भारत में घर-बार, ज़मीन जायदाद, ऐशो-आराम और मां के दुलार के साथ सामान्य जीवन व्यतीय करने वाले एक नवयुवक को जब अचानक दूर देश में अवैध रूप से जाकर जानलेवा संघर्ष करना पड़े और जीवन के अनजान पहलुओं से रूबरू होना पड़े है तो उसके दिल पर क्या बीतती होगी? यह परम दीप सिंह संधु से बेहतर कोई नहीं जानता जिन्होंने खुद जीवन की ऐसी सच्चाइयों का सामना किया है।
भारत में किसान पृष्ठभूमि के एक निम्न मध्यवर्गीय पंजाबी परिवार से परम दीप सिंह संधु ने सन 2000 में केवल अट्ठारह वर्ष की आयु में जर्मनी में संघर्ष कर रहे अपने पिता का साथ देने का निर्णय लिया और एक एजेंट द्वारा किसी तरह केवल पाँच दिन के वीज़ा पर फ़्रांस आए। वहां से भागकर वे जर्मनी के म्युनिक शहर में अपने पिता के पास आकर रहने लगे और पहचान छुपाने के लिए अपना पासपोर्ट किसी को दे दिया। उस समय उन्हें नहीं पता था कि आने वाला समय बहुत कठिन और खतरनाक संघर्ष वाला रहेगा जिसमें उन्हें खूब ज़िल्लत उठानी पड़ेगी, जानलेवा लड़ाइयों का सामना करना पड़ेगा और कड़कड़ाती सर्दी में बाहर चौदह घंटे निम्न स्तर का काम करना पड़ेगा।
पकड़े जाने के डर से वे हमेशा सावधान रहते और गुप्त रूप से छिटपुट काम करके दो पैसे कमाते। लेकिन अंत में एक साथी की ग़लती से वे पुलिस द्वारा पकड़ लिए गए। उनपर राजनैतिक शरण का केस बनाकर उन्हें पूरब जर्मनी के एक शरणार्थी शिविर (Flüchtlingslager) में भेज दिया गया जहां से उनका पासपोर्ट मिलते ही वापस भारत निर्वासित किया जाना था। पूरब जर्मनी का वह क्षेत्र अभी भी नाज़ियों का गढ़ है जो विदेशियों से नफ़रत और लगातार लड़ाई झगड़ा करते हैं, पैसे छीन लेते हैं। इस शिविर के दौरान उन्हें निर्धारित क्षेत्र के बाहर जाने की और पैसे कमाने के लिए दिन में दो घंटे से अधिक काम करने की अनुमति नहीं थी।
किसी तरह वे कुछ अन्य लोगों के साथ मिलकर सड़कों पर छोटा मोटा सामान बेचने लगे। दिन भर बाहर कड़कड़ाती ठंड में काम करके जब रात को वे सुनसान रास्ते से पहाड़ी के ऊपर बने शिविर की ओर लौटने लगते तो अक्सर झाड़ियों में छुपे नाज़ी उन्हें घेर लेते और पैसे व अन्य वस्तुएँ छीन लेते। ज़रा सा भी विरोध करने पर, यहां तक कि आँखों में घूरने पर भी वे हमला बोल देते। इसीलिए वे अक्सर हाथ में काँच बोतलें लिए लड़ाई के तैयार रहते हुए अपना रास्ता तय करते। लेकिन फिर भी उनकी कई बार खतरनाक लड़ाईयां हुईं। एक बार तो उनकी टाँग में लंबे चाकू का घाव लगा जिस पर पच्चीस टांके लगे। अक्सर वहां की पुलिस भी नाज़ियों का ही साथ देती। एक बार तो उन्हें लड़ाई के चक्कर में छह महीने के लिए जेल की अंधेरी कालकोठरी की हवा भी खानी पड़ी जहां दिन और रात में अंतर नहीं पता चलता था। जेल से बाहर आने पर भी काम को लेकर उन्हें खूब शोषण का शिकार होना पड़ा। दिन में चौदह घंटों तक घरों में विज्ञापन बाँटने पर भी रात को उन्हें केवल दस डी-मार्क मिलते (सन 2000-2001 में यूरो करंसी शुरू होने के समय एक डी-मार्क की कीमत केवल आधा यूरो थी)।
फिर धीरे धीरे समय ने करवट ली और उनका एक चालीस वर्षीय जर्मन औरत से संपर्क हुआ। उस औरत से उन्हें स्नेह मिला और उस कठिन समय में सबसे आवश्यक मदद, शादी का प्रस्ताव। जर्मनी में वैध रूप से रह पाने का यही एकमात्र उपाय था। उन्होंने डेनमार्क जाकर उस औरत के साथ जाकर शादी रच ली। डेनमार्क में अधिक पूछताछ किए बिना शादी संपन्न करवा दी जाती है। फिर भी उनका रास्ता इतना आसान न था। जर्मन अधिकारियों ने उन्हें बिना वैध वीज़ा दिए भारत निर्वासित करने का पुरजोर प्रयत्न किया पर वे वीज़ा लेने में सफ़ल हो गए और वापस पश्चिमी जर्मनी के म्युनिक शहर में आकर रहने लगे। काम के अनुभव के अभाव में उन्हें बहुत कम वेतन में निम्न दर्जे के काम करने पड़े जैसे रेस्त्रां में जूठे बर्तन और कूड़ा कर्कट साफ़ करना। आज नौ साल के कड़े संघर्ष के बाद वे सामान्य स्थिति में हैं। इस संघर्ष को वे व्यर्थ नहीं मानते। उनका मानना है कि घरवालों के सुरक्षित साए में रहते हुए मनुष्य जीवन के कई महत्वपूर्ण पहलुओं से अनजान रह जाता है जिनसे जीवन के सही मायने सीखने को मिलते हैं। अपनी पत्नी और सामान्य तौर पर जर्मन औरतों का वे विशेष धन्यवाद करते हैं जो कठिन समय में विदेशी युवकों की मदद करती हैं जब अपने भी साथ छोड़ चुके होते हैं। उनका मानना है कि जर्मन औरतें मर्दों की भौतिक उपलब्धियों पर नज़र नहीं रखतीं, वे उनसे केवल स्नेह चाहती हैं। लेकिन विदेशी लोग केवल वैध वीज़ा पाने के लिए उनका उपयोग करते हैं और काम होने के बाद जल्द से जल्द तलाक ले लेते हैं। बहुत बार तो वे बच्चा पैदा होने के बाद भी औरतों को छोड़ देते हैं। ऐसी अनगिनत घटनाओं ने भारतीय मर्दों की छवि को चोट पहुँचाई है।