शनिवार, 22 फ़रवरी 2020

लक्षमीकांत प्यारेलाल

हिन्दी फ़िल्मी गानोॆ में दो या तीन छंद होते हैं। हर छंद में दो, तीन या चार पंक्तियां होती हैं जिन्हें समान तर्ज़ से गाया जाता है।

लेकिन साठ, सत्तर और अस्सी दशक के हिन्दी फ़िल्म जगत के जाने माने युगल संगीत निर्देशक लक्षमीकांत प्यारेलाल शायद संगीत के साथ ज़्यादा प्रयोग करने के शौकीन थे। उन्होंने कई ऐसे गीत बनाए जिनके सभी छंदों की या कम से कम दूसरे छंद की तर्ज़ अलग थी।

उदाहरण के लिए याद कीजिए ये गीत
मैं तेरे प्यार में पागल (प्रेम बंधन)
तू मेरा जानू है, डिंग डांग (हीरो)
चिट्ठी आई है (नाम)
दर्द-ए-दिल, दर्द-ए-जिगर (कर्ज़)
सो गया ये जहाँ सो गया आसमाँ (तेज़ाब)। इस गाने में तो जब अल्का याज्ञ्निक की पंक्ति आती है 'कुछ मेरी सुनो, कुछ अपनी कहो' तो न केवल तर्ज़ बल्कि राग (scale) ही बदल जाता है और गाना क्या ख़ूबसूरत मोड़ लेता है।
जान-ए-मन, जान-ए-मन किसी का नाम नहीं (जान-ए-मन)
जब दर्द नहीं था सीने में (अनुरोध)
आप के अनुरोध पर, मैं ये गीत सुनाता हूँ (अनुरोध)
हम तुम, इक कमरे में बन्द हों (बाबी)

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