर्शनी चल रही है जिसका शीर्षक है 'what makes india urban'. लगभग 28.5 करोड़ युवा लोग शहरों में रहते हैं। यह विश्व का चौथा सबसे बड़ा उपभोक्ता बाजार है। भारत में दो तरह की युवा पीढ़ियां हैं। 15-20% साधन संपन्न लोग हैं। बाकी लोग ऐसे हैं जो हर सुविधा और शिक्षा से वंचित हैं। वे विकल्प के रूप में हथियार उठाते हें। नक्सली आन्दोलन इसी का परिणाम है। भारतीय मध्य वर्ग, खास तौर पर तकनीकी प्रगति के बाद उपजे मध्य वर्ग के मन में 77% जनसंख्या वाले वंचित और गरीब लोगों के लिए कोई सहानुभूति नहीं है। यह गरीब लोग एक डॉलर से भी कम दैनिक आय में गुज़र बसर करती है। दुनिया का मलेरिया से मरने वाला हर तीसरा व्यक्ति भारतीय है। विश्व के 1.6 करोड़ कुष्ठरोगियों में से 1.2 करोड़ भारतीय हैं। पवन कुमार वर्मा की पुस्तक 'Great Indian Middle Class' (हिन्दी में 'भारत के मध्य वर्ग की अजीब दास्तान') इसी सच्चाई को दर्शाती है। 'अन्तरराष्ट्रीय पारदर्शिता संस्था' (Transparency International) ने पारदर्शिता के पैमाने पर भारत को विश्व में 163वां स्थान दिया है। इसी से भारत में भ्रष्टाचार का अन्दाज़ा लग जाता है।'
एक अन्य श्रोता ने पूछा 'भारतीय युवा वर्ग का राजनीति के प्रति क्या रवैया है? राजनीति में उनका झुकाव और भागीदारी कितनी है?' उदय प्रकाश जी ने कहा 'अभी भी स्वर्ण वर्ग के हिन्दू सत्ता में हैं। यहां पर 1968 में यूरोप के छात्रों द्वारा किए गए आन्दोलन जैसा कोई आन्दोलन नहीं है। थोड़ा बहुत जो युवा आन्दोलन हुआ, वह 1977 में आपात-काल के दौरान जयप्रकाश नारायण के प्रतिनिधित्व में हुआ। भारत में दो तरह का युवा वर्ग है। एक ओर वैश्वीकरण का फायदा उठाता हुआ, अच्छे वेतन पाता हुआ युवा वर्ग है। राजनीति में उसकी रुचि नहीं है। दूसरा गरीब युवा वर्ग जिसमें बेरोज़गारी व्यापक है। इस युवा वर्ग के पास हथियार उठाने के सिवा कोई विकल्प नहीं बचता। ये दो समानान्तर पीढ़ियां आपस में किसी दिन टकरा सकती हैं, जिसके बारे में सोच कर ही मैं डर जाता हूं। भारत में 60-70 करोड़ लोग हिन्दी बोलते हैं। इसलिए मैं अपने प्रकाशक का बहुत धन्यवादी हूं जिन्होंने मेरी आवाज़ को जन जन तक पहुंचाया। मैं अपने जर्मन प्रकाशकों का भी बहुत आभारी हूं, जिन्होंने वैश्वीकरण की चमक दमक में भी भारत के एक अंधियारे कोने निकलती हुई इस आवाज़ को सुनने की हिम्मत की है। यह आवाज़ बड़ी बड़ी बातें करती किसी अन्तरराष्ट्रीय कंपनी की नहीं बल्कि एक आम आदमी की है।
अधिकतर श्रोताओं का मानना था कि कार्यक्रम बहुत ही रोचक था। लेखक ने बड़ी हिम्मत, सच्चाई और ईमानदारी के साथ अनके बातें बताईं। श्रोताओं में से Christine कहती हैं कि लगता है कि अनुवादक ने भारतीय सन्दर्भ में पहले से तैयारी नहीं की थी। बहुत से भारतीय शब्द जैसे ब्राह्मण, क्षत्रीय, किसान, आदिवासी, दलित आदि उसने वैसे के वैसे ही उपयोग किए। इन महत्वपूर्ण शब्दों का भी जर्मन भाषा में अनुवाद किया जाना चाहिए था, क्योंकि इन्हें ठीक तरह समझे बिना श्रोताओं की समझ आधी अधूरी रह गई होगी। श्रोताओं में से Ingrid ने पुस्तक खरीदी और उदय प्रकाश जी से ऑटोग्राफ लिया।
फ़िल्म 'वीर' म्युनिक में प्रदर्शित
Salman's latest film 'Veer' is on german tour. First show in Munich witnessed half filled hall with sufficiently satisfied filmgoers. Most watchers find it to be entertaining and a clean film.
ਸਲਮਾਨ ਦੀਆਂ ਫਿਲਮਾਂ ਆਮ ਪੰਜਾਬੀ ਲੋਕਾਂ ਲਈ ਕਾਫੀ ਮਨੋਰੰਜਕ ਹੁੰਦੀਆਂ ਹਨ. ਪਿਛਲੀ ਫਿਲਮ 'ਵੀਰ' ਵੀ ਕੁੱਝ ਇਸ ਤਰਾਂ ਦੀ ਸੀ.
सलमान खान की नयी फ़िल्म 'वीर' का पहला शो म्युनिक के Neue Rottmann नामक एक सिनेमाघर में 21 जनवरी को आयोजित हुआ। लेकिन फ़िल्म को देखने उम्मीद से बहुत कम लोग आये। शो के निर्धारित समय तक बहुत कम लोग आये थे। इस लिये फ़िल्म देर से शुरू की गई। तब लगभग आधा हॉल भर गया था। फ़िल्म देखने वालों में कुछ पंजाबी लड़के थे, कुछ जर्मन लोग थे, बाकी पाकिस्तान, अफ़्गानिस्तान आदि के कुछ परिवार थे। अधिकतर देसी लोगों को फ़िल्म ठीकठाक, साफ़ सुथरी, मनोरंजक और परिवार के साथ बैठकर देखने लायक लगी। फ़िल्म की कहानी और सन्देश किसी को कितना प्रभावित या प्रेरित कर पाये, यह कहना मुश्किल है। फ़िल्म के वितरक अशरफ़ क्षुब्ध हैं। कहते हैं म्युनिक में एक तो भारतीय लोग कम हैं, ऊपर से उन्हें फ़िल्म देखने का कोई चाव नहीं है। यही शाहरुख खान की फ़िल्म होती तो बाहर खड़े होने को भी जगह नहीं मिलती। लेकिन बड़ी फ़िल्में उन्हें मिल नहीं पातीं। अब शाहरुख की नयी फ़िल्म 'My Name is Khan' को लोग पूछ रहे हैं। लेकिन यह फ़िल्म भी किसी जर्मन वितरक कंपनी के पास है। लोग कहते हैं कि Cinemaxx या Mathäser जैसे किसी अच्छे सिनेमाघर में फ़िल्म लगाओ, तब देखने आयेंगे, लेकिन उनके किराये बहुत मंहगे हैं। इस हॉल में भी कोई खराबी नहीं है। साउण्ड, स्क्रीन, सीटें आदि सब कुछ ठीक ठाक है।
फ़िल्म में अपने देश और संस्कृति में विश्वास जगाने का प्रयत्न किया गया है। लेकिन ब्रिटिशों के विरुद्ध अत्यधिक रोष, और कई सारे भावुक सीन फ़िल्म को कई जगह पर, खास कर अन्त में बिना वजह बहुत लंबा और बोझिल बना देते हैं। गाने बहुत अच्छे हैं। एडिटिंग बहुत ही नपी तुली है।
http://www.erosentertainment.com/
http://veerblogs.erosentertainment.com/
http://veer.erosentertainment.com/
रविवार, 13 फ़रवरी 2011
म्युनिक मन्दिर में सरस्वती पूजा 2011
शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011
पौने पांच सौ साल बाद मिला डूबा हुआ जहाज़
मसालों के व्यापार पर प्रदर्शनी
http://www.gewuerze-ausstellung.de/
शनिवार, 5 फ़रवरी 2011
ਬਰਸੀ ਤੇ ਵਿਸੇਸ ਸਮਾਗਮ ਕਰਾਇਆ ਗਿਆ
गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011
जर्मन लोग सीख रहे हैं हिन्दी
म्युनिक के Münchner Volkshochschule में इस समय विश्व की करीब 50 भाषायें सिखायी जाती हैं जिनमें हिन्दी भी एक है। यहां हर समेस्टर में हिन्दी के अलग अलग स्तर के छह कोर्स चलते हैं जिनमें भारतीय मूल के श्री गुन्तुरू वानामली लोगों को हिन्दी पढ़ाते हैं। करीब चौबीस घंटे के हर कोर्स में दस छात्र पढ़ते हैं। अधिकतर लोग भारतीय भाषा और संस्कृति के बारे कुछ जानने की इच्छा से हिन्दी सीखते हैं।छात्रा Sabine Bräu कहती हैं कि उनका ब्वॉयफ़्रेण्ड एक भारतीय है। इसलिये वे थोड़ी हिन्दी सीखना चाहती हैं। लेकिन उन्हें ध्वनियों में अन्तर सुनने में बहुत दिक्कत आती है जैसे क और ख में अन्तर, ट और ठ में अन्तर, त और थ में अन्तर आदि। हिन्दी पढ़ना उन्हें सुनने से अधिक आसान लगता है। उल्टे छात्रा Marcella Moschini को हिन्दी पढ़ना मुश्किल लगता है और सुनना आसान।
Münchner Volkshochschule में ऐसी भाषाओं के लिये अलग विभाग है जिन्हें सीखने की मांग रोमन भाषाओं की अपेक्षा कम है। बसेरा की इस विभाग की मुख्य अध्यक्षिका Anna Rief (Fachgebietsleiterin, Seltener gelernte Sprachen) के साथ हुयी खास बातचीत में उन्होंने खुलासा किया कि सबसे अधिक सीखे जाने वाली भाषायें रोमन भाषायें हैं जैसे अंग्रेज़ी, फ़्रैंच, स्पेनिश, इटालियन, पुर्तगाली आदि। उसके बाद करीब 38 दूसरी भाषायें 'कम सीखे जाने वाली भाषाओं' (Seltener gelernte Sprachen) की श्रेणी में आती हैं जैसे अरबी, चीनी, हिन्दी आदि। अरबी और चीनी भाषा सीखने की मांग तो दरअसल इतनी है कि इन्हें 'कम सीखे जाने वाली भाषाओं' की श्रेणी में शामिल करना उचित नहीं है। इनकी तुल्ना में हिन्दी की स्थिति कमज़ोर ज़रूर है लेकिन इतनी बुरी नहीं है। भारत में पर्यटन करने के बहुत सारे इच्छुक लोग जाने से पहले थोड़ी भाषा सीख लेना चाहते हैं। बॉलवुड फ़िल्मों ने भी जर्मन लोगों में हिन्दी में रुची जगायी है। बहुत से लोग केवल भारतीय संस्कृति में रुची की वजह से हिन्दी सीखना चाहते हैं। हालांकि भाषा और लिपि, दोनों सीखना उन्हें थोड़ा भारी पड़ता है। अन्य भारतीय भाषायें सीखने की मांग लगभग न के बराबर है। श्री गुन्तुरू वानामली ने एक बार तेलगू सिखाने का भी प्रस्ताव रखा था लेकिन केवल दो तीन लोगों ने इसे सीखने के लिये फ़ोन किया। कोई भी कोर्स तभी चलाया जाता है जब उस भाषा को सीखने वाले लोगों की गिनती आठ अथवा उससे अधिक हो। इसलिये उनके लिये तो भारत की भाषा हिन्दी ही है जिसे अधिकतर भारतीय समझ लेते हैं।
Münchner Volkshochschule म्युनिक में स्थित एक संस्था है जो विभिन्न विषयों में अल्पकालिक प्रशिक्षण और सेमिनार आयोजित करती है, जैसे सेहत, कला, भाषायें, राजनिति, बिजनेस, कंप्यूटर आदि। यहां हर समैस्टर में कुल मिलाकर लगभग 7000 कोर्स, सेमिनार एवं टूर इत्यादि आयोजित किये जाते हैं। करीब एक लाख सत्तर हज़ार लोग हर वर्ष इनमें भाग लेते हैं। Anna Rief कहती हैं कि ये संस्था इस तरह की युरोप में सबसे बड़ी संस्था है। इसका कारण ये भी है कि म्युनिक में लोगों के पास पैसा है, काम है, और वे कुछ अतिरिक्त करने या सीखने के लिये पैसा निकाल सकते हैं।
http://www.mvhs.de/
http://www.gunturu.de/
गुरुवार, 27 जनवरी 2011
गणतन्त्र दिवस
http://presidentofindia.nic.in/