गुरुवार, 18 नवंबर 2010

म्युनिक के संग्रहालय में टाटा नैनो कार

एक जगह से दूसरी जगह पर आसानी से जा सकने की ज़रूरत ने बड़े बड़े अविष्कारों जन्म दिया है। पहिए के बाद दूसरा सबसे बड़ा अविष्कार है इञ्जन का। भाप, पेट्रोल या डीज़ल से चलने वाले इञ्जनों ने पहले पहले केवल अमीर व्यक्तियों को ही गतिशीलता की सुविधा दी। पचास के दशक में जर्मनी में मर्सिडीज़ आदि मंहगी कारों के समक्ष आम लोगों के लिए एक Volkswagon Käfer जैसी गाड़ियां बाज़ार में लाई गईं। इन गाड़ियों ने न केवल जर्मन गाड़ी उद्योग को नई उंचाइयां दिलाई बल्कि समाज में एक बड़ा परिवर्तन किया जिससे लोगों का आपसी अन्तर बहुत कम हो गया। अब ऐसा सी बड़ा बदलाव भारत में होता नज़र आ रहा है विश्व की सबसे सस्ती कार टाटा नैनो के कारण। इसका प्रभाव जर्मनी पर भी इस कदर हुआ कि Deutsches Museum München के Verkehrszentrum ने नवम्बर 2010 में एक नई टाटा नैनो कार को अपने संग्रह में जगह दी। यह यूरोप का पहला संग्रहालय है जिसमें टाटा नैनो कार को प्रदर्शित किया गया है। संग्रहालय की एक सहायक संस्था ने इसके लिए धन का इन्तज़ाम किया। संग्रहालय के प्रेस वक्ता Bernhard Weidemann कहते हैं 'टाटा नैनो कार के कारण भारत जैसे विशाल देश में एक बड़ा सामाजिक बदलाव होने की सम्भावना है, इसलिए यह हमारे संग्रहालय के लिए भी महत्वपूर्ण है। यह विश्व केवल जर्मनों, चीनियों, अमरीकियों या भारतीयों का नहीं बल्कि हम सबका है। इसलिए इस पृथवी पर रह रहे सभी मनुष्यों को जहां तक हो सके समान सुविधाएं उपलब्ध होनी चाहिए। इस गाड़ी से पर्यावरण और भारत की अन्य आधारभूत संरचनाओं पर क्या प्रभाव पड़ेगा, यह तो समय ही बताएगा, पर इतनी सस्ती कार, जिसे निचले तबके वाले लोग भी खरीद सकें, निश्चित ही एक बड़ा कदम है।'चित्र में 18 नवम्बर 2010 को संग्रहालय में टाटा नैनो कार के उद्घाटन पर सहायक संस्था की निर्देशक मण्डल की अध्यक्ष Frau Isolde Wördehoff, टाटा मोटर्स के निर्देशक मण्डल के अध्यक्ष Carl-Peter Forster, संग्रहालय के निर्देशक Prof. Wolfgang M. Heckl, और भारतीय महाकोंसल अनूप मुदगल।

http://www.deutsches-museum.de/presse/presse-2010/tata-nano/

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

रेल के डिब्बों में घर

आरामदायक रेलों में यात्रा तो आपने की ही होगी। पर क्या आप हमेशा के लिए इन रेल के डिब्बों में रहना चाहेंगे? ऐसा कुछ मध्य जर्मनी में रह रहे फोटोग्राफर Marco Stepniak ने देखा था जब वे सत्रह वर्ष के थे। उनके कुछ दोस्त इकट्ठे एक रेल के डिब्बे में रह रहे थे। उन्हें तब बहुत मज़ा आया। उन्होंने इस तरह के जीवन को एक सपने के रूप में पाल लिया और अब उनका यह सपना पूरा हो गया। अपनी गर्लफ्रेण्ड Vanessa Stallbaum के साथ मिलकर उन्होंने बीस बीस हज़ार यूरो के दो पुरानी डाक वाले रेल के डिब्बे ख़रीद कर उनमें अपना घर सजाना शुरू कर दिया है। यही नहीं, डिब्बों को रखने के लिए 1660 वर्गमीटर ज़मीन खरीदने के लिए भी उन्हें 74 हज़ार यूरो देने पड़े। फिर डिब्बों को वहां तक लाने में ही चौबीस हज़ार यूरो खर्च हो गए। पहले पटरियां और रेल इंजन खास तौर पर किराए पर लेने पड़े। उसके बाद भारी ट्रकों और क्रेन द्वारा डिब्बों को वहां तक लाकर पहले से तैयार की गई पटरियों पर रखा गया। इसके बाद भी खर्चे कम नहीं हुए बल्कि बढ़ते चले गए। एक रेल के डिब्बे में पानी, बिजली का इन्तज़ाम, सर्दी से बचने के लिए, ठण्डी हवा को रोकने और डिब्बों को गर्म रखने का इन्तज़ाम कोई भी दस्तकार नहीं कर सकता था। सभी समस्याओं का हल उन्हें खुद निकालना पड़ा। दिसम्बर 2010 से उन्होंने अपने नए घर में रहना शुरू कर दिया है।
http://www.tagesspiegel.de/zeitung/endstation/3680004.html

रविवार, 14 नवंबर 2010

भारत संघ का दीपावली कार्यक्रम 2010

14 नवम्बर को फ्रैंकफर्ट में Bharat Verein ने Titus Forum में दीपावली के उपलक्ष्य में भव्य कार्यक्रम आयोजित करवाया जिसमें करीब नब्बे बड़े और छोटे कलाकरों ने अनेक तरह के नृत्य, नाटक और संगीत सहित 16 कार्यक्रम पेश किए। एक इण्डिनेशियन बच्चों के समूह ने रामायण की झांकियां प्रस्तुत कीं, कई कलाकारों ने भरतनाट्यम, कथक, Bollywood dance, गरबा, डाण्डिया और पॉप डांस आदि पेश किए। इसके अलावा तम्बोला खेला गया जिसमें कई सारे ईनाम दिए गए, जैसे भारत जाने और आने की टिकट, एक साल के लिए Zee TV की सदस्यता (करीब 210 यूरो), गहने, खरीदारी में छूट, एक भारतीय रेस्त्रां में दो लोगों के लिए मुफ्त भोजन, खेल कूद के कपड़े, सीडी आदि। मंच संचालन श्रीमती अनामिका सक्सेना ने किया। सबसे पहले महिलाओं ने आरती की, फिर भारत संघ के के अध्यक्ष श्री अनिल कुमार ने अतिथियों का स्वागत किया और उन्हें दीपावली उत्सव के बारे में बताया। फिर भारतीय कोंसलावास से कोंसल श्री विजय नरेश मेहता ने दीपावली के महत्व के बारे में बताते हुए कहा कि दीपावली भारत का सबसे बड़ा पर्व है। न केवल हिन्दुओं में, बल्कि जैन और सिख धर्म में भी इस दिन का बहुत महत्व है। इस दिन 529 BC में महावीर को निर्वान प्राप्ती हुई, इसी दिन गुरू हरगोबिन्द 1612 में 52 राजाओं को छुड़ाकर लेकर आए, जिस कारण इसे बन्दी छोड़ो दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। उसके बाद कार्यक्रम शुरू हुआ। कार्यक्रम का प्रवेश निशुल्क था। श्री अनिल कुमार का कहना है कि गैर भारतीय अतिथियों को मद्दे नज़र रखते हुए मंच संचालन अंग्रेज़ी में किया गया पर कार्यक्रम बहुत सफ़ल रहा। अब कार्यक्रमों की गुणवत्ता बहुत सुधर रही है, अच्छे कार्यक्रम होने लगे हैं।

शनिवार, 13 नवंबर 2010

सुरिन्दर लाडी का पंजाबी कार्यक्रम



दीपावली के दिनों में पंजाबी गायक सुरिन्दर लाडी और उनके साथियों ने स्पेन, इटली, जर्मनी आदि कई देशों का दौरा किया और कई शो किए। जर्मनी में म्युनिक में 3 नवंबर को टेलिकिंग द्वारा और फ्रैंकफर्ट में 13 नवंबर को Preet Jewellers और कुछ अन्य प्रायोजकों द्वारा कार्यक्रम का आयोजन किया गया। म्युनिक वाले शो में दस यूरो प्रवेश शुल्क रखा गया था जबकि फ्रैंकफर्ट वाले शो में प्रवेश और रात्रि भोजन मुफ्त था, पर केवल विशेष तौर पर आमन्त्रित अतिथि उपस्थित थे। कार्यक्रम के मुख्य कलाकार सुरिन्दर लाडी ने लैपटॉप पर संगीत लगा कर कई पंजाबी गीत गाए और उनके साथियों ने भांगड़ा पेश किया।

मंगलवार, 9 नवंबर 2010

बवेरिया और भारत का व्यापार सम्मेलन

जर्मनी और भारत के साठ साल के कूटनीतिक सम्बंधों के बारे में बवेरिया के विदेश व्यापार विभाग द्वारा 9 नवंबर को म्युनिक के 'Haus der Bayerischen Wirtschaft' में एक विशेष सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में बवेरिया की करीब सौ कंपनियों ने भाग लिया। सम्मेलन का मुख्य विषय रहा कि भारत की तेज़ आर्थिक वृद्धि ने जर्मनी को भी मन्दी से उबरने में मदद की है। इसके अलावा 'German Year in India 2011' और 'India Year in Germany' पर भी चर्चा हुई। मुख्य वक्ता भारतीय महाकोंसल अनूप मुदगल ने कहा कि भारत के तीस करोड़ लोग जर्मन कंपनियों के लिए अच्छा बाज़ार हैं।

http://www.vbw-bayern.de/vbw/Home/

सोमवार, 1 नवंबर 2010

चिली के खनिकों का सफलतापूर्वक उद्धार


अक्तूबर 2010 में चिली की एक खदान में ज़मीन के पौना किलोमीटर नीचे करीब ढाई महीने से फंसे 33 खनिकों को सफलतापूर्वक निकाल पाना एक बड़ा चमत्कार माना जा रहा है। इसमें खनिकों के अगुआ और मनोचिकित्सकों की भूमिका बहुत अहम रही है। खदान में फंसने से खनिकों को नहीं पता था कि वे बच भी पाएंगे कि नहीं। यहां तक कि 17 दिन बाद पहली बार केवल छोटा का सुराख करने पर सम्पर्क तो सम्भव हो गया था पर उनके बचने की उम्मीद फिर भी कम थी। इस दौरान उन्होंने कैसे अपनी मानसिक हालत ठीक रखी, भोजन की समस्या कैसे हल की, इन सभी बातों का श्रेय उनके अगुआ को जाता है। उसने किसी को निराश पड़े रहने या लड़ने झगड़ने नहीं दिया। शुरू से आखिर तक सख्त अनुशासन के तहत सभी को काम में लगाए रखा। बचे हुए भोजन का केवल एक छोटा सा हिस्सा सभी को प्रतिदिन खाने के लिए दिया जाता था। एक बार ज़्यादा खाने की अपेक्षा थोड़ा थोड़ा भोजन प्रति दिन खाने से ज़्यादा दिन तक जीवित रहा जा सकता है। सम्पर्क बनने के बाद मनोचिकित्सकों ने खनिकों का मनोबल बनाए रखा।

बढ़ी परमाणु ऊर्जा संयन्त्रों की अवधि

अक्तूबर 2010 में जर्मन सरकार ने परमाणु ऊर्जा संयन्त्रों को चलाए रखने की अवधि बारह वर्ष तक बढ़ाने पर मोहर लगा दी। जर्मनी के सभी 17 परमाणु ऊर्जा संयन्त्र ज़्यादा से ज़्यादा 2018 तक बन्द किए जाने थे। पर अब इन्हें 2030 तक चलाए जाने पर मोहर लग चुकी है। आम जनता में इसके प्रति बहुत रोष है क्योंकि यह आने वाली पीढ़ियों के साथ खिलवाड़ है। क्योंकि न तो परमाणु कचरे को दबाए जाने का पूर्ण सुरक्षित उपाय अभी जर्मनी के पास हैं। इसके अलावा ये संयन्त्र 9/11 जैसे हवाई हमलों के सबसे सम्भावित लक्ष्य हैं। ऐसा होने से वह क्षेत्र हज़ारों सालों के लिए बञ्जर हो जाएगा। लोगों में यह धारणा है कि नेताओं और जर्मनी की चार बड़ी ऊर्जा कम्पनियों EnBW, RWE, Vattenfall और E.ON के बीच सांठगांठ के कारण यह हुआ है। ये संयन्त्र बनाने का खर्च कम्पनियों को वापस मिल चुका है। अब तो इन्हें चलाए रखने में खरबों यूरो का केवल फायदा ही फायदा है। जर्मनी में अक्तूबर में फ्रांस से जर्मन परमाणु कचरे को वापस लाने के दौरान बहुत विरोध हुआ। पर विरोध प्रदर्शन अधिकतर पूञ्जीवाद के सामने हार जाते हैं। वैसे भी कचरे को वापस लाने का विरोध एक राजनैतिक मुद्दा था, क्योंकि कोई भी सरकार हो, यह तो होना ही था। मुद्दा तो परमाणु बिजली की नैतिकता का है। कहा जाता है कि 1986 में चेरनोबिल के परमाणु हादसे के बाद वहां के तानाशाह ने हज़ारों सैनिकों की जान खतरे में डालकर रेडियोधर्मी कणों के रिसाव को रोकने के लिए भेज दिया था। उनमें से तो कोई नहीं बचा पर यह हादसा अत्यन्त विकराल रूप लेने से बच गया। पर आज के लोकतान्त्रिक युग में किसी हादसे की स्थिति में ऐसा करना सम्भव नहीं।

http://www.mitwelt.org/laufzeitverlaengerung-akw-kkw-atomkraft.html