सोमवार, 6 जुलाई 2009

यहां भी हैं रंग होली के

सख्त नियमों और ठण्डे मौसम के कारण विदेश में, खासकर जर्मनी में बहुत से भारतीय पर्व उसी हर्षोल्लास और धूम धड़ाके के साथ मनाना मुश्किल होता है, जैसे दीपावली पर खूब पटाखे छोड़ना, होली पर खूब रंग फेंकना। इसीलिए पर्वों के नाम पर प्रवासी भारतीय कुछ औपचारिक कार्यक्रम आयोजित कर गुज़ारा कर लेते हैं जिसमें खाना पीना और थोड़ा गाना बजाना होता है। पर इस बार म्युनिक निवासी भारतीयों ने खूब रंगों के साथ होली खेल कर इस क्रम को थोड़ा बदला है। ठण्ड के कारण बाहर खुले में होली न मनाने के कारण उन्होंने एक चर्च हॉल में होली मनाई और सूखे रंगों का खास इन्तज़ाम रखा। इस तरह बच्चों और बड़ों, सभी ने एक दूसरे को हरा, पीला और लाल गुलाब लगाकर होली मनाई। स्टेज पर थोड़े गाने बजाने नाचने का कार्यक्रम भी रखा गया था पर लोगों को रंगों के खेलने में ही इतना मज़ा आया कि उनका ध्यान इसी पर केन्द्रित रहा। बाद में तो सब लोग मंच पर चढ़कर ही नाचने लगे। बहुत कम दिनों की प्लानिंग के बावजूद आम लोगों के लिये यह एक याद बनकर रह गया। बच्चे तो जैसे वापस घर जाना ही न चाहते हों। सब लोग गर्व से कह रहे थे कि हमने सचमुच रंगों के साथ होली खेली। खाने का इन्तज़ाम भी लोगों ने खुद ही किया। कुछ लोग घर से खाना बनाकर लेकर आए और सस्ते में बेचा। इस तरह यह अनौपचारिक कार्यक्रम अमरजीत सिंह शौकीन और शालिनी सिन्हा के प्रयत्नों से सम्भव और सफ़ल हो सका। बायरिश टीवी वाले अपने कार्यक्रम 'पज़्ज़ल' के लिये कवरेज के लिये भी आये जिसमें पांच मिनट के लिये अलग संस्कृति के कार्यक्रमों की झलक दिखायी जाती है। टीवी की ओर से रिपोर्टर थे 'पीटर अरुण फाफ' जो संयोग से स्वर्गीय नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के दोहते हैं। कार्यक्रम में शॉर्ट नोटिस के बावजूद पचास साठ लोग शामिल हुए।