सोमवार, 13 अप्रैल 2009

स्लमडॉग में भारत को नीचा

ऑस्कर पुरस्कृत फ़िल्म स्लमडॉग मिलिनेयर ने बेशक भारतीय दर्शकों को विचलित कर दिया है। बहुत से विदेशी भी इस मुद्दे पर भारतीयों के साथ सहानुभूति रखते हैं। ऐसी ही एक महिला हैं Monika Ratering, जो पेशे से पेंटर हैं (http://ratering-art.com/) और वर्षों से नियमित तौर पर भारत का दौरा कर ही हैं। हाल ही में भारतीय दूतावास बर्लिन में भारत पर आधारित उनके चित्रों की एक प्रदर्शनी समाप्त हुई है '16000 Princesses Marry God'. वे 'स्लमडॉग मिलिनेयर' में दिखाई गई भारत की छवि से असहमति जताती हुई पूछती हैं कि क्या भारत में स्लम में रहने वाले लोगों को स्लमडॉग कहा जाता है? नहीं। क्या वहां बारह तेरह वर्ष के बच्चे पिस्तौल लेकर घूमते हैं, अपराधी हैं? नहीं। पश्चिम भारत को नीची नज़र से देखना चाहता है, और वही उस फ़िल्म में दिखाया गया है। ये फिल्म मूल पुस्तक से बहुत अलग है। मैं भारतीयों के गुस्से को समझ सकती हूँ। पश्चिमी फ़िल्मों की अपेक्षा भारतीय फिल्में कितनी अच्छी होती हैं। यहां हम भारतीय फिल्मों पर लोग हंसते हैं कि वे बेवजह नाचने गाने लगते हैं। लेकिन शायद यही भारतीय लोगों के शांतिप्रिय होने का कारण है। जबकि बहुत सी पश्चिमी फिल्मों का आधार डर होता है। उनमें पहले डर पैदा किया जाता है। फिर अंत में बुरे व्यक्ति को मार कर चैन की सांस ली जाती है। लेकिन हम भूल जाते हैं कि बुरे व्यक्ति को जान से मारना भी हिंसा है जिसे फिल्मों में महिमामंडित किया जाता है। जब हिंसा को इस तरह महिमामंडन मिलता है तो यही हमारे बच्चे और युवक ग्रहण करते हैं। फिर हम हैरान होते हैं कि फलां किशोर ने स्कूल में पंद्रह व्यक्तियों की गोली मारकर हत्या क्यों कर दी। (हाल ही में जर्मनी में हुई एक घटना का संदर्भ देकर जिसमें एक 17 वर्षीय छात्र ने स्कूल में नौ छात्रों, तीन अध्यापकों, और तीन अन्य व्यक्तियों की हत्या कर दी और फिर अंत में पुलिस मुठभेड़ में आत्महत्या कर ली)। 

Monika Ratering पिछले नौ वर्ष से हर वर्ष दो तीन महीने के लिए भारत जाती रही हैं। उनका कहना है 'भारतीयों का जर्मनी के ठंडे मौसम में लंबे समय तक न रह पाने की समस्या मैं समझ सकती हूँ। सर्दियों का मौसम यहां बहुत ठंडा, लंबा और अंधकार-पूर्ण होता है, जबकि भारत में ठंड में भी चमकते सूर्य की रौशनी मन में जोश पैदा करती है। इसी जलवायु का असर लोगों के स्वभाव पर भी पड़ता है। भारत के लोग खुले दिल के और हंसमुख हैं, खिलखिलाकर हंसते हैं जबकि यहां के लोगों का स्वभाव तुलना में ठंडा है। एक बार जब मैं भारत से वापस जर्मनी आई तो दो तीन सप्ताह तक रोती रही।

वहीं बर्लिन निवासी सुशीला शर्मा का कहना है 'फ़िल्म में सच दिखाया गया है। बच्चों को चोरी, अपराध करते हुए, पुलिस वालों को बच्चों को खदेड़ते हुए मैंने अपनी आँखों से देखा है। बच्चों को भीख मांगने के लिए अपंग बनाया जाता है। रेल में सामान बेचने वाले बच्चे और औरतों को कमाई में से कुछ भी नहीं मिलता है। उनके पीछे व्यापारी होते हैं। ये चीज़ें हम आम भारतीयों को चौंका सकती हैं पर हमें भूलना नहीं चाहिए कि हम हिंदुस्तानी हैं, हिंदुस्तान नहीं।' सुशीला शर्मा Tata Institute of Social Sciences से post graduate diploma प्राप्त हैं और मुंबई में बहुत सारा चिकित्सीय और मनोचिकित्सीय सामाजिक कार्य करती रही हैं।