गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

कानी हिरनी

प्रेमचन्द ‘महेश’
एक हिरनी थी। वह बड़ी सुन्दर और सुडौल थी। जब वह भागती तो बहुत सुन्दर चौकड़ी भरती थी। सारे जंगल के हिरन उस पर लट्टू थे। उसकी खूबसूरत खाल को पाने के लिए कई शिकारी भी ताक में लगे रहते थे। इतना सब होते हुए भी वह बाईं आँख से कानी थी। यही उसके लिए एक परेशानी थी। बाईं आँख से न दिखने के कारण बाईं ओर से लगे अनेक बार शिकारियों के निशाने से वह बाल-बाल बची थी।
अब कई दिन से एक शिकारी हाथ धोकर उसके पीछे पड़ गया था। वह उस शिकारी के भय के मारे अब अपनी झाड़ी में ही लुकी बैठी रहती थी। पर आखिर ऐसे कब तक बैठती? ऐसे लुककर बैठने से उसका काम थोड़े ही चलने वाला था। उसे अपने खाने का भी प्रबन्ध करना था। अपने साथियों से भी तो मिलना-जुलना था। तो यह सब घर बैठे थोड़ा ही हो सकता था! अतः घर बैठने में उसे अब बहुत कठिनाइयाँ मालूम पड़ने लगीं। इन कठिनाइयों से छुटकारा पाने के लिए अनेक बातें उसने सोचीं। आखिरकार एक बात उसके मन भाई। वह यह थी कि जंगल को छोड़ दिया जाए। नदी या समुद्र के किनारे ऐसे स्थान पर रहा जाए जो सुरक्षित हो और जहाँ उसकी बाईं आँख की ओर पानी रहे। वह बेचारी यही सोच सकी कि पानी के रास्ते कोई शिकारी उस पर हमला क्या करेगा? अन्त में यह सब बातें सोचकर उसने एक समुद्र के किनारे बसने का निश्चय कर लिया।
समुद्र के किनारे आकर वह कानी हिरनी बहुत प्रसन्न थी। यहाँ आकर अपनी बाईं आँख को समुद्र के किनारे की ओर और दाईं आँख को भूमि की ओर रखकर वह खूब चौकड़ी भरती फिरती। उसे अब यहाँ आने से जीवन का कोई खतरा तो रह ही नहीं गया था। समुद्र की ठंडी और प्यारी हवा अब उसे जंगल के वातावरण से कहीं अधिक पसन्द थी। इस प्रकार उसे समुद्र के किनारे रहते-रहते कई मास बीत गए। इस बीच उसे किसी भी शिकारी ने परेशान नहीं किया।
एक दिन कानी हिरनी समुद्र के किनारे घूम रही थी। समुद्र में बहुत दूर पर एक नाव में चार शिकारी बैठे जा रहे थे। उनमें से एक शिकारी ने इस सुन्दर हिरनी को देखा। हिरनी की सुन्दर खाल पाने के लिए शिकारी का मन ललचा उठा। उसने अपनी नाव से ही बेचारी कानी को निशाना बनाकर तीर छोड़ा। बाईं आँख कानी होने केे कारण हिरनी को भला यह सब कैसे मालूम पड़ता! वह तो मस्ती से समुद्र के किनारे घूम रही थी। इसी बीच शिकारी का छोड़ा तीर उसके पेट में आकर लगा। तीर लगते ही हिरनी मूर्च्छित हो धड़ाम से भूमि पर गिर पड़ी। कुछ देर बाद जब उसकी मूर्च्छा दूर हुई तो वह बोली - ‘‘आह! इस दुनिया में मैं भी कैसी अभागी रही! शिकारी से बचने के लिए मैं जंगल से भागी। इस समुद्र के किनारे आई। यहाँ आकर अपने को सुरक्षित समझने लगी। अब आज यही समुद्र का किनारा मेरे लिए मौत का कारण बना।’’ और यह सब कहते-कहते उसके प्राण-पखेरू उड़ गए। यह सच है कि मनुष्य कठिनाइयों से बचने की लाख कोशिश करे, पर वे आकर ही रहती हैं।