बुधवार, 15 सितंबर 2021

Hindi Translation of Mittelbayerische Zeitung article from 13 September 2021

रजनीश मंगला Schwandorf में जर्मनी की इकलौती हिन्दी पत्रिका 'बसेरा' को दोबारा प्रकाशित करने की सोच रहे हैं. Ideas उनके पास बहुत हैं.


Renate Ahrens


Schwandorf. रजनीश मंगला Schwandorf में खुशी खुशी रह रहे हैं. यहां के खान-पान का भी वो आदि हो गए हैं. Schnitzel, Bratwurst और Sauerkraut उन्हें बहुत पसन्द हैं. पर अभी भी वह अपनी मातृभूमि भारत के लिए तरसते हैं. अन्य प्रवासी भारतीयों की तरह वह भी कुछ कुछ वह दो दुनियाओं के बीच झूल रहे हैं. दोनों संस्कृतियों का अन्तर ही इतना बड़ा है. 2001 में जर्मनी आने के कुछ ही वर्षों बाद ही उनके मन में एक हिन्दी पत्रिका के रूप दोनों संस्कृतियों के मध्य एक सेतु बनाने का विचार आने लगा जिसमें जर्मनी में क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर की रोचक सामग्री हो. उन्हें उम्मीद थी कि इससे वे भारतीय, जिन्होंने जर्मनी को अपना घर माना है, जर्मनी में के बारे में काफ़ी चीज़ें जान पाएंगे. इसी से पत्रिका का नामकरण भी हो गया, बसेरा, यानि चुना हुआ घर.


उनके दिल में अपनी भाषा के लिए बहुत प्यार है

लेकिन इस परियोजना में भाषा एक बहुत बड़ी बाधा है. हालांकि हिंदी भारत में आधिकारिक रूप से मान्यता प्राप्त भाषा है, लेकिन यह केवल 20 प्रतिशत आबादी द्वारा बोली जाती है. वहां अंग्रेजी का विस्तार बहुत व्यापक है और अंग्रेजी को दूसरी आधिकारिक भाषा माना जाता है. तो मंगला अपनी पत्रिका और ब्लॉग, जो वह 2008 से चला रहे हैं, अंग्रेजी में क्यों नहीं लिखते? मंगला, जो विगत एक महीने से जर्मन नागरिक भी हैं, बताते हैं "हमारी भाषा विलुप्त नहीं होनी चाहिए". उन्होंने जर्मनी से कुछ ऐसा महत्वपूर्ण सीखा जो उन्हें आकर्षित करता है: सारा विश्व साहित्य जर्मन में उपलब्ध है. जर्मन भाषा हर एक चीज़ के लिए खुली है. "जब मैं पहली बार किसी किताबों की दुकान पर गया, तो मैं यह देख कर बहुत प्रभावित हुआ. दवाइयों, उपकरणों के उपयोग निर्देश, सब जर्मन भाषा में था."

भारतीयों, विशेषकर निम्न वर्गों में, के पास यह विकल्प नहीं है. भारत में अधिकांश लोग अंग्रेज़ी भाषा, जो एक तरह से रोज़ी रोटी की भाषा है, में निपुण नहीं हैं., हर चौथा व्यक्ति नहीं पढ़ सकता है. "यहां तक कि पढ़े लिखे लोग भी हर चीज़ अंग्रेज़ी में नहीं समझ सकते हैं", मंगला कहते हैं. "मुझे यह देख कर हैरानी होती है कि जर्मन लोग अपनी भाषा कितनी धाराप्रवाह जर्मन और कितनी अघिक मात्रा में लिख सकते हैं." हालांकि भारत सरकार ने हिंदी को बढ़ावा देने के लिए एक कार्यक्रम शुरू किया है, लेकिन उच्च वर्गों को छोड़कर भारत में सामान्य सामाजिक जीवन में इसकी उच्च उपस्थिति नहीं है. इसलिए बहुत सारे भारतीय साहित्य की दुनिया से वंचित हैं. बसेरा के साथ रजनीश मंगला इसे बदलने के लिए एक छोटा सा कदम उठाना चाहते हैं. "हिन्दी को बढ़ावा देना ज़रूरी है. इसी से हम भारत के साथ एक उच्च स्तर का रिश्ता कायम कर सकते हैं."

"पत्रिका का मुद्रित होना बहुत महत्वपूर्ण है, केवल onilne नहीं. मुद्रित पत्रिका को दस साल के बाद भी एक सबूत के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है", 50 वर्षीय मकैनिकल इञ्जिनियर कहते हैं. 2008 और 2011 के बीच बसेरा के 28 पृष्ठों वाली बसेरा पत्रिका के 15 अंक प्रकाशित हुए. अब वह पत्रिका को पुनर्जीवित करना चाहते हैं और इस पर कड़ी मेहनत कर रहे हैं. "पहले तो मैं बहुत कुछ लिखना चाहता हूं और काम अच्छी तरह से करना चाहता हूं."

पत्रिका के लिए विषय चुनने के लिए वे बहुत तरह के शोध करते हैं। फिलहाल अधिकांश विषय वे Mittelbayerische Zeitung नामक समचार पत्र से लेते हैं जो वे शहर के पुस्तकालय में हर रोज़ पढ़ते हैं। मंगला, जो धाराप्रवाह और लगभग निर्दोष रूप से जर्मन बोलते हैं, कहते हैं कि समाचार पत्र में बहुत सारे सूत्र और मुहावरे उनके लिए समझने आसान नहीं होते हैं। "समाचार पत्रों में जो जर्मन लिखी जाती है, वह उससे बिल्कुल अलग होती है जो हम कोर्स में सीखते हैं।" उन्हें बहुत ही बातें रोमांचक लगती हैं। वे हाल ही के Weiden के एक केस के बारे में लिखना चाहते हैं जिसमें अपने एक दोस्त को मृत्यु से ना बचाने के जुर्म में उसके तीन मित्रों को सज़ा हुई। Wackersdorf में नियोजित परमाणु कचरे के पुनर्नवीनीकरण के इतिहास और उसके लिग्नाइट खनन के साथ संबंध ने भी उन्हें प्रेरणा दी है। उन्होंने Wackersdorf के संग्रहालय का दौरा किया, वे परमाणु कचरे की परियोजना के मूल स्थलों पर गए और साथ ही पर्यटन विभाग के साथ साथ और कई लोगों से बात की। "बिना बातचीत किए, केवल पढ़ कर किसी चीज़ को शब्दों में ढालना मुश्किल होता है।"

आत्मा के लिए अच्छा

विषयों के लिए कुछ सुझाव उनके हिंदी ब्लॉग के पाठकों से भी आते हैं, लेकिन यहाँ भी भाषा एक बाधा है। Google से हर सामग्री का मूलभूत अनुवाद तो हो जाता है, पर वह संवाद के लिए पर्याप्त नहीं होता। लेकिन हार मानने का कोई सवाल नहीं है: आखिर मंगला हिंदी के साथ बड़े हए हैं। और यहाँ, ऐसे पूरी तरह से अलग देश में, उनकी मातृभाषा बस "उनकी आत्मा को सुकून देती है" वे कहते हैं।

भाषा भारत में एक बाधा है

जीवन: 2001 में एक भारतीय सॉफ्टवेयर कंपनी, जिसमें ये मैकेनिकल इंजीनियर कार्यरत थे, ने उन्हें म्युनिक भेजा। छह महीने के बाद उनका काम खत्म हो गया था। लेकिन रजनीश मंगला जर्मनी में ही रहना चाहते थे। 2012 में ही वह दो साल के लिए भारत लौटे। आज वे Wackersdorf में एक प्रयोगशाला में काम करते हैं। उनकी दो बेटियां म्युनिक में रहती हैं।

भाषा: भारतीय संविधान 22 आधिकारिक भाषाओं को मान्यता देता है। हिंदी उनमें से एक है। प्रत्येक संघीय राज्य और क्षेत्र की अपनी भाषा है, और तकरीबन प्रत्येक भाषा की अपनी लेखन प्रणाली है। विभिन्न भाषा परिवारों में कुल मिलाकर 100 से अधिक भाषाएँ हैं।

बसेरा: मंगला की इच्छा है कि वह पूरे जर्मनी में पत्रिका का वितरण कर सकें। उन्होंने अभी तक पुन: संस्करण के लिए एक प्रकाशन तिथि पर विचार नहीं किया है - सबसे पहले, वे सामग्री बढ़ाना चाहते हैं।

ब्लॉग: रजनीश मंगला अपने हिंदी ब्लॉग पर भी अभी बहुत काम करना चाहते हैं ताकि वहां हर दिन कुछ नया लिखा जा सके। वे हर तरह की मदद के लिए आभारी हैं।