सोमवार, 31 दिसंबर 2007

छह युवाओं ने टैक्सी वाली को लूटा

छह युवकों ने मिल कर टैक्सी वाली को लूटा

म्युनिख. एक महिला टैक्सी ड्राइवर के साथ कुछ युवकों ने न सिर्फ लूटपाट की बल्कि उसके साथ मारपीट भी की. इस घटना से क्षेत्र में दहशत का माहौल बन गया है. घटना की सूचना मिलते ही पुलिस हरकत में आई और 5 आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया है. एक अन्य फरार युवक की तलाश जारी है. पुलिस सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार विगत 29 दिसम्बर को छह युवको ने Fürstenfeldbruck S-Bahn से टॉलवुड मेले में जाने के लिये टैक्सी की। बताया गया है कि टैक्सी में महिला ड्राइवर को देख कर उनकी नीयत बदल गई और आपस में उन्होंने लूटपाट करने की योजना बना ली. जैसे ही टैक्सी मेला स्थल के करीब पहुची वैसे ही टैक्सी में सवार 6 युवकों में से पाँच लोग टैक्सी से उतर गये. लेकिन छठवाँ युवक बिल देने के बहाने टैक्सी में ही बैठा रहा. बताया गया है कि उनका टैक्सी का किराया 42.50 यूरो बना था. पैसा लेन देन के दौरान जैसे ही 47 वर्षीय महिला टैक्सी ड्राईवर ने अपना बटवा निकाला, उस टैक्सी में बैठे 18 वर्षीय युवक ने बटवा छीनने की कोशिश की। लेकिन पहले प्रयास में युवक को बटुआ छीनने में सफलता नहीं मिल पाई इससे आक्रोशित होकर युवक ने महिला की बाजू पर हमला करना प्रारंभ दिया. अचानक हुए इस हमले से महिला टैक्सी ड्राइवर घबरा गई और हाथ में चोट लगने की वजह से उसकी बटुए में पकड़ ढीली हो गई. इस घटना क्रम के दौरान हमला करने वाले युवक के साथी टैक्सी के बाहर खड़े होकर यह घटना होते देख रहे थे. तभी अचानक टैक्सी के अंदर रुका युवक बटुआ छीनने में कामयाब हो गया और तेजी से बाहर निकल आया. और फिर वे सब भागकर मेले में घुस गये। युवकों के फरार होती ही महिला टैक्सी ड्राइवर ने मदद की गुहार लगाई और आनन फानन में घटना की सूचना पुलिस को दी गई. घटना की सूचना मिलते ही पुलस ने सक्रियता के साथ आरोपियों की तलाश प्रारंभ कर दी है. काफी मशक्कत के बाद पुलिस को पहली कामयाबी मिली और उसके हत्थे दो आरोपी चढ़ गए. इनसे कड़ाई के साथ पूछताछ करने पर आरोपियों ने अपने साथियों का नाम पता ठिकाना सब बता दिया. जिसके आधार पर की गई छापामार कार्रवाई में पुलिस ने 5 आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया है. पकड़े जाने वाले पाँच अपराधियों में एक सर्बिया से 17 वर्षीय छात्र है, एक क्रोएशिया से 17 वर्षीय ट्रेनी, एक 17 वर्षीय अफ़्गानिस्तान का नागरिक, एक इक्वाडोर से 18 वर्षीय छात्र और एक बटवा छीनने वाला तुर्की से 18 वर्षीय छात्र। अभी इनमें से एक 19 वर्षीय टोगो का नागरिक फरार है। पुलिस ने दावा किया है कि उसे शीघ्र ही पकड़ लिया जाएगा. प्राथमिक पूछताछ के दौरान आरोपियों ने अपना अपराध स्वीकार करते हुए खुलासा किया है कि उन्होंने जानबूझ कर टैक्सी में बिना पैसा दिये यात्रा की क्योंकि उनके पास पैसे नहीं थे। उन्हें सज़ा के लिये जज के सामने पेश किया जायेगा।

गुरुवार, 27 दिसंबर 2007

दक्षिण पूर्वी ऐशियाई सांस्कृतिक कार्यक्रम


16 दिसंबर को म्युनिक में दक्षिण पूर्वी ऐशियाई सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन हुआ जिसमें म्युनिक शहर में रहने वाले जर्मनी, भारत, अफ़्गानिस्तान, बंगलादेश और श्री लंका के कलाकारों ने विभिन्न कार्यक्रम पेश किये। कार्यक्रम के मुख्य आकर्षण थे-म्युनिक के मशहूर जर्मन कामेडी कलाकार मोसिस (Moses Wolff, http://www.moses-wolff.de/) के द्वारा छोटा सा आईटम, दीपक आचार्य (SAP Consultant) के द्वारा गज़ल गायन, सैकत भट्टाचार्य द्वारा हिन्दी और बंगाली गीत, आदरणीय सुनील बैनर्जी द्वारा सितार वादन, अफ़्गानिस्तान के परवेज़ द्वारा तबला वादन, बंगलादेश की जासमीन द्वारा लोकगीत, लीना घोष के द्वारा भारतनाट्यम।

इस आयोजन के मुख्य कर्ता धर्ता श्री अमिताव दास (www.infoforu.de) का कहना है कि इस कार्यक्रम का आयोजन सफ़ल रहा और इसकी भारी सराहना हुई है। हम यहाँ गुमनाम जीवन व्यतीत कर रहे भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों के लिए एक मंच तैयार करना चाहते हैं जहाँ हम अपने त्यौहार और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित कर सकें। म्युनिक में रहने वाले भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों में अब तक ऐसे कार्यक्रम नहीं होते थे। विदेश में अपनी जड़ें बरकरार रखना आसान नहीं है। एक ही मूल के लोगों को पूजा, ईद, क्रिसमस आदि के मौकों पर एक साथ होकर आनंद लेना चाहिये। इस तरह के कार्यक्रमों में लोग एक दूसरे से मिल बैठ अपने सुख दुख बाँट सकते हैं। इस कार्यक्रम के दौरान हमने कलाकारों और दर्शकों में नया आत्मविश्वास जगता हुआ देखा। कलाकारों ने भरपूर मेहनत करके इस कार्यक्रम को सफ़ल बनाया है। खास कर युवा लड़की लीना घोष ने भारतनाट्यम पेश करके पश्चिमी दुनिया में बह जाने वाले प्रवासियों के लिये उदाहरण पेश किया है। सुझाव आमंत्रित हैं।

इस कार्यक्रम के फ़ोटो आप यहाँ देख सकते हैं-
https://plus.google.com/photos/104904719684307594934/albums/5147978778902504721

शनिवार, 15 दिसंबर 2007

पवित्र रास्तों का पथिक

1968 में जर्मनी में जन्मे क्रिस्टियान क्रूग (Christian Krug) को भारत से खास लगाव है। 1995 में वे पहली बार भारत घूमने गये, और उसके बाद हर वर्ष वे कम से कम एक बार वे भारत घूमने अवश्य जाते हैं। वहाँ का मौसम, आज़ादी, विभिन्न सांस्कृतियों, भाषाओं और धर्मों का एक-साथ शांतिप्रिय विचरण उन्हें बहुत भाता है। 2005 में उन्होंने गोआ से लेकर गो-मुख तक 1700 किलोमीटर की पैदल यात्रा की और फिर जर्मन में अपनी इस यात्रा के बारे में पुस्तक लिखी Auf Heiligen Spuren (पवित्र रास्तों पर, चित्र देखें)। करीब छह महीनों से वे Studiosus (http://www.studiosus.com/) नामक पर्यटन कंपनी के साथ गाइड के तौर पर कार्यरत हैं और नियमित रूप से विभिन्न पर्यटन समूहों को भारत दिखाने जाते हैं। वे भारत, उसके इतिहास, ऐतिहासिक स्थलों आदि के बारे में एक आम भारतीय से काफ़ी अधिक जानते हैं। 15.12.07 को म्युनिक में उनसे हुई बातचीत के अंश उनके मुख से।

अभी कुछ दिन पहले ही मैं एक पर्यटन समूह के साथ लगभग पूरे भारत का भ्रमण करके लौटा हूँ, जैसे वाराणासी, खाजुराहो, राजस्थान, मुम्बई, केरल, आगरा, तामिलनाडु। काशमीर एवं उत्तरी पूर्वी प्रदेशों को छोड़कर मैं लगभग सारा भारत देख चुका हूँ। हाँ बिहार और पश्चिम बंगाल के बारे में मैं अभी इतनी अच्छी तरह नहीं जानता। भारत इतना बड़ा है कि इसके बारे में पर्याप्त जानकारी हासिल करने में अभी दस पंद्रह वर्ष और लगेंगे। कुछ उत्तरी पूर्वी प्रदेशों (जैसे अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मिज़ोरम) में विदेशियों को अकेले जाने की अनुमति नहीं है। वे केवल कम से कम चार जनों के एक पर्यटन समूह के साथ जा सकते हैं, वो भी 200 डालर के प्रवेश शुल्क के साथ। चार साल पहले तक तो अरिणाचल प्रदेश विदेशियों के लिये पूरी तरह बंद था। मई जून को छोड़ कर वहाँ का मौसम मुझे बहुत अच्छा लगता है। यहाँ जर्मनी में तो बहुत ठंड पड़ती है (जैसे आज पड़ रही है), वो भी बहुत लंबे समय तक, नवंबर से लेकर मार्च अप्रैल तक। गर्म मौसम ठंड से कहीं अच्छा है। मुझे ठंड बिल्कुल पसंद नहीं। मुझे खुशी है कि मैं अगले सप्ताह फिर से एक पर्यटन समूह के साथ भारत जा रहा हूँ।।

Studiosus यूरोप की सबसे बड़ी अध्ययन संबंधी पर्यटन की सबसे बड़ी कंपनी है जो दुनिया भर के देशों में पर्यटन आयोजित करती है। पर्यटन के दौरान हर समय कम से कम एक गाइड साथ रहता है जो वहाँ की संस्कृति, इतिहास आदि का अच्छा जान कार होता है। मुझे भी दिन-भर बस में, जहाज़ में, ट्रेन में जहाँ जहाँ हम जाते हैं, यात्रियों को वहाँ के बारे में बताना पड़ता है। इस लिये बहुत अच्छी तरह तैयारी करनी पड़ती है, बहुत पढ़ना पड़ता है।।

भारत एक अनोखा देश है। मैं दस साल से वहाँ जा रहा हूँ लेकिन मैं भारत को अभी तक ठीक तरह से नहीं समझ पाया हूँ। भारत एक विक्षिप्त देश है जहाँ सब कुछ है और हर कोई जो जी में आये कर सकता है। जैसे मैंने कई साधुओं को देखा जो कई वर्षों से मौन हैं, या हाथ ऊपर किये हुये जी रहे हैं, या एक स्थान पर बिना हिले डुले रह रहे हैं, या पूरा दिन हंसते रहते हैं, नंगे रहते हैं, बिन पकाया खाना खाते हैं। जर्मनी में ऐसे लोगों को जेल में डाल दिया जायेगा या फिर उनका मनोवैज्ञानिक इलाज करवाया जायेगा, लेकिन वहाँ पर ये आत्मा शुद्धि का ज़रिया माने जाते हैं। वहीं दूसरी तरफ़ तमिलनाडु में ऐसी बच्चियाँ जिनके माँ बाप नहीं होते, उन्हें समाज से पूरी तरह निष्कासित कर दिया जाता है। बंगाल, असम में अभी भी जादू टोना व्याप्त है। भारत में जितनी विविधतायें हैं, शायद दुनिया में और कहीं नहीं।।

मुझे ये बार बार आभास होता रहा हैं कि भारतीय खुद भारत के बारे में नहीं जानते या समझते। जब मैं भारत में पैदल यात्रा कर रहा था तो मुझे कई ब्राह्मण ऐसे मिले जो अपने देश, या प्रांत के बारे में कुछ भी नहीं जानते। वे अपनी ही दुनिया में ऐसे खोये रहते हैं कि अपने गाँव के बाहर तक की भी खबर उन्हें नहीं होती। यहाँ म्युनिक में भी मैं एक बंगाली को जानता हूँ जो भारत में कलकत्ता में रहा लेकिन कभी भी किसी आसपास के गाँव में गया। उसने कभी भी कहीं जाकर नल का पानी पीया, केवल बोतलबंद पानी पीता था। और मैं वहाँ गाँव गाँव पैदल गया, हर तरह का रहन सहन खुद अपनाकर देखा। इस लिये मुझे लगता है कि भारत में सनकी लोग ज़्यादा हैं। मैं जब भी किसी पर्यटन समूह को भारत दिखाने लेकर जाता हूँ तो यही समझाने की कोशिश करता हूँ कि वे भारत को पश्चिमी नज़रिये से कभी भी समझ नहीं सकेंगे। या तो वे भारत को प्यार करेंगे, या फिर उससे नफ़रत करेंगे, लेकिन कभी उसे समझ नहीं पायेंगे। कितने ही लोगों को मैं जानता हूँ जो एक बार भारत जाने के बाद कभी दोबारा नहीं जाना चाहते। जाना तो दूर, वे भारत के साथ कोई वास्ता ही नहीं रखना चाहते। वहीं दूसरी और ऐसे लोग भी हैं जिन्हें भारत जाने के बाद वहाँ की लत लग जाती है। एक बड़ी उदाहरण तो मैं खुद हूँ। मैं ऐसे वर्ष की कल्पना भी नहीं कर सकता जिसमें मैं कम से कम एक बार भारत न जा सकूँ। ऐसा भी नहीं कि भारत से मेरा मतलब ऐशिया या फिर किसी दूसरे दक्षिण ऐशियाई देश से है। चीन तो मैं कबी गया नहीं, श्री लंका को एक छोटा तमिलनाडु कहा जा सकता है। पाकिस्तान और बांगलादेश की तुलना दूर दूर तक भी भारत के साथ नहीं की जा सकती क्योंकि वहाँ एक बहुत महत्वपूर्ण चीज़ गायब है, वो है हिन्दूत्व। हिन्दू धर्म मुझे बहुत प्रिय है। हिन्दूत्व जैसी सहिष्णुता किसी भी दूसरे धर्म में नहीं है। लेकिन वहीं पर भारत में मुस्लिम धर्म भी बहुत व्याप्त है। शायद दुनिया में कोई ऐसा दूसरा देश नहीं जहाँ इतनी तरह के युग, धर्म और इमारतें हों। यही चीज़ें भारत को खास बनाती हैं। ये भी नहीं कि भारत में सब कुछ अच्छा ही है। वहाँ बहुत सी बुराईयाँ भी हैं, जैसे जाति प्रथा। जाति प्रथा वहाँ अभी तक ज़िन्दा है। हो सकता है विदेशियों को ये न नज़र आती हो लेकिन मैं जानता हूँ कि ये मौजूद है। वहाँ छोटी जाति वालों को बहुत ही नीचे गिरा कर रखा जाता है, उन्हें बराबर हक नहीं होते। सदियों में विकसित हुई सभ्यता कुछ वर्षों में नहीं बदल सकती। बड़े शहरों में गंदगी घृणा योग्य है। सबसे खराब है आगरा। ताजमहल के ठीक नीचे यमुना बहती है, ये नदी नहीं नाला है, गंदा नाला। ये शायद दुनिया की सबसे गंदी नदी है। दिल्ली, मथुरा, आगरा, सब कहीं से गंदगी इस नदी में बहायी जाती है। मुंबई जाते समय किसी दरिया के ऊपर से पुल के द्वारा करीब दस मिनट का रास्ता तय करना पड़ता है। उससे निरी बदबू आती है। ये तो बहुत ही घृणा योग्य है। इसके कभी न कभी बहुत बुरे परिणाम होंगे। और मज़े की बात है क इन चीज़ों के बारे में किसी में जागृति नहीं है। हालाँकि भारतीय खुद बहुत साफ़ सुथरे रहते हैं, घर को साफ़ रखते हैं, साफ़ कपड़े पहनते हैं, रोज़ नहाते हैं। झुग्गी झोंपड़ियों में रहने वाले भी साफ़ रहते हैं, लेकिन घर के बाहर की गंदगी से उन्हें कोई वास्ता नहीं होता।।

मैं कभी चीन नहीं गया लेकिन मुझे नहीं लगता कि चीन में हालत इससे अच्छी होगी। कुछ देर पहले मैंने एक लेख में पढ़ा था कि चीन में अत्यधिक गरीबों की हालत भारत से भी बुरी है लेकिन वि बाहर से दिखाई नहीं देती, उसे छुपाकर रखा जाता है। वहाँ केवल बूम कर रहे अमीर जगमगाते शहरों को दिखाया जाता है। लेकिन वहाँ भी भारत की तरह सत्तर प्रतिशत से अधिक आबादी गाँवों में रहती है। वहाँ गरीबी भारत से भी बुरी है, ऐसा मैंने पढ़ा है। दोनों देशों में एक बड़ा फ़र्क है कि भारत लोकतांत्रिक है और वहाँ बहुत बड़ा और आज़ाद प्रिंट मिडिया है। चीन में ऐसा नहीं है। इसलिये चीन में ये गदंगी दिखायी नहीं जा सकती। जैसा अरुनधति राय ने नर्मदा के बारे में किया, वैसा चीन में संभव नहीं है।।

भारत में किसी मर्द का, और वो भी किसी विदेशी का किसी परायी औरत के साथ परिचय होना बहुत मुश्किल है। मुझे किसी औरत के साथ परिचय होने में कई साल लगे, वो भी जब मैं अपनी पत्नी कारेन के साथ भारत गया। भारत में केवल शादी के बाद ही मर्दों को सुरक्षित समझा जाता है। अभी नर्मदा के पास मेरी कुछ अच्छी दोस्त बनीं लेकिन वे ब्रह्मचार्य हैं।।

भारत के बारे में कुछ भी ऐसा नहीं कहा जा सकता जो हर जगह एक जैसा हो। हर चीज़ का उल्टा भी वहाँ है। हम जब जर्मनी से पर्यटन ग्रुप लेकर जाते हैं तो हमेशा वहाँ एक लोकल गाईड भी होता है जो जर्मन बोलता है। पिछली बार जब हम मुंबई गए तो वहाँ की लोकल गाईड ने मुंबई का बहुत सुंदर वर्णन किया कि ये बहुत खूभसूरत शहर है, सभी औरतों के पास मर्दों जैसे अधिकार हैं, सभी औरतें काम करती हैं। लेकिन मैं जानता हूँ कि ऐसा नहीं है, इसका सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता। अधिकार हैं लेकिन उन्हें यथार्थ रूप नहीं दिया जाता। मुंबई से बाहर जाओ तो बिल्कुल अलग दुनिया है। महाराष्ट्र बिहार और केरल से बिल्कुल अलग है। शायद केरल ही ऐसी जगह है जहाँ औरतों के पास युरोपीय औरतों जैसे अधिकार हैं। यह चीज़ें समाज की हर परत में अलग अलग हैं। हम कर्नाटक में समुद्र के पास एक गेस्ट हाऊस में रुके थे जो दिखने में पूरी तरह पश्चिमी था। अक्तूबर से अप्रैल तक वहाँ केवल विदेशी ही होते हैं। वो एक ब्राह्मण परिवार का घर था। मालकिन की उम्र कोई पचास साल थी, बहुत दृढ़ स्वभाव की थीं और बहुत अच्छी अंग्रेज़ी बोलती थीं। लेकिन वो कभी घर के बाहर नहीं गई। बाज़ार भी नहीं। वे समझते हैं कि ब्राह्मण के बाहर जाने से प्रतिष्ठा कम होती है, लोग समझेंगे कि वे एक नौकर को सामान खरीदने के लिए बाज़ार नहीं भेज सकते। बेंगलौर में एक परिवार के साथ मेरा परिचय हुआ जो अपने बच्चों के साथ केवल अंग्रेज़ी में बात करते हैं। बच्चों कन्नड़ बिल्कुल नहीं आती, केवल अंग्रेज़ी आती है। यह बहुत आश्चर्यजनक बात है कि वे वहाँ रहते हैं लेकिन कन्नड़ नहीं बोल सकते। यह मुझे अच्छा नहीं लगा लेकिन क्या करें ये आधुनिक ज़माना है। ये 'भारतीय अंग्रेज़ी' मुंबई और बेंगलौर जैसे बड़े शहरों के समाज में लगभग पूरी तरह घुलमिल गई है। ये सामान्य अंग्रेज़ी से अलग एक नई भाषा है, भारत की अपनी अंग्रेज़ी।।

वहीं जर्मनी ऐसा देश है जहाँ हर चीज़ के लिऐ नियम बना दिया गया है। ये बहुत बुरा लगता है, जैसे एक जेल में रह रहे हों। यहाँ कोई ऐसे ही सड़क पर जाकर चाय नहीं बेच सकता। अभी हाल ही 'Süddeutsche Zeitung' में एक लेख छपा था कि जर्मनी में और किस चीज़ का नियम बनना बाकी है।।

मुझे बहुत खुशी होगी अगर मैं हर वर्ष सर्दियाँ भारत में बिता पाऊँ। मुझे रहने के लिए कर्नाटक में समुद्र और पहाड़ों के पास का क्षेत्र बहुत अच्छा लगता है। ये एक स्वर्ग जैसा है। ये गर्मियों की उत्तर भारत की तरह गर्म नहीं होता और सर्दी में इतना ठंडा भी नहीं होता। मैं तो वहाँ एक घर भी खरीदना चाहूँगा लेकिन विदेशी होने के नाते खरीद नहीं सकता। इस तटीय क्षेत्र में ज़मीन और मकानों की कीमत अभी भी कम है लेकिन दस पंद्रह सालों में यह जगह बहुत बहुत मंहगी हो जाएगी। महाराष्ट्र के तट गोआ से भी कहीं अधिक सुंदर हैं, लेकिन अभी वहाँ पर्यटन उद्योग का विस्तार नहीं हुआ। छोटे छोटे शहर जैसे अलीबाग, मुरुड़, रत्नागिरी आदि। कुछ ही वर्षों में वहाँ अंतरराष्ट्रीय पर्यटन काफ़ी ज़ोर पकड़ लेगा। ये जगहें सपनों की तरह सुंदर हैं।।

मैं पहले तट के साथ साथ कर्नाटक से मुंबई तक 800 किलोमीटर पैदल गया। फिर बरूच से होशंगाबाद तक नर्मदा के साथ साथ 450 किलोमीटर चला। फिर 450 किलोमीटर गंगा, भगीरथी, मंदाकिनी, अलखनंदा के साथ साथ गोमुख तक गया। तट के साथ साथ छोटे छोटे गेस्ट हाउस थे जहाँ मैं रुकता था। महाराष्ट्र में छोटे छोटे गाँवों में मैं ब्रह्मणों के पास रुकता था जो कमरे किराए पर देते थे। नर्मदा के पास ऐसा कुछ नहीं था। लेकिन वहाँ परिक्रमा नामक एक तीर्थ रास्ता है जहाँ बहुत सी धर्मशालाएं, आश्रम आदि हैं, वहाँ बहुत से तीर्थ यात्री, साधू, महात्मा रहते हैं। वहाँ मुफ़्त में खाने और सोने को मिल जाता है। वहाँ छह सप्ताह तक मेरे पास एक पैसा नहीं था। 'नर्मदा जी' मेरे लिए भारत की धड़कन की तरह है। मैंने भारत में और कहीं ऐसा अतिथि सत्कार नहीं देखा। मुझे इस यात्रा में कोई तकलीफ़ नहीं हुई, न ही भय लगा। हाँ एक बार बंदरों से सामना ज़रूर हो गया। नर्मदा के पास भील नामक आदिवासी लोग रहते हैं। वहाँ जाना खतरनाक है। वे यात्रियों को लूट लेते हैं। लेकिन हर कोई इस बारे में जानता है इसलिए वहाँ कोई नहीं जाता। साधू भी वहाँ से पैदल निकलते हैं और लूट लिए जाते हैं, लेकिन उनके पास लूट लिए जाने को कुछ खास नहीं होता। ये यात्रा मैंने जनवरी 2005 से जून 2005 तक की।।

ये किताब पिछले साल (2006 में) प्रकाशित हुई और इसे लिखने में करीब चार महीने लगे। हालाँकि मैं यात्रा के दौरान साथ भी काफ़ी लिखता रहा लेकिन अधिकतर हिस्सा मैंने बाद में लिखा।।

मंगलवार, 4 दिसंबर 2007

मालगाड़ी के लिये रेलमार्ग

सन 2002 में फ़्रैंकफ़र्ट और कोलोन शहर के बीच राजपथ 3 (Autobahn 3) के साथ साथ एक नये रेलमार्ग का निर्माण पूरा हुआ। उससे दोनों शहरों के बीच का रास्ता बहुत कम समय में तय होने लगा। लेकिन ये रेलमार्ग खासकर जर्मनी की तेज़ रेल ICE के लिये बनाया गया था जो केवल यात्रियों के लिये उपयोग होती है और बहुत तेज़ गति से चलती है (300 किलोमीटर प्रति घंटा)। मालगाड़ियां, जो बहुत शोर करती हैं और धीमी चलती हैं, को अभी भी बहुत घूम कर जाना पड़ता है, जिससे रेलपथ के आसपास रहने वाले लोगों को भी तकलीफ़ होती है। इस ICE रेलमार्ग को बनाने में दस साल लगे और 5 अरब यूरो से अधिक का खर्च आया। लेकिन मालगाड़ियों के लिये अलग रेल मार्ग बनाने की बहुत सख्त ज़रूरत है क्योंकि राईन दरिया (Rhein) के दोनों तरफ़ के रेलमार्गों पर प्रतिदिन 270 मालगाड़ियां आती जाती हैं। और अगले दस साल में यह यातायात 20 प्रतिशत बढ़ने की संभावना है। लेकिन रेल कंपनी 'दी बान' (Die Bahn) इस रेलमार्ग को बनाने का खर्च उठाना नहीं चाहती। मालगाड़ियां ICE रेलमार्ग पर भी नहीं चल सकतीं क्योंकि मालगाड़ियां ICE की तुलना में बहुत भारी होती हैं और बहुत धीरे चलती हैं (80 किलोमीटर प्रति घंटा)। नया रेलमार्ग शायद राजपथ 45 या 61 के साथ साथ बनाया जायेगा।

शनिवार, 18 अगस्त 2007

Faurecia

France के औद्योगीकरण में Faurecia समूह (http://www.faurecia.com/) की अतिविशिष्ट कार्यकुशलता तथा विशेषज्ञता के योगदान को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता, अपितु इन्हें France के औद्योगीकरण का अमूल्य वंशज कहा जा सकता है।

यद्यपि Cycles Peugeot and Aciers & Outillages Peugeot (Peugeot Steels and Tools) के विघटन होने से Ecia (Equipment and Components for the Automobile Industries) की स्थापना सन् 1987 में हुई, फिर भी Faurecia औद्योगिक परंपरा का सर्वप्रथम एवं प्रमुख उत्तराधिकारी (heir) है जिसका इतिहास सन् 1810 तक पीछे जाता है।

Faurecia मोटर वाहनों के उपकरणों (automobile eqipments) का निर्माण करती है। Faurecia को जर्मनी के प्रमुखतम निर्माणकर्ताओं में से एक होने का श्रेय प्राप्त है।

विभिन्न कालों में इसके योगदान की जानकारी निम्नानुसार हैः
1810 - 1850 Peugeot bros. foundry (ढलाईखाना): Jean-Pierre और Fredric Peugeot भाइयों ने Jacques Maillard-Salins के साथ मिल कर पूर्वी France के Hérimoncourt गाँव में, जो कि Switzerland की सीमा से कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, इस्पात ढलाईखाना (steel foundry) खोलने तथा वहाँ पर आरा-पत्ती (saw blades) निर्माण करने का निश्चय किया।

4 साल बाद ही कारखाने को, उठाव-चढ़ाव (rolling) एवं उपरकरण बनाने की क्रियाकलापों को ध्यान में रखते हुये, बंद कर देना पड़ा। उन दिनों व्यापार तीव्रतापूर्वक पनप रहे थे, Montbéliard क्षेत्र में अनेकों कारखाने खुल गये थे जहाँ पर धातुकार्य (metalwork) उद्योग के साथ ही साथ वस्त्रनिर्माण (textiles) तथा घड़ी-निर्माण (clock-making) महत्वपूर्ण रूप से सफल हो रहे थे। सन् 1850 से Peugeot bros. crinoline petticoats के लिये cage frames ‌और कॉफी पीसने की मशीन (coffee grinders) के निर्माणकार्य में जुट गये जिन में से दूसरे उत्पाद को वर्तमान में भी प्रसिद्धि प्राप्त है।

1858-1891 महान निर्माता का प्रादुर्भाव:
इस काल के आरम्भ में पेग्योट लॉयन पहली बार दृष्टिगत हुआ। 22 वर्षों के पश्चात् "ग्रॉंड बॉइ" के नाम से प्रथम बार गति में तीव्रता लाने वाले पैडल (velocipede) का निर्माण हुआ। इसका निर्माण फ्रेरेस (Fréres) पेग्योट ने किया था। इस नवप्रवर्तन (innovation) के बाद सन् 1891 में, पेट्रोल (petrolium-spirit) अथवा गैस (gasoline) द्वारा चलने वाली इंजिन की विशेषतायुक्त विश्व के आधुनिक मोटर वाहनों के उत्पादन का आरम्भ हुआ। इसके बाद पेग्योट ने अपने उत्पाद इस्पात ट्यूब को पेटेन्ट करवाया। इन इस्पात ट्यूबों का उत्पादन पूर्वी फ्रांस के आडिन्कोर्ट (Audincourt) में विशेष रूप से बनाये गये दो नये कारखानों में से एक में होता था।

1914-1929 सफलता की राह पर बर्ट्रेंड फौरे (Bertrand Faure) और सोमर (Sommer):
सन् 1929 में बर्ट्रेंड फौरी ने लेव्हालोइस (Levallois) में अपनी पहली कार्यशाला (workshop) खोली जो ट्राम तथा पेरिस मेट्रो की सीटों का निर्माण करने के लिये समर्पित थी। उसने "एपिडा" प्रक्रिया, जो उसे मोटर वाहन उद्योग में प्रयुक्त होने वाले सीटें बनाने में निपुणता तथा लाखों लोगों के लिये अनेकों वर्षों तक सुविधा देने वाली स्प्रंग मैट्रेस (spring mattress) नामक एक नये उत्पाद का विकास करने की क्षमता प्रदान करती थी, के लिये अनुज्ञापत्र (license) प्राप्त किया। द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् इन दोनों व्यवसायों में तीव्र गति से वृद्धि हुई। रेनाल्ट (Renault), पेग्योट और सिट्रॉन (Citroén) जैसे कार की सीटें बनाने और मोटर वाहन निर्माण के क्षेत्र के जाने माने दिग्गजों के साथ ही साथ टॉल्बोट (talbot), पैंथार्ड लेव्हेसर (panthard-Levassor), बर्लियेट (Berliet), और सिम्का (Simca) को बर्ट्रेंड फौरे के द्वारा अपना ग्राहक बना लिया जाना उपरोक्त कथन को प्रमाणित करता है।

1950-1985 मोटर वाहन की और अग्रसर: अवसर के उपयुक्त व्यवसाय करने वाले व्यापारी जोसेफ अल्बर्ट (Joseph Alibert), जिसने सन् 1910 में फ्रांस के इसरे (Isére) क्षेत्र में अपनी कंपनी की स्थापना की थी, के दामाद बर्नार्ड डेकोनिंक (Bernard Deconinck) ने अमेरिका के एक इंजेक्शन माउल्डिंग मशीन, जिसकी सहायता से प्लास्टिक के बड़े-बड़े हिस्सों को माउल्ड करके एक अदद खण्ड बनाया जा सकता था, पर निवेश (invest) करना पसंद किया। इस निवेश ने उसे उसके रेफ्रिजरेटर निर्माण का कार्य को छुड़वाकर, मोटर वाहन उद्योग में लाकर खड़ा कर दिया।

इस प्रकार फ्रेरेस पेग्योट कंपनी, जिसकी सहायकों (subsidiaries) में से एक को आजकल पेग्योट एट सी (पेग्योट एण्ड कंपनी) के नाम से जाना जाता है, अनेक शाखाओं में विभाजित होकर मोटर वाहन उपकरण, जिनमें अन्य उपकरणों के साथ सीटें, एक्झास्ट प्रणाली और स्टीयरिंग कॉलम सम्मिलित हैं, निर्माण का कार्य करने लग गई।

1987 एसिया का प्रारम्भ और बर्ट्रेंड फौरे का विकास: AOP (Aciers & Outillages Peugeot - Peugeot Steels and Tools) तथा Cycles Peugeot का आपस में विघटन हो गया और इस प्रकार एसिया अस्तित्व में आया। बाद के दशकों ने इस कंपनी का, क्रियात्मक तथा भौगोलिक सीमाओं में, उच्चवर्गीय विकास का अवलोकन किया। व्होल्कस्वेगन (Volkswagen), रेनॉल्ट (Renault), डेमर बेंज (Daimler-Benz), ओपल (Opel), होंडा (Honda), और मित्सबिशी (Mitsubishi) सभी ने एक्झास्ट प्रणाली, सीटें, वाहन के अंदरूनी हिस्से या सामने के हिस्से खरीदने के लिये कंपनी को अपनी मांगपत्र (order) दिये। उसी समय एसिया ने, विशेषतः जर्मनी के एक्झास्ट प्रदाय करने वाली लेस्ट्रिट्ज एब्गैसटेक्निक (Leistritz Abgastechnik) तथा स्पेन के PCG Silenciadores को सम्मिलित करके, भारी लाभ कमाया और यूरोपियन मॉड्यूल में प्रमुख स्थान प्राप्त किया।

1993-1996 विशेषज्ञता वृद्धि तथा विस्तारीकरण: सन् 1993 के बाद, स्पेनिश फर्म (firm) लिग्नोटोक (Lignotock) के साथ मिलकर, विदशों में बड़े-बड़े विस्तार किये गये, परिणामस्वरूप कंपनी का जर्मनी में अस्तित्व और भी सशक्त होता चला गया। बर्ट्रेंड फौरे समूह ने अपने सभी अन्य क्रियाकलापों, जिनमें शैय्या (beds) (एप्डा - Epéda और मरीनॉस - Mérinos), यात्री सामग्री (Luggage) (डेल्से - Delsey), और यानविद्या (Aeronautics) (रेटर फिगेक - Ratier-Figeac) शामिल थे, को अलग करते हुये मोटर वाहन को विकसित किया।

1997 बर्ट्रेंड फौरे + एसिया = Faurecia: 11 दिसम्बर 1997 को एसिया, जिसके भविष्य के विषय में PSA पेग्योट सिट्रोन समूह के भीतर पिछले 2 वर्षों से अटकलें लगाई जा रहीं थीं, ने बर्ट्रेंड फौरे में अपने 99% प्रत्यक्ष (direct) और परोक्ष (indirect) अंशदानों (shareholdings) को लगाने के अपने प्रस्ताव को स्वीकृत कराने में सफलता प्राप्त की। इस प्रकार फौरेसिया समूह का जन्म हुआ।

2000 सोमर अल्बर्ट की प्राप्ति: अक्टूबर माह में सोमर अल्बर्ट (Sommer Allibert) को प्राप्त कर लिया गया। इस सौदे को PSA पेग्योट सिट्रॉन समूह, जिसने फौरेसिया में अपने अंशदानों में 71.5% की वृद्धि कर लिया था, ने ऋण-पोषित (finance) किया। जर्मनी और स्पेन में अच्छी तरह से स्थापित सोमर अल्बर्ट की इस शाखा के पास के पास यूरोप में, वाहन के आंतरिक उकरणों विशेषतः डोर पेनल्स, इन्स्ट्रुमेंट पेनल्स और एकॉस्टिक पैकेजेस के लिये, पर्याप्त अंशपूँजी है।

वर्तमान में: वर्तमान में फौरेसिया, अपने 60,000 कर्मचारियों के सहयोग से, विश्व के 28 देशों में अपने उत्पादों का प्रतिवर्ष 11 करोड़ यूरो से भी अधिक का विक्रय करती है। मोटर वाहनों के उपकरण प्रदाय करने वाली कंपनियों में इसका स्थान यूरोप में द्वितीय तथा पूरे विश्व में 9वाँ है।

शुक्रवार, 15 जून 2007

wikipedia पुस्तक के रूप में

 इंटरनेट के चलते प्रिंट मीडिया की भूमिका कम भले ही हो गई हो लेकिन वह खत्म कभी नहीं हो सकती। इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि जर्मनी की प्रसिद्ध विश्वकोश कंपनी ब्रॉकहाउस (http://www.brockhaus.de/) ने कुछ ही समय पहले अपने विश्वकोश का प्रिंट संस्करण बंद करके मुफ़्त ऑनलाइन उपलब्ध करवाने का फ़ैसला केवल वापस ही नहीं लिया बल्कि ऑनलाइन उपलब्ध करवाने की तिथि भी स्थगित कर दी है।

एक दूसरा बड़ा उदाहरण है, सितंबर 2008 से विश्व का प्रसिद्ध मुक्त ऑनलाईन विश्वकोश विकिपीडिया (http://de.wikipedia.org/wiki/Wiki) के जर्मन संस्करण का एक पुस्तक के रूप में दुकानों पर बिक्री के लिए उपलब्ध होना। इस तरह की पहल केवल जर्मन भाषा में ही की गई है जो विकिपीडिया में अंग्रेज़ी के बाद दूसरी सबसे बड़ी भाषा है। जर्मनी की प्रसिद्ध प्रकाशन कंपनी Bertelsmann का शब्दकोश विभाग (http://www.wissenmedia.de/) ये काम 'ग्नू मुक्त प्रलेखन अनुमति पत्र' (GNU Free Documentation License) के अंतर्गत कर रहा है। हालांकि Bertelsmann कंपनी खुद भी विश्वकोश के व्यवसाय में काफ़ी लंबे समय से है और अपने खुद के विश्वकोश पुस्तक के रूप में बाज़ार में बेच रही है, फिर उसे विकिपीडिया को बाज़ार में लाने की क्या ज़रूरत पड़ गई, इसमें उसे क्या फ़ायदा दिखा?

इस प्रश्नों के उत्तर ढूंढने के लिए बसेरा ने कंपनी की Verlagsleiterin, Dr. Beate Varnhorn के साथ खास बातचीत की। बातचीत में उन्होंने बताया कि विकिपीडिया एक आम जनजीवन के अनुसार ढला हुआ विश्वकोश है जिसमें आम लोग लिखते हैं। और वे वही लिखते हैं जिसमें उन्हें अधिक रुची होती है, जबकि पारंपरिक विश्वकोश शिक्षा पर आधारित होता है। उदाहरण के लिए विकिपीडिया में इलेक्ट्रानिक्स, mp3 player, कैमरा, कंप्यूटर गेम्स, Carla Bruni-Sarkozy, फ़्लैट स्क्रीन टीवी आदि के बारे में लिखा जाता है जबकि पारंपरिक विश्वकोश में आप इन चीज़ों के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं पाएंगे। इसलिए हमें लगता है कि ये पुस्तक हमारे अभी तक बिक रहे विश्वकोश से बिल्कुल अलग होगी। इससे हम एक नए तरह की ग्राहक श्रेणी तक पहुंच सकेंगे। इस श्रेणी में मुख्य तौर पर युवा लोग होंगे। विकिपीडिया के लिए भी ये महत्वपूर्ण है क्योंकि इस विकिपीडिया उन लोगों को भी उपलब्ध होगा जो नियमित इंटरनेट नहीं देख पाते या जो कंप्यूटर नहीं जानते। इस तरह लिखित विकिपीडिया हमारे पारंपरिक विश्वकोश का प्रतिद्वंधि नहीं बल्कि पूरक होगा। हम विकिपीडिया के साथ मिलकर तकनीकी काम कर रहे हैं, और दिनभर देखते हैं कि लोग किन किन शब्दों की खोज करते हैं। हमें यह सब देख कर बहुत मज़ा आता है। ये पुस्तक ऑनलाइन विकिपीडिया की 1:1 कॉपी नहीं होगी, बल्कि ऑनलाईन संस्करण में 50,000 सबसे अधिक खोजे गए शब्दों पर आधारित होगी। ये पुस्तक एक शब्दकोश (Lexicon) के रूप में हर वर्ष नए संस्करण में प्रकाशित होगी। इस पुस्तक का मूल्य €19.95 होगा। बसेरा के ये पूछने पर कि विकिपीडिया में लिखने वाले लोगों को तो कोई धन मिलता नहीं, फिर आप क्यों इस बने बनाए विश्वकोश से धन कमाने पर तुले हैं, Dr. Varnhorn ने कहा कि हम हर बेची गई पुस्तक में से एक यूरो विकिपीडिया (Wikimedia Deutschland e.V.) की वित्तीय मदद के लिए देंगे।

डीवीडी के रूप में तो विकिपीडिया पहले ही मिल रहा है, केवल एक यूरो में। यह डीवीडी कंपनी zeno (http://www.zeno.org/) द्वारा प्रकाशित है।

अतः इसमें कोई शक नहीं कि प्रिंट प्रिंट है, उसका कोई सानी नहीं।

शुक्रवार, 8 जून 2007

हाथ से बनाई हुई मोमबत्तियां

हालांकि आजकल मोमबत्तियां अधिकतर मशीनों से बनती हैं, फिर भी कुछ लोग है जो हाथ से मोमबत्तियां बनाने का मध्ययुगीन व्यवसाय अभी भी कर रहे हैं। ये कंपनी हाथ से बनाई और रंगी हुई करीब ढाई लाख मोमबत्तियां हर साल शहर के गिरजाघरों को बेचते हैं।
http://www.wachszieherei.de/