सोमवार, 31 दिसंबर 2007
छह युवाओं ने टैक्सी वाली को लूटा
म्युनिख. एक महिला टैक्सी ड्राइवर के साथ कुछ युवकों ने न सिर्फ लूटपाट की बल्कि उसके साथ मारपीट भी की. इस घटना से क्षेत्र में दहशत का माहौल बन गया है. घटना की सूचना मिलते ही पुलिस हरकत में आई और 5 आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया है. एक अन्य फरार युवक की तलाश जारी है. पुलिस सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार विगत 29 दिसम्बर को छह युवको ने Fürstenfeldbruck S-Bahn से टॉलवुड मेले में जाने के लिये टैक्सी की। बताया गया है कि टैक्सी में महिला ड्राइवर को देख कर उनकी नीयत बदल गई और आपस में उन्होंने लूटपाट करने की योजना बना ली. जैसे ही टैक्सी मेला स्थल के करीब पहुची वैसे ही टैक्सी में सवार 6 युवकों में से पाँच लोग टैक्सी से उतर गये. लेकिन छठवाँ युवक बिल देने के बहाने टैक्सी में ही बैठा रहा. बताया गया है कि उनका टैक्सी का किराया 42.50 यूरो बना था. पैसा लेन देन के दौरान जैसे ही 47 वर्षीय महिला टैक्सी ड्राईवर ने अपना बटवा निकाला, उस टैक्सी में बैठे 18 वर्षीय युवक ने बटवा छीनने की कोशिश की। लेकिन पहले प्रयास में युवक को बटुआ छीनने में सफलता नहीं मिल पाई इससे आक्रोशित होकर युवक ने महिला की बाजू पर हमला करना प्रारंभ दिया. अचानक हुए इस हमले से महिला टैक्सी ड्राइवर घबरा गई और हाथ में चोट लगने की वजह से उसकी बटुए में पकड़ ढीली हो गई. इस घटना क्रम के दौरान हमला करने वाले युवक के साथी टैक्सी के बाहर खड़े होकर यह घटना होते देख रहे थे. तभी अचानक टैक्सी के अंदर रुका युवक बटुआ छीनने में कामयाब हो गया और तेजी से बाहर निकल आया. और फिर वे सब भागकर मेले में घुस गये। युवकों के फरार होती ही महिला टैक्सी ड्राइवर ने मदद की गुहार लगाई और आनन फानन में घटना की सूचना पुलिस को दी गई. घटना की सूचना मिलते ही पुलस ने सक्रियता के साथ आरोपियों की तलाश प्रारंभ कर दी है. काफी मशक्कत के बाद पुलिस को पहली कामयाबी मिली और उसके हत्थे दो आरोपी चढ़ गए. इनसे कड़ाई के साथ पूछताछ करने पर आरोपियों ने अपने साथियों का नाम पता ठिकाना सब बता दिया. जिसके आधार पर की गई छापामार कार्रवाई में पुलिस ने 5 आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया है. पकड़े जाने वाले पाँच अपराधियों में एक सर्बिया से 17 वर्षीय छात्र है, एक क्रोएशिया से 17 वर्षीय ट्रेनी, एक 17 वर्षीय अफ़्गानिस्तान का नागरिक, एक इक्वाडोर से 18 वर्षीय छात्र और एक बटवा छीनने वाला तुर्की से 18 वर्षीय छात्र। अभी इनमें से एक 19 वर्षीय टोगो का नागरिक फरार है। पुलिस ने दावा किया है कि उसे शीघ्र ही पकड़ लिया जाएगा. प्राथमिक पूछताछ के दौरान आरोपियों ने अपना अपराध स्वीकार करते हुए खुलासा किया है कि उन्होंने जानबूझ कर टैक्सी में बिना पैसा दिये यात्रा की क्योंकि उनके पास पैसे नहीं थे। उन्हें सज़ा के लिये जज के सामने पेश किया जायेगा।
गुरुवार, 27 दिसंबर 2007
दक्षिण पूर्वी ऐशियाई सांस्कृतिक कार्यक्रम
16 दिसंबर को म्युनिक में दक्षिण पूर्वी ऐशियाई सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन हुआ जिसमें म्युनिक शहर में रहने वाले जर्मनी, भारत, अफ़्गानिस्तान, बंगलादेश और श्री लंका के कलाकारों ने विभिन्न कार्यक्रम पेश किये। कार्यक्रम के मुख्य आकर्षण थे-म्युनिक के मशहूर जर्मन कामेडी कलाकार मोसिस (Moses Wolff, http://www.moses-wolff.de/) के द्वारा छोटा सा आईटम, दीपक आचार्य (SAP Consultant) के द्वारा गज़ल गायन, सैकत भट्टाचार्य द्वारा हिन्दी और बंगाली गीत, आदरणीय सुनील बैनर्जी द्वारा सितार वादन, अफ़्गानिस्तान के परवेज़ द्वारा तबला वादन, बंगलादेश की जासमीन द्वारा लोकगीत, लीना घोष के द्वारा भारतनाट्यम।
इस आयोजन के मुख्य कर्ता धर्ता श्री अमिताव दास (www.infoforu.de) का कहना है कि इस कार्यक्रम का आयोजन सफ़ल रहा और इसकी भारी सराहना हुई है। हम यहाँ गुमनाम जीवन व्यतीत कर रहे भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों के लिए एक मंच तैयार करना चाहते हैं जहाँ हम अपने त्यौहार और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित कर सकें। म्युनिक में रहने वाले भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों में अब तक ऐसे कार्यक्रम नहीं होते थे। विदेश में अपनी जड़ें बरकरार रखना आसान नहीं है। एक ही मूल के लोगों को पूजा, ईद, क्रिसमस आदि के मौकों पर एक साथ होकर आनंद लेना चाहिये। इस तरह के कार्यक्रमों में लोग एक दूसरे से मिल बैठ अपने सुख दुख बाँट सकते हैं। इस कार्यक्रम के दौरान हमने कलाकारों और दर्शकों में नया आत्मविश्वास जगता हुआ देखा। कलाकारों ने भरपूर मेहनत करके इस कार्यक्रम को सफ़ल बनाया है। खास कर युवा लड़की लीना घोष ने भारतनाट्यम पेश करके पश्चिमी दुनिया में बह जाने वाले प्रवासियों के लिये उदाहरण पेश किया है। सुझाव आमंत्रित हैं।
इस कार्यक्रम के फ़ोटो आप यहाँ देख सकते हैं-
https://plus.google.com/photos/104904719684307594934/albums/5147978778902504721
शनिवार, 15 दिसंबर 2007
पवित्र रास्तों का पथिक
1968 में Germany में जन्मे Christian Kru) को भारत से खास लगाव है. 1995 में वे पहली बार भारत घूमने गए, और उस के बाद हर वर्ष वे कम से कम एक बार वे भारत घूमने अवश्य जाते हैं. वहां का मौसम, आज़ादी, विभिन्न सांस्कृतियों, भाषाओं और धर्मों का एक-साथ शांतिप्रिय विचरण उन्हें बहुत भाता है. 2005 में उन्होंने Goa से ले कर गो-मुख तक 1700 kilometre की पैदल यात्रा की और फिर German में अपनी इस यात्रा के बारे में पुस्तक लिखी Auf Heiligen Spuren (पवित्र रास्तों पर, चित्र देखें). करीब छह महीनों से वे Studiosus (http://www.studiosus.com/) नामक पर्यटन company के साथ guide के तौर पर कार्यरत हैं और नियमित रूप से विभिन्न पर्यटन समूहों को भारत दिखाने जाते हैं. वे भारत, उस के इतिहास, ऐतिहासिक स्थलों आदि के बारे में एक आम भारतीय से काफ़ी अधिक जानते हैं. 15.12.07 को Munich में उनसे हुई बात-चीत के अंश उनके मुख से.
अभी कुछ दिन पहले ही मैं एक पर्यटन समूह के साथ लगभग पूरे भारत का भ्रमण कर के लौटा हूं, जैसे वाराणासी, खाजुराहो, राजस्थान, मुम्बई, केरल, आगरा, तमिलनाडू. काशमीर एवं उत्तरी पूर्वी प्रदेशों को छोड़ कर मैं लगभग सारा भारत देख चुका हूं. हां बिहार और पश्चिम बंगाल के बारे में मैं अभी इतनी अच्छी तरह नहीं जानता. भारत इतना बड़ा है कि इस के बारे में पर्याप्त जानकारी हासिल करने में अभी दस पन्द्रह वर्ष और लगेंगे. कुछ उत्तरी पूर्वी प्रदेशों (जैसे अरुणांचल प्रदेश, नागाland, मिजोरम) में विदेशियों को अकेले जाने की अनुमति नहीं है. वे केवल कम से कम चार जनों के एक पर्यटन समूह के साथ जा सकते हैं, वो भी 200 Dollar के प्रवेश शुल्क के साथ. चार साल पहले तक तो अरुणांचल प्रदेश विदेशियों के लिए पूरी तरह बन्द था. मई जून को छोड़ कर वहां का मौसम मुझे बहुत अच्छा लगता है. यहां Germany में तो बहुत ठण्ड पड़ती है (जैसे आज पड रही है), वो भी बहुत लम्बे समय तक, November से ले कर march April तक. गर्म मौसम ठण्ड से कहीं अच्छा है. मुझे ठण्ड बिल्कुल पसन्द नहीं. मुझे ख़ुशी है कि मैं अगले सप्ताह फिर से एक पर्यटन समूह के साथ भारत जा रहा हूं..
Studiosus Europe की सब से बड़ी अध्ययन सम्बन्धी पर्यटन की सब से बड़ी company है जो दुनिया भर के देशों में पर्यटन आयोजित करती है. पर्यटन के दौरान हर समय कम से कम एक guide साथ रहता है जो वहां की संस्कृति, इतिहास आदि का अच्छा जानकार होता है. मुझे भी दिन-भर बस में, जहाज़ में, train में जहां जहां हम जाते हैं, यात्रियों को वहां के बारे में बताना पड़ता है. इस लिए बहुत अच्छी तरह तैयारी करनी पड़ती है, बहुत पढ़ना पड़ता है.
भारत एक अनोखा देश है. मैं दस साल से वहां जा रहा हूं लेकिन मैं भारत को अभी तक ठीक तरह से नहीं समझ पाया हूं. भारत एक विक्षिप्त देश है जहां सब कुछ है और हर कोई जो जी में आए कर सकता है. जैसे मैंने कई साधुओं को देखा जो कई वर्षों से मौन हैं, या हाथ ऊपर किए हुए जी रहे हैं, या एक स्थान पर बिना हिले डुले रह रहे हैं, या पूरा दिन हंसते रहते हैं, नंगे रहते हैं, बिन पकाया खाना खाते हैं. Germany में ऐसे लोगों को jail में डाल दिया जाएगा या फिर उनका मनो-वैज्ञानिक इलाज करवाया जाएगा, लेकिन वहां पर ये आत्मा शुद्धि का ज़रिया माने जाते हैं. वहीं दूसरी तरफ़ तमिलनाडू में ऐसी बच्चियां जिन के मां बाप नहीं होते, उन्हें समाज से पूरी तरह निष्कासित कर दिया जाता है. बंगाल, असम में अभी भी जादू टोना व्याप्त है. भारत में जितनी विविधताएं हैं, शायद दुनिया में और कहीं नहीं.
मुझे ये बार बार आभास होता रहा हैं कि भारतीय खुद भारत के बारे में नहीं जानते या समझते. जब मैं भारत में पैदल यात्रा कर रहा था तो मुझे कई ब्राह्मण ऐसे मिले जो अपने देश, या प्रांत के बारे में कुछ भी नहीं जानते. वे अपनी ही दुनिया में ऐसे खोए रहते हैं कि अपने गांव के बाहर तक की भी ख़बर उन्हें नहीं होती. यहां Munich में भी मैं एक बंगाली को जानता हूं जो भारत में कलकत्ता में रहा लेकिन कभी भी किसी आस-पास के गांव में नहीं गया. उसने कभी भी कहीं जा कर नल का पानी पीया, केवल बोतल-बन्द पानी पीता था. और मैं वहां गांव गांव पैदल गया, हर तरह का रहन सहन खुद अपना कर देखा. इस लिए मुझे लगता है कि भारत में सनकी लोग ज़्यादा हैं. मैं जब भी किसी पर्यटन समूह को भारत दिखाने ले कर जाता हूं तो यही समझाने की कोशिश करता हूं कि वे भारत को पश्चिमी नज़रिए से कभी भी समझ नहीं सकेंगे. या तो वे भारत को प्यार करेंगे, या फिर उससे नफ़रत करेंगे, लेकिन कभी उसे समझ नहीं पाएंगे. कितने ही लोगों को मैं जानता हूं जो एक बार भारत जाने के बाद कभी दोबारा नहीं जाना चाहते. जाना तो दूर, वे भारत के साथ कोई वास्ता ही नहीं रखना चाहते. वहीं दूसरी और ऐसे लोग भी हैं जिन्हें भारत जाने के बाद वहां की लत लग जाती है. एक बड़ी उदाहरण तो मैं खुद हूं. मैं ऐसे वर्ष की कल्पना भी नहीं कर सकता जिस में मैं कम से कम एक बार भारत ना जा सकूं. ऐसा भी नहीं कि भारत से मेरा मतलब Asia या फिर किसी दूसरे दक्षिण Asian देश से है. चीन तो मैं कभी गया नहीं, श्री लंका को एक छोटा तमिलनाडू कहा जा सकता है. पाकिस्तान और बांगलादेश की तुलना दूर दूर तक भी भारत के साथ नहीं की जा सकती क्योंकि वहां एक बहुत महत्व-पूर्ण चीज़ गायब है, वो है हिन्दूत्व. हिन्दू धर्म मुझे बहुत प्रिय है. हिन्दूत्व जैसी सहिष्णुता किसी भी दूसरे धर्म में नहीं है. लेकिन वहीं पर भारत में Muslim धर्म भी बहुत व्याप्त है. शायद दुनिया में कोई ऐसा दूसरा देश नहीं जहां इतनी तरह के युग, धर्म और इमारतें हों. यही चीज़ें भारत को खास बनाती हैं. ये भी नहीं कि भारत में सब कुछ अच्छा ही है. वहां बहुत सी बुराईयां भी हैं, जैसे जाति प्रथा. जाति प्रथा वहां अभी तक ज़िन्दा है. हो सकता है विदेशियों को ये ना नज़र आती हो लेकिन मैं जानता हूं कि ये मौजूद है. वहां छोटी जाति वालों को बहुत ही नीचे गिरा कर रखा जाता है, उन्हें बराबर हक प्राप्त नहीं होते. सदियों में विकसित हुई सभ्यता कुछ वर्षों में नहीं बदल सकती. बड़े शहरों में गन्दगी घृणा योग्य है. सब से ख़राब है आगरा. ताजमहल के ठीक नीचे यमुना बहती है, ये नदी नहीं नाला है, गन्दा नाला. ये शायद दुनिया की सब से गन्दी नदी है. दिल्ली, मथुरा, आगरा, सब कहीं से गन्दगी इस नदी में बहायी जाती है. मुम्बई जाते समय किसी दरिया के ऊपर से पुल के द्वारा करीब दस minute का रास्ता तय करना पड़ता है. उससे निरी बदबू आती है. ये तो बहुत ही घृणा योग्य है. इस के कभी ना कभी बहुत बुरे परिणाम होंगे. और मज़े की बात है कि इन चीज़ों के बारे में किसी में जागृति नहीं है. हालांकि भारतीय खुद बहुत साफ़ सुथरे रहते हैं, घर को साफ़ रखते हैं, साफ़ कपड़े पहनते हैं, रोज नहाते हैं. झुग्गी झोंपडियों में रहने वाले भी साफ़ रहते हैं, लेकिन घर के बाहर की गन्दगी से उन्हें कोई वास्ता नहीं होता.
मैं कभी चीन नहीं गया लेकिन मुझे नहीं लगता कि चीन में हालत इस से अच्छी होगी. कुछ देर पहले मैंने एक लेख में पढ़ा था कि चीन में अत्यधिक ग़रीबों की हालत भारत से भी बुरी है लेकिन वह बाहर से दिखाई नहीं देती, उसे छुपा कर रखा जाता है. वहां केवल boom कर रहे अमीर जगमगाते शहरों को दिखाया जाता है. लेकिन वहां भी भारत की तरह सत्तर प्रतिशत से अधिक आबादी गांवों में रहती है. वहां ग़रीबी भारत से भी बुरी है, ऐसा मैंने पढ़ा है. दोनों देशों में एक बड़ा फर्क है कि भारत लोकतांत्रिक है और वहां बहुत बड़ा और आज़ाद print media है. चीन में ऐसा नहीं है. इस लिए चीन में ये गदंगी दिखाई नहीं जा सकती. जैसा अरुनधति राय ने नर्मदा के बारे में किया, वैसा चीन में सम्भव नहीं है.
भारत में किसी मर्द का, और वो भी किसी विदेशी का किसी पराई औरत के साथ परिचय होना बहुत मुश्किल है. मुझे किसी औरत के साथ परिचय होने में कई साल लगे, वो भी जब मैं अपनी पत्नी Karen के साथ भारत गया. भारत में केवल शादी के बाद ही मर्दों को सुरक्षित समझा जाता है. अभी नर्मदा के पास मेरी कुछ अच्छी दोस्त बनीं लेकिन वे ब्रह्मचार्य हैं.
भारत के बारे में कुछ भी ऐसा नहीं कहा जा सकता जो हर जगह एक जैसा हो. हर चीज़ का उलटा भी वहां है. हम जब Germany से पर्यटन group ले कर जाते हैं तो हमेशा वहां एक local guide भी होता है जो German बोलता है. पिछली बार जब हम मुम्बई गए तो वहां की local guide ने मुम्बई का बहुत सुन्दर वर्णन किया कि ये बहुत ख़ूबसूरत शहर है, सभी औरतों के पास मर्दों जैसे अधिकार हैं, सभी औरतें काम करती हैं. लेकिन मैं जानता हूं कि ऐसा नहीं है, इसका सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता. अधिकार हैं लेकिन उन्हें यथार्थ रूप नहीं दिया जाता. मुम्बई से बाहर जाओ तो बिल्कुल अलग दुनिया है. महा-राष्ट्र बिहार और केरल से बिल्कुल अलग है. शायद केरल ही ऐसी जगह है जहां औरतों के पास युरोपीय औरतों जैसे अधिकार हैं. यह चीज़ें समाज की हर परत में अलग अलग हैं. हम कर्नाटक में समुद्र के पास एक guest house में रुके थे जो दिखने में पूरी तरह पश्चिमी था. अक्तूबर से April तक वहां केवल विदेशी ही होते हैं. उस का मालिक एक ब्राह्मण परिवार का घर था. मालकिन की उम्र कोई पचास साल थी, बहुत दृढ़ स्वभाव की थीं और बहुत अच्छी अंग्रेज़ी बोलती थीं. लेकिन वो कभी घर के बाहर नहीं गई. बाज़ार भी नहीं. वे समझते हैं कि ब्राह्मण के बाहर जाने से प्रतिष्ठा कम होती है, लोग समझेंगे कि वे एक नौकर को सामान ख़रीदने के लिए बाज़ार नहीं भेज सकते. बेंगलौर में एक परिवार के साथ मेरा परिचय हुआ जो अपने बच्चों के साथ केवल अंग्रेज़ी में बात करते हैं. बच्चों को कन्नड भाषा बिल्कुल नहीं आती, केवल अंग्रेज़ी आती है. यह बहुत आश्चर्य-जनक बात है कि वे वहां रहते हैं लेकिन कन्नड नहीं बोल सकते. यह मुझे अच्छा नहीं लगा लेकिन क्या करें ये आधुनिक जमाना है. ये 'भारतीय अंग्रेज़ी' मुम्बई और बेंगलौर जैसे बड़े शहरों के समाज में लगभग पूरी तरह घुल-मिल गई है. ये सामान्य अंग्रेज़ी से अलग एक नई भाषा है, भारत की अपनी अंग्रेज़ी.
वहीं Germany ऐसा देश है जहां हर चीज़ के लिए नियम बना दिया गया है. ये बहुत बुरा लगता है, जैसे एक jail में रह रहे हों. यहां कोई ऐसे ही सड़क पर जा कर चाय नहीं बेच सकता. अभी हाल ही 'Süddeutsche Zeitung' में एक लेख छपा था कि Germany में और किस चीज़ का नियम बनना बाक़ी है.
मुझे बहुत ख़ुशी होगी अगर मैं हर वर्ष सर्दियां भारत में बिता पाऊं. मुझे रहने के लिए कर्नाटक में समुद्र और पहाड़ों के पास का क्षेत्र बहुत अच्छा लगता है. ये एक स्वर्ग जैसा है. ये गर्मियों की उत्तर भारत की तरह गर्म नहीं होता और सर्दी में इतना ठण्डा भी नहीं होता. मैं तो वहां एक घर भी ख़रीदना चाहूंगा लेकिन विदेशी होने के नाते ख़रीद नहीं सकता. इस तटीय क्षेत्र में ज़मीन और मकानों की कीमत अभी भी कम है लेकिन दस पन्द्रह सालों में यह जगह बहुत बहुत मंहगी हो जाएगी. महा-राष्ट्र के तट Goa से भी कहीं अधिक सुन्दर हैं, लेकिन अभी वहां पर्यटन उद्योग का विस्तार नहीं हुआ. छोटे छोटे शहर जैसे अलीबाग, मुरुड, रत्नागिरी आदि. कुछ ही वर्षों में वहां अन्तर-राष्ट्रीय पर्यटन काफ़ी जोर पकड़ लेगा. ये जगहें सपनों की तरह सुन्दर हैं..
मैं पहले तट के साथ साथ कर्नाटक से मुम्बई तक 800 kilometre पैदल गया. फिर बरूच से होशंगाबाद तक नर्मदा के साथ साथ 450 kilometre चला. फिर 450 kilometre गंगा, भगीरथी, मन्दाकिनी, अलखनन्दा के साथ साथ गोमुख तक गया. तट के साथ साथ छोटे छोटे guest house थे जहां मैं रुकता था. महा-राष्ट्र में छोटे छोटे गांवों में मैं ब्रह्मणों के पास रुकता था जो कमरे किराए पर देते थे. नर्मदा के पास ऐसा कुछ नहीं था. लेकिन वहां परिक्रमा नामक एक तीर्थ रास्ता है जहां बहुत सी धर्म-शालाएं, आश्रम आदि हैं, वहां बहुत से तीर्थ यात्री, साधू, महात्मा रहते हैं. वहां मुफ़्त में खाने और सोने को मिल जाता है. वहां छह सप्ताह तक मेरे पास एक पैसा नहीं था. 'नर्मदा जी' मेरे लिए भारत की धड़कन की तरह है. मैंने भारत में और कहीं ऐसा अतिथि सत्कार नहीं देखा. मुझे इस यात्रा में कोई तकलीफ़ नहीं हुई, न ही भय लगा. हां एक बार बन्दरों से सामना ज़रूर हो गया. नर्मदा के पास भील नामक आदि-वासी लोग रहते हैं. वहां जाना खतरनाक है. वे यात्रियों को लूट लेते हैं. लेकिन हर कोई इस बारे में जानता है इस लिए वहां कोई नहीं जाता. साधू भी वहां से पैदल निकलते हैं और लूट लिए जाते हैं, लेकिन उनके पास लूट लिए जाने को कुछ खास नहीं होता. ये यात्रा मैंने January 2005 से जून 2005 तक की..
ये किताब पिछले साल (2006 में) प्रकाशित हुई और इसे लिखने में करीब चार महीने लगे. हालांकि मैं यात्रा के दौरान साथ भी काफ़ी लिखता रहा लेकिन अधिकतर हिस्सा मैंने बाद में लिखा.
मंगलवार, 4 दिसंबर 2007
मालगाड़ी के लिये रेलमार्ग
शनिवार, 18 अगस्त 2007
Faurecia
1858-1891 महान निर्माता का प्रादुर्भाव:
1914-1929 सफलता की राह पर बर्ट्रेंड फौरे (Bertrand Faure) और सोमर (Sommer):
1950-1985 मोटर वाहन की और अग्रसर: अवसर के उपयुक्त व्यवसाय करने वाले व्यापारी जोसेफ अल्बर्ट (Joseph Alibert), जिसने सन् 1910 में फ्रांस के इसरे (Isére) क्षेत्र में अपनी कंपनी की स्थापना की थी, के दामाद बर्नार्ड डेकोनिंक (Bernard Deconinck) ने अमेरिका के एक इंजेक्शन माउल्डिंग मशीन, जिसकी सहायता से प्लास्टिक के बड़े-बड़े हिस्सों को माउल्ड करके एक अदद खण्ड बनाया जा सकता था, पर निवेश (invest) करना पसंद किया। इस निवेश ने उसे उसके रेफ्रिजरेटर निर्माण का कार्य को छुड़वाकर, मोटर वाहन उद्योग में लाकर खड़ा कर दिया।
इस प्रकार फ्रेरेस पेग्योट कंपनी, जिसकी सहायकों (subsidiaries) में से एक को आजकल पेग्योट एट सी (पेग्योट एण्ड कंपनी) के नाम से जाना जाता है, अनेक शाखाओं में विभाजित होकर मोटर वाहन उपकरण, जिनमें अन्य उपकरणों के साथ सीटें, एक्झास्ट प्रणाली और स्टीयरिंग कॉलम सम्मिलित हैं, निर्माण का कार्य करने लग गई।
1987 एसिया का प्रारम्भ और बर्ट्रेंड फौरे का विकास: AOP (Aciers & Outillages Peugeot - Peugeot Steels and Tools) तथा Cycles Peugeot का आपस में विघटन हो गया और इस प्रकार एसिया अस्तित्व में आया। बाद के दशकों ने इस कंपनी का, क्रियात्मक तथा भौगोलिक सीमाओं में, उच्चवर्गीय विकास का अवलोकन किया। व्होल्कस्वेगन (Volkswagen), रेनॉल्ट (Renault), डेमर बेंज (Daimler-Benz), ओपल (Opel), होंडा (Honda), और मित्सबिशी (Mitsubishi) सभी ने एक्झास्ट प्रणाली, सीटें, वाहन के अंदरूनी हिस्से या सामने के हिस्से खरीदने के लिये कंपनी को अपनी मांगपत्र (order) दिये। उसी समय एसिया ने, विशेषतः जर्मनी के एक्झास्ट प्रदाय करने वाली लेस्ट्रिट्ज एब्गैसटेक्निक (Leistritz Abgastechnik) तथा स्पेन के PCG Silenciadores को सम्मिलित करके, भारी लाभ कमाया और यूरोपियन मॉड्यूल में प्रमुख स्थान प्राप्त किया।
1993-1996 विशेषज्ञता वृद्धि तथा विस्तारीकरण: सन् 1993 के बाद, स्पेनिश फर्म (firm) लिग्नोटोक (Lignotock) के साथ मिलकर, विदशों में बड़े-बड़े विस्तार किये गये, परिणामस्वरूप कंपनी का जर्मनी में अस्तित्व और भी सशक्त होता चला गया। बर्ट्रेंड फौरे समूह ने अपने सभी अन्य क्रियाकलापों, जिनमें शैय्या (beds) (एप्डा - Epéda और मरीनॉस - Mérinos), यात्री सामग्री (Luggage) (डेल्से - Delsey), और यानविद्या (Aeronautics) (रेटर फिगेक - Ratier-Figeac) शामिल थे, को अलग करते हुये मोटर वाहन को विकसित किया।
1997 बर्ट्रेंड फौरे + एसिया = Faurecia: 11 दिसम्बर 1997 को एसिया, जिसके भविष्य के विषय में PSA पेग्योट सिट्रोन समूह के भीतर पिछले 2 वर्षों से अटकलें लगाई जा रहीं थीं, ने बर्ट्रेंड फौरे में अपने 99% प्रत्यक्ष (direct) और परोक्ष (indirect) अंशदानों (shareholdings) को लगाने के अपने प्रस्ताव को स्वीकृत कराने में सफलता प्राप्त की। इस प्रकार फौरेसिया समूह का जन्म हुआ।
2000 सोमर अल्बर्ट की प्राप्ति: अक्टूबर माह में सोमर अल्बर्ट (Sommer Allibert) को प्राप्त कर लिया गया। इस सौदे को PSA पेग्योट सिट्रॉन समूह, जिसने फौरेसिया में अपने अंशदानों में 71.5% की वृद्धि कर लिया था, ने ऋण-पोषित (finance) किया। जर्मनी और स्पेन में अच्छी तरह से स्थापित सोमर अल्बर्ट की इस शाखा के पास के पास यूरोप में, वाहन के आंतरिक उकरणों विशेषतः डोर पेनल्स, इन्स्ट्रुमेंट पेनल्स और एकॉस्टिक पैकेजेस के लिये, पर्याप्त अंशपूँजी है।
वर्तमान में: वर्तमान में फौरेसिया, अपने 60,000 कर्मचारियों के सहयोग से, विश्व के 28 देशों में अपने उत्पादों का प्रतिवर्ष 11 करोड़ यूरो से भी अधिक का विक्रय करती है। मोटर वाहनों के उपकरण प्रदाय करने वाली कंपनियों में इसका स्थान यूरोप में द्वितीय तथा पूरे विश्व में 9वाँ है।
शुक्रवार, 15 जून 2007
wikipedia पुस्तक के रूप में
इंटरनेट के चलते प्रिंट मीडिया की भूमिका कम भले ही हो गई हो लेकिन वह खत्म कभी नहीं हो सकती। इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि जर्मनी की प्रसिद्ध विश्वकोश कंपनी ब्रॉकहाउस (http://www.brockhaus.de/) ने कुछ ही समय पहले अपने विश्वकोश का प्रिंट संस्करण बंद करके मुफ़्त ऑनलाइन उपलब्ध करवाने का फ़ैसला केवल वापस ही नहीं लिया बल्कि ऑनलाइन उपलब्ध करवाने की तिथि भी स्थगित कर दी है।
एक दूसरा बड़ा उदाहरण है, सितंबर 2008 से विश्व का प्रसिद्ध मुक्त ऑनलाईन विश्वकोश विकिपीडिया (http://de.wikipedia.org/wiki/Wiki) के जर्मन संस्करण का एक पुस्तक के रूप में दुकानों पर बिक्री के लिए उपलब्ध होना। इस तरह की पहल केवल जर्मन भाषा में ही की गई है जो विकिपीडिया में अंग्रेज़ी के बाद दूसरी सबसे बड़ी भाषा है। जर्मनी की प्रसिद्ध प्रकाशन कंपनी Bertelsmann का शब्दकोश विभाग (http://www.wissenmedia.de/) ये काम 'ग्नू मुक्त प्रलेखन अनुमति पत्र' (GNU Free Documentation License) के अंतर्गत कर रहा है। हालांकि Bertelsmann कंपनी खुद भी विश्वकोश के व्यवसाय में काफ़ी लंबे समय से है और अपने खुद के विश्वकोश पुस्तक के रूप में बाज़ार में बेच रही है, फिर उसे विकिपीडिया को बाज़ार में लाने की क्या ज़रूरत पड़ गई, इसमें उसे क्या फ़ायदा दिखा?
इस प्रश्नों के उत्तर ढूंढने के लिए बसेरा ने कंपनी की Verlagsleiterin, Dr. Beate Varnhorn के साथ खास बातचीत की। बातचीत में उन्होंने बताया कि विकिपीडिया एक आम जनजीवन के अनुसार ढला हुआ विश्वकोश है जिसमें आम लोग लिखते हैं। और वे वही लिखते हैं जिसमें उन्हें अधिक रुची होती है, जबकि पारंपरिक विश्वकोश शिक्षा पर आधारित होता है। उदाहरण के लिए विकिपीडिया में इलेक्ट्रानिक्स, mp3 player, कैमरा, कंप्यूटर गेम्स, Carla Bruni-Sarkozy, फ़्लैट स्क्रीन टीवी आदि के बारे में लिखा जाता है जबकि पारंपरिक विश्वकोश में आप इन चीज़ों के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं पाएंगे। इसलिए हमें लगता है कि ये पुस्तक हमारे अभी तक बिक रहे विश्वकोश से बिल्कुल अलग होगी। इससे हम एक नए तरह की ग्राहक श्रेणी तक पहुंच सकेंगे। इस श्रेणी में मुख्य तौर पर युवा लोग होंगे। विकिपीडिया के लिए भी ये महत्वपूर्ण है क्योंकि इस विकिपीडिया उन लोगों को भी उपलब्ध होगा जो नियमित इंटरनेट नहीं देख पाते या जो कंप्यूटर नहीं जानते। इस तरह लिखित विकिपीडिया हमारे पारंपरिक विश्वकोश का प्रतिद्वंधि नहीं बल्कि पूरक होगा। हम विकिपीडिया के साथ मिलकर तकनीकी काम कर रहे हैं, और दिनभर देखते हैं कि लोग किन किन शब्दों की खोज करते हैं। हमें यह सब देख कर बहुत मज़ा आता है। ये पुस्तक ऑनलाइन विकिपीडिया की 1:1 कॉपी नहीं होगी, बल्कि ऑनलाईन संस्करण में 50,000 सबसे अधिक खोजे गए शब्दों पर आधारित होगी। ये पुस्तक एक शब्दकोश (Lexicon) के रूप में हर वर्ष नए संस्करण में प्रकाशित होगी। इस पुस्तक का मूल्य €19.95 होगा। बसेरा के ये पूछने पर कि विकिपीडिया में लिखने वाले लोगों को तो कोई धन मिलता नहीं, फिर आप क्यों इस बने बनाए विश्वकोश से धन कमाने पर तुले हैं, Dr. Varnhorn ने कहा कि हम हर बेची गई पुस्तक में से एक यूरो विकिपीडिया (Wikimedia Deutschland e.V.) की वित्तीय मदद के लिए देंगे।
डीवीडी के रूप में तो विकिपीडिया पहले ही मिल रहा है, केवल एक यूरो में। यह डीवीडी कंपनी zeno (http://www.zeno.org/) द्वारा प्रकाशित है।
अतः इसमें कोई शक नहीं कि प्रिंट प्रिंट है, उसका कोई सानी नहीं।
शुक्रवार, 8 जून 2007
हाथ से बनाई हुई मोमबत्तियां
http://www.wachszieherei.de/