शनिवार, 15 दिसंबर 2007

पवित्र रास्तों का पथिक

1968 में जर्मनी में जन्मे क्रिस्टियान क्रूग (Christian Krug) को भारत से खास लगाव है। 1995 में वे पहली बार भारत घूमने गये, और उसके बाद हर वर्ष वे कम से कम एक बार वे भारत घूमने अवश्य जाते हैं। वहाँ का मौसम, आज़ादी, विभिन्न सांस्कृतियों, भाषाओं और धर्मों का एक-साथ शांतिप्रिय विचरण उन्हें बहुत भाता है। 2005 में उन्होंने गोआ से लेकर गो-मुख तक 1700 किलोमीटर की पैदल यात्रा की और फिर जर्मन में अपनी इस यात्रा के बारे में पुस्तक लिखी Auf Heiligen Spuren (पवित्र रास्तों पर, चित्र देखें)। करीब छह महीनों से वे Studiosus (http://www.studiosus.com/) नामक पर्यटन कंपनी के साथ गाइड के तौर पर कार्यरत हैं और नियमित रूप से विभिन्न पर्यटन समूहों को भारत दिखाने जाते हैं। वे भारत, उसके इतिहास, ऐतिहासिक स्थलों आदि के बारे में एक आम भारतीय से काफ़ी अधिक जानते हैं। 15.12.07 को म्युनिक में उनसे हुई बातचीत के अंश उनके मुख से।

अभी कुछ दिन पहले ही मैं एक पर्यटन समूह के साथ लगभग पूरे भारत का भ्रमण करके लौटा हूँ, जैसे वाराणासी, खाजुराहो, राजस्थान, मुम्बई, केरल, आगरा, तामिलनाडु। काशमीर एवं उत्तरी पूर्वी प्रदेशों को छोड़कर मैं लगभग सारा भारत देख चुका हूँ। हाँ बिहार और पश्चिम बंगाल के बारे में मैं अभी इतनी अच्छी तरह नहीं जानता। भारत इतना बड़ा है कि इसके बारे में पर्याप्त जानकारी हासिल करने में अभी दस पंद्रह वर्ष और लगेंगे। कुछ उत्तरी पूर्वी प्रदेशों (जैसे अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मिज़ोरम) में विदेशियों को अकेले जाने की अनुमति नहीं है। वे केवल कम से कम चार जनों के एक पर्यटन समूह के साथ जा सकते हैं, वो भी 200 डालर के प्रवेश शुल्क के साथ। चार साल पहले तक तो अरिणाचल प्रदेश विदेशियों के लिये पूरी तरह बंद था। मई जून को छोड़ कर वहाँ का मौसम मुझे बहुत अच्छा लगता है। यहाँ जर्मनी में तो बहुत ठंड पड़ती है (जैसे आज पड़ रही है), वो भी बहुत लंबे समय तक, नवंबर से लेकर मार्च अप्रैल तक। गर्म मौसम ठंड से कहीं अच्छा है। मुझे ठंड बिल्कुल पसंद नहीं। मुझे खुशी है कि मैं अगले सप्ताह फिर से एक पर्यटन समूह के साथ भारत जा रहा हूँ।।

Studiosus यूरोप की सबसे बड़ी अध्ययन संबंधी पर्यटन की सबसे बड़ी कंपनी है जो दुनिया भर के देशों में पर्यटन आयोजित करती है। पर्यटन के दौरान हर समय कम से कम एक गाइड साथ रहता है जो वहाँ की संस्कृति, इतिहास आदि का अच्छा जान कार होता है। मुझे भी दिन-भर बस में, जहाज़ में, ट्रेन में जहाँ जहाँ हम जाते हैं, यात्रियों को वहाँ के बारे में बताना पड़ता है। इस लिये बहुत अच्छी तरह तैयारी करनी पड़ती है, बहुत पढ़ना पड़ता है।।

भारत एक अनोखा देश है। मैं दस साल से वहाँ जा रहा हूँ लेकिन मैं भारत को अभी तक ठीक तरह से नहीं समझ पाया हूँ। भारत एक विक्षिप्त देश है जहाँ सब कुछ है और हर कोई जो जी में आये कर सकता है। जैसे मैंने कई साधुओं को देखा जो कई वर्षों से मौन हैं, या हाथ ऊपर किये हुये जी रहे हैं, या एक स्थान पर बिना हिले डुले रह रहे हैं, या पूरा दिन हंसते रहते हैं, नंगे रहते हैं, बिन पकाया खाना खाते हैं। जर्मनी में ऐसे लोगों को जेल में डाल दिया जायेगा या फिर उनका मनोवैज्ञानिक इलाज करवाया जायेगा, लेकिन वहाँ पर ये आत्मा शुद्धि का ज़रिया माने जाते हैं। वहीं दूसरी तरफ़ तमिलनाडु में ऐसी बच्चियाँ जिनके माँ बाप नहीं होते, उन्हें समाज से पूरी तरह निष्कासित कर दिया जाता है। बंगाल, असम में अभी भी जादू टोना व्याप्त है। भारत में जितनी विविधतायें हैं, शायद दुनिया में और कहीं नहीं।।

मुझे ये बार बार आभास होता रहा हैं कि भारतीय खुद भारत के बारे में नहीं जानते या समझते। जब मैं भारत में पैदल यात्रा कर रहा था तो मुझे कई ब्राह्मण ऐसे मिले जो अपने देश, या प्रांत के बारे में कुछ भी नहीं जानते। वे अपनी ही दुनिया में ऐसे खोये रहते हैं कि अपने गाँव के बाहर तक की भी खबर उन्हें नहीं होती। यहाँ म्युनिक में भी मैं एक बंगाली को जानता हूँ जो भारत में कलकत्ता में रहा लेकिन कभी भी किसी आसपास के गाँव में गया। उसने कभी भी कहीं जाकर नल का पानी पीया, केवल बोतलबंद पानी पीता था। और मैं वहाँ गाँव गाँव पैदल गया, हर तरह का रहन सहन खुद अपनाकर देखा। इस लिये मुझे लगता है कि भारत में सनकी लोग ज़्यादा हैं। मैं जब भी किसी पर्यटन समूह को भारत दिखाने लेकर जाता हूँ तो यही समझाने की कोशिश करता हूँ कि वे भारत को पश्चिमी नज़रिये से कभी भी समझ नहीं सकेंगे। या तो वे भारत को प्यार करेंगे, या फिर उससे नफ़रत करेंगे, लेकिन कभी उसे समझ नहीं पायेंगे। कितने ही लोगों को मैं जानता हूँ जो एक बार भारत जाने के बाद कभी दोबारा नहीं जाना चाहते। जाना तो दूर, वे भारत के साथ कोई वास्ता ही नहीं रखना चाहते। वहीं दूसरी और ऐसे लोग भी हैं जिन्हें भारत जाने के बाद वहाँ की लत लग जाती है। एक बड़ी उदाहरण तो मैं खुद हूँ। मैं ऐसे वर्ष की कल्पना भी नहीं कर सकता जिसमें मैं कम से कम एक बार भारत न जा सकूँ। ऐसा भी नहीं कि भारत से मेरा मतलब ऐशिया या फिर किसी दूसरे दक्षिण ऐशियाई देश से है। चीन तो मैं कबी गया नहीं, श्री लंका को एक छोटा तमिलनाडु कहा जा सकता है। पाकिस्तान और बांगलादेश की तुलना दूर दूर तक भी भारत के साथ नहीं की जा सकती क्योंकि वहाँ एक बहुत महत्वपूर्ण चीज़ गायब है, वो है हिन्दूत्व। हिन्दू धर्म मुझे बहुत प्रिय है। हिन्दूत्व जैसी सहिष्णुता किसी भी दूसरे धर्म में नहीं है। लेकिन वहीं पर भारत में मुस्लिम धर्म भी बहुत व्याप्त है। शायद दुनिया में कोई ऐसा दूसरा देश नहीं जहाँ इतनी तरह के युग, धर्म और इमारतें हों। यही चीज़ें भारत को खास बनाती हैं। ये भी नहीं कि भारत में सब कुछ अच्छा ही है। वहाँ बहुत सी बुराईयाँ भी हैं, जैसे जाति प्रथा। जाति प्रथा वहाँ अभी तक ज़िन्दा है। हो सकता है विदेशियों को ये न नज़र आती हो लेकिन मैं जानता हूँ कि ये मौजूद है। वहाँ छोटी जाति वालों को बहुत ही नीचे गिरा कर रखा जाता है, उन्हें बराबर हक नहीं होते। सदियों में विकसित हुई सभ्यता कुछ वर्षों में नहीं बदल सकती। बड़े शहरों में गंदगी घृणा योग्य है। सबसे खराब है आगरा। ताजमहल के ठीक नीचे यमुना बहती है, ये नदी नहीं नाला है, गंदा नाला। ये शायद दुनिया की सबसे गंदी नदी है। दिल्ली, मथुरा, आगरा, सब कहीं से गंदगी इस नदी में बहायी जाती है। मुंबई जाते समय किसी दरिया के ऊपर से पुल के द्वारा करीब दस मिनट का रास्ता तय करना पड़ता है। उससे निरी बदबू आती है। ये तो बहुत ही घृणा योग्य है। इसके कभी न कभी बहुत बुरे परिणाम होंगे। और मज़े की बात है क इन चीज़ों के बारे में किसी में जागृति नहीं है। हालाँकि भारतीय खुद बहुत साफ़ सुथरे रहते हैं, घर को साफ़ रखते हैं, साफ़ कपड़े पहनते हैं, रोज़ नहाते हैं। झुग्गी झोंपड़ियों में रहने वाले भी साफ़ रहते हैं, लेकिन घर के बाहर की गंदगी से उन्हें कोई वास्ता नहीं होता।।

मैं कभी चीन नहीं गया लेकिन मुझे नहीं लगता कि चीन में हालत इससे अच्छी होगी। कुछ देर पहले मैंने एक लेख में पढ़ा था कि चीन में अत्यधिक गरीबों की हालत भारत से भी बुरी है लेकिन वि बाहर से दिखाई नहीं देती, उसे छुपाकर रखा जाता है। वहाँ केवल बूम कर रहे अमीर जगमगाते शहरों को दिखाया जाता है। लेकिन वहाँ भी भारत की तरह सत्तर प्रतिशत से अधिक आबादी गाँवों में रहती है। वहाँ गरीबी भारत से भी बुरी है, ऐसा मैंने पढ़ा है। दोनों देशों में एक बड़ा फ़र्क है कि भारत लोकतांत्रिक है और वहाँ बहुत बड़ा और आज़ाद प्रिंट मिडिया है। चीन में ऐसा नहीं है। इसलिये चीन में ये गदंगी दिखायी नहीं जा सकती। जैसा अरुनधति राय ने नर्मदा के बारे में किया, वैसा चीन में संभव नहीं है।।

भारत में किसी मर्द का, और वो भी किसी विदेशी का किसी परायी औरत के साथ परिचय होना बहुत मुश्किल है। मुझे किसी औरत के साथ परिचय होने में कई साल लगे, वो भी जब मैं अपनी पत्नी कारेन के साथ भारत गया। भारत में केवल शादी के बाद ही मर्दों को सुरक्षित समझा जाता है। अभी नर्मदा के पास मेरी कुछ अच्छी दोस्त बनीं लेकिन वे ब्रह्मचार्य हैं।।

भारत के बारे में कुछ भी ऐसा नहीं कहा जा सकता जो हर जगह एक जैसा हो। हर चीज़ का उल्टा भी वहाँ है। हम जब जर्मनी से पर्यटन ग्रुप लेकर जाते हैं तो हमेशा वहाँ एक लोकल गाईड भी होता है जो जर्मन बोलता है। पिछली बार जब हम मुंबई गए तो वहाँ की लोकल गाईड ने मुंबई का बहुत सुंदर वर्णन किया कि ये बहुत खूभसूरत शहर है, सभी औरतों के पास मर्दों जैसे अधिकार हैं, सभी औरतें काम करती हैं। लेकिन मैं जानता हूँ कि ऐसा नहीं है, इसका सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता। अधिकार हैं लेकिन उन्हें यथार्थ रूप नहीं दिया जाता। मुंबई से बाहर जाओ तो बिल्कुल अलग दुनिया है। महाराष्ट्र बिहार और केरल से बिल्कुल अलग है। शायद केरल ही ऐसी जगह है जहाँ औरतों के पास युरोपीय औरतों जैसे अधिकार हैं। यह चीज़ें समाज की हर परत में अलग अलग हैं। हम कर्नाटक में समुद्र के पास एक गेस्ट हाऊस में रुके थे जो दिखने में पूरी तरह पश्चिमी था। अक्तूबर से अप्रैल तक वहाँ केवल विदेशी ही होते हैं। वो एक ब्राह्मण परिवार का घर था। मालकिन की उम्र कोई पचास साल थी, बहुत दृढ़ स्वभाव की थीं और बहुत अच्छी अंग्रेज़ी बोलती थीं। लेकिन वो कभी घर के बाहर नहीं गई। बाज़ार भी नहीं। वे समझते हैं कि ब्राह्मण के बाहर जाने से प्रतिष्ठा कम होती है, लोग समझेंगे कि वे एक नौकर को सामान खरीदने के लिए बाज़ार नहीं भेज सकते। बेंगलौर में एक परिवार के साथ मेरा परिचय हुआ जो अपने बच्चों के साथ केवल अंग्रेज़ी में बात करते हैं। बच्चों कन्नड़ बिल्कुल नहीं आती, केवल अंग्रेज़ी आती है। यह बहुत आश्चर्यजनक बात है कि वे वहाँ रहते हैं लेकिन कन्नड़ नहीं बोल सकते। यह मुझे अच्छा नहीं लगा लेकिन क्या करें ये आधुनिक ज़माना है। ये 'भारतीय अंग्रेज़ी' मुंबई और बेंगलौर जैसे बड़े शहरों के समाज में लगभग पूरी तरह घुलमिल गई है। ये सामान्य अंग्रेज़ी से अलग एक नई भाषा है, भारत की अपनी अंग्रेज़ी।।

वहीं जर्मनी ऐसा देश है जहाँ हर चीज़ के लिऐ नियम बना दिया गया है। ये बहुत बुरा लगता है, जैसे एक जेल में रह रहे हों। यहाँ कोई ऐसे ही सड़क पर जाकर चाय नहीं बेच सकता। अभी हाल ही 'Süddeutsche Zeitung' में एक लेख छपा था कि जर्मनी में और किस चीज़ का नियम बनना बाकी है।।

मुझे बहुत खुशी होगी अगर मैं हर वर्ष सर्दियाँ भारत में बिता पाऊँ। मुझे रहने के लिए कर्नाटक में समुद्र और पहाड़ों के पास का क्षेत्र बहुत अच्छा लगता है। ये एक स्वर्ग जैसा है। ये गर्मियों की उत्तर भारत की तरह गर्म नहीं होता और सर्दी में इतना ठंडा भी नहीं होता। मैं तो वहाँ एक घर भी खरीदना चाहूँगा लेकिन विदेशी होने के नाते खरीद नहीं सकता। इस तटीय क्षेत्र में ज़मीन और मकानों की कीमत अभी भी कम है लेकिन दस पंद्रह सालों में यह जगह बहुत बहुत मंहगी हो जाएगी। महाराष्ट्र के तट गोआ से भी कहीं अधिक सुंदर हैं, लेकिन अभी वहाँ पर्यटन उद्योग का विस्तार नहीं हुआ। छोटे छोटे शहर जैसे अलीबाग, मुरुड़, रत्नागिरी आदि। कुछ ही वर्षों में वहाँ अंतरराष्ट्रीय पर्यटन काफ़ी ज़ोर पकड़ लेगा। ये जगहें सपनों की तरह सुंदर हैं।।

मैं पहले तट के साथ साथ कर्नाटक से मुंबई तक 800 किलोमीटर पैदल गया। फिर बरूच से होशंगाबाद तक नर्मदा के साथ साथ 450 किलोमीटर चला। फिर 450 किलोमीटर गंगा, भगीरथी, मंदाकिनी, अलखनंदा के साथ साथ गोमुख तक गया। तट के साथ साथ छोटे छोटे गेस्ट हाउस थे जहाँ मैं रुकता था। महाराष्ट्र में छोटे छोटे गाँवों में मैं ब्रह्मणों के पास रुकता था जो कमरे किराए पर देते थे। नर्मदा के पास ऐसा कुछ नहीं था। लेकिन वहाँ परिक्रमा नामक एक तीर्थ रास्ता है जहाँ बहुत सी धर्मशालाएं, आश्रम आदि हैं, वहाँ बहुत से तीर्थ यात्री, साधू, महात्मा रहते हैं। वहाँ मुफ़्त में खाने और सोने को मिल जाता है। वहाँ छह सप्ताह तक मेरे पास एक पैसा नहीं था। 'नर्मदा जी' मेरे लिए भारत की धड़कन की तरह है। मैंने भारत में और कहीं ऐसा अतिथि सत्कार नहीं देखा। मुझे इस यात्रा में कोई तकलीफ़ नहीं हुई, न ही भय लगा। हाँ एक बार बंदरों से सामना ज़रूर हो गया। नर्मदा के पास भील नामक आदिवासी लोग रहते हैं। वहाँ जाना खतरनाक है। वे यात्रियों को लूट लेते हैं। लेकिन हर कोई इस बारे में जानता है इसलिए वहाँ कोई नहीं जाता। साधू भी वहाँ से पैदल निकलते हैं और लूट लिए जाते हैं, लेकिन उनके पास लूट लिए जाने को कुछ खास नहीं होता। ये यात्रा मैंने जनवरी 2005 से जून 2005 तक की।।

ये किताब पिछले साल (2006 में) प्रकाशित हुई और इसे लिखने में करीब चार महीने लगे। हालाँकि मैं यात्रा के दौरान साथ भी काफ़ी लिखता रहा लेकिन अधिकतर हिस्सा मैंने बाद में लिखा।।