बुधवार, 30 अप्रैल 2008

धूम्रपान-निषेध पर ध्यान दिलाने पर पीटा गया

26 अप्रैल को शाम साढ़े सात बजे एक 35 वर्षीय बैरा Partnachplatz पर Großhadern जाने वाली U6 में चढ़ा। Westpark आने पर चार अंदाज़न अर्मीनिया के लोग ट्रेन में चढ़े। उनमें से एक लगभग 30 वर्षीय व्यक्ति सिगरेट पी रहा था। वह ट्रेन के अंदर भी निर्लज्जता से सिगरेट पीता रहा। जैसे ही बैरे ने अगले स्टेशन Holzapfelkreuth पर उतरते हुये सिगरेट पीने वाले को इसका विरोध जताना चाहा तो उसके एक साथी ने खड़े होकर बैरे को थप्पड़ मार दिया, और दूसरे साथी ने बैरे को जैकेट से पकड़ा और उसे गालियां दी। वे चारों भी उसी स्टेशन पर उतर गये। बैरे ने उन लोगों से पंगा और बढ़ाने की बजाये अपना निर्णय बदला और यात्रा जारी रखी। वह अगले स्टेशन पर उतरा। ट्रेन के उस डिब्बे में एक और बूढ़ा व्यक्ति और दो युवतियां भी थीं।

बुधवार, 16 अप्रैल 2008

पुल पर दो लड़कों की पुलिस द्वारा छानबीन

रविवार, 30.03.2008 को दोपहर डेढ़ बजे पुलिस ने Unterföhring में हाईवे के ऊपर बने एक पुल पर खड़े दो लड़कों को नीचे जा रही गाड़ियों के साथ कुछ शरारत करते हुए देखा। पुलिस के नज़दीक जाने से वह 15 वर्षीय इराकी छात्र और 20 वर्षीय जर्मन बेरोजगार लड़का एयरगन (soft airgun) की गोलियों और मैगज़ीन से भरा एक डिब्बा छुपाने की कोशिश करने लगे। और जाँच पड़ताल करने से पुलिस ने पास की झाड़ियों में छुपायी गयी एक एयरगन भी ढूँढ ली। फिर पुलिस ने नीचे सड़क पर पड़ी हुयी कुछ गोलियां देखीं। शायद वे दोनों युवक पुल पर खड़े होकर नीचे से गुज़र रही गाड़ियों पर गोलियां चला रहे थे। और पूछताछ करने पर युवकों ने माना कि उन्होंने एक मार्गपट्ट पर गोलियां चलायी हैं। लेकिन उनके पास इसका उत्तर नहीं था गोलियां सड़क पर कैसे आयीं। उनमें से एक ने कहा कि उसने सॉफ़्टएयरगन एक दिन पहले इटली में खरीदी थी। उन दोनों के खिलाफ़ यातयात में खतरनाक दखल की रिपोर्ट दर्ज करने के बाद पुलिस ने उन्हें छोड़ दिया। अभी तक पुलिस के पास इस तरह के किसी नुक्सान का केस नहीं आया है।

गुरुवार, 10 अप्रैल 2008

ऐसे सजाती हैं लड़कियां नाखून

लड़कियों और महिलाओं में आज कल स्टुडियो में बहुत सारा पैसा और समय खर्च करके तरह तरह से नाखून सजाने का रिवाज़ है। इसमें नाखूनों पर कृत्रिम नाखून चिपका कर ऊपर तरह तरह के डिज़ाइन बनाये जाते हैं। इसे जर्मन भाषा में Neumodellage कहते हैं। कई बार उन पर छोटे छोटे पत्थर और मोती भी जोड़े जाते हैं। Mira शॉपिंग कंप्लेक्स में 'New York Nails' नामक स्टुडियो (http://www.mira-nails.de/) इस काम के लिये आजकल बहुत मशहूर है।

आजकल नाखून सजाने की दो विधायें प्रचलित हैं, अमरीकन और फ़्रेंच। फ़्रेंच विधा में नाखूनों पर केवल सफ़ेद पेंट लगाया जाता है जबकि अमरीकन विधा में बहुत बारीक ब्रश के साथ डिज़ाईन बनाने पर अधिक ज़ोर दिया जाता है। 'New York Nails' अमरीकन विधा से नाखून सजाते हैं। ये स्टूडियो भारतीय महिलाओं के लिये काफ़ी रोचक है क्योंकि वे कपडों पर हुयी कढ़ाई पर फ़बते डिज़ाईन भी बनाते हैं। 18 वर्षीय अनुप्रिया कहती हैं कि म्युनिक में और भी अमरीकन विधा के स्टुडियो हैं लेकिन वे प्लास्टिक के नाखून को बिल्कुल जड़ में चिपका देते हैं जिससे वह माँस से चिपक जाता है। जब नाखून बढ़ते हैं तो माँस खिंचने लगता है जिससे बहुत दर्द होता है और कई बार खून भि निकलने लगता है। New York Nails वाले प्लास्टिक के नाखून को बिल्कुल टिप पर चिपकाते हैं। इससे कोई दर्द नहीं होता।

वैसे ये सफ़ेद हाथी पालने वाला शौक है, क्योंकि नाखून पर प्लास्टिक नाखून चिपकाने के बाद सहके ऊपर Gel की एक मोटी कठोर परत जमायी जाती है, और उसके बाद उसके ऊपर पेंट किया जाता है। दो तीन हफ़्ते बाद जब नाखून बढ़ जाते हैं तो नीचे से उन्हें दोबारा Gel से भरवाना पड़ता है। इसे Gel Auffüllen कहते हैं। इसमें लगभग तीन यूरो प्रति नाखून का खर्च आता है। यानि हर दो तीन हफ़्ते बाद तीस यूरो का चूना।

बुधवार, 9 अप्रैल 2008

बहुत कठिन है डगर पनधट की

दुनिया भर में इंजनियरिंग कंसलटेंसी में अपने नाम का सिक्का जमाने वाली हैदराबाद की कंपनी Satyam Venture (http://www.satyamventure.com/) जर्मनी में भी काफ़ी सक्रिय है। म्युनिक और आस पास के क्षेत्रों में इस कंपनी के लगभग 30 लोग विभिन्न ऑटोमोबाईल कंपनियों में काम कर रहे हैं। लेकिन इन लोगों को जर्मनी आने और रहने में क्या कठिनाईयां आती हैं, उसका उल्लेख हम कर रहे हैं।

Satyam Venture की ओर से Eching में स्थित जापानी कंपनी Denso में कार्यरत 'दिगंबर कुमार' का कहना है कि वीज़ा के मामले में जर्मन दूतावास के नियम बहुत कड़े हो गये हैं। खासकर परिवार को साथ में लाने के लिये। पत्नी का वीज़ा लगवाने के लिये marriage certificate और और बच्चों का वीज़े के लिये हर बच्चे का birth certificate दिखाना पड़ता है। हर certificate पर काम करने के लिये 8000 रुपये फीस देनी पड़ती है। इसके अलावा शादी की दस फ़ोटो देनी होती हैं और हर फ़ोटो के पीछे उस फ़ोटो में मौजूद सब लोगों के नाम लिखने होते हैं। और फिर पत्नी को जर्मन भाषा आना अनिवार्य है। अक्सर होता है कि मियाँ बीवी एकसाथ वीज़े का आवेदन पत्र भरते हैं। दो तीन महीने के इंतज़ार के बाद पति का वीज़ा आ जाता है लेकिन पत्नी का वीज़ा ये कहकर ठुकरा दिया जाता है कि उसे पहले थोड़ी जर्मन भाषा सीखनी होगी। ताज्जुब ये है कि ये सब पहले क्यों नहीं बताया जाता ताकि इस बीच पत्नी जर्मन भाषा सीख सके। अधिक से अधिक ये हो सकता है कि पत्नी को कुछ दिन का वीज़ा मिल जाये जिससे वो जर्मनी आकर कोई जर्मन कोर्स में शामिल हो सके। उसके बाद वो अपना वीज़ा extend करवा सकती है।

इन प्रश्नों का उत्तर ढूँढने के लिये बसेरा ने Kreisverwaltungsreferat की ओर से Gabriele Ponnath के साथ खास बातचीत की। Gabriele Ponnath ने बताया कि जर्मनी में लंबे समय तक रहने वाले विदेशियों को यहाँ के समाज में आत्मसात करने पर चर्चा बहुत देर से जारी है। सरकार चाहती है कि दीर्घकाल में यहाँ समाज का बँटवारा न हो। सब लोग एक दूसरे से एक ही भाषा में बात कर सकें, घुलमिल सकें। इस लिये 1 जनवरी 2005 से zuwanderungsgesetz नामक एक कानून लागू हुआ जिसके तहत दीर्घकाल के लिये जर्मनी में काम पर आने वालों के लिये 630 घंटों का जर्मन भाषा का कोर्स पूरा करना अनिवार्य हो गया। लेकिन अगस्त 2007 में इसमें एक संशोधन हुआ जिसके तहत परिवार के अन्य सदस्य, जो मुख्य आवेदक के साथ जर्मनी आना चाहते हैं, उन्हें भी जर्मन सीखना अनिवार्य हो गया। हालाँकि जर्मन भाषा सीखने की ज़रूरत का निर्णय विदेशों में स्थित वीज़ा ऑफ़िस वाले ही लेते हैं। इसमें आवेदकों द्वारा प्राप्त की गयी शिक्षा का आकलन किया जाता है। अगर आवेदकों ने अच्छी शिक्षा प्राप्त की हुयी है तो उन्हें छोड़ दिया जाता है। इस लिये इस तरह के निर्णय लेने में समय लगता है जिस वजह से आवेदकों को अलग अलग समय पर वीज़ा मिलता है या फिर बाद में जर्मन भाषा सीखने के लिये कहा जाता है।

Gabriele Ponnath ने आगे बताया कि मार्च 2008 तक के आँकड़ों के अनुसार म्युनिक में 2417 भारतीय नागरिक रहते हैं। यानि वे लोग जिनके पास भारतीय पासपोर्ट है। इनमें से 1695 के पास Aufenthaltserlaubnis है और 494 के पास Niederlassungserlaubnis है।

दिगंबर कुमार नवंबर 2007 में अपनी पत्नी और बच्चे के साथ जर्मनी आये। उनके लिये पत्नी को जर्मन भाषा सीखने के लिये स्कूल भेजना काफ़ी बड़ी समस्या है। वे म्युनिक से थोड़ा बाहर रहते हैं और उनकी पत्नी बच्चे को अकेला छोड़ कर जर्मन भाषा सीखने शहर नहीं जा सकती। कोर्स के अलावा आने जाने में समय और पैसा व्यर्थ। वे कहते हैं कि आखिर बीवी को जर्मन भाषा सीखना क्यों अनिवार्य है, काम करने वाले को क्यों नहीं?

Gabriele Ponnath कहती हैं कि आमतौर पर उच्च शिक्षित मुख्य आवेदक के लिये जर्मन भाषा सीखना अनिवार्य नहीं माना जाता। लेकिन घर के अन्य सदस्यों के घर पर बैठे रहने और भाषा न सीखने से वे समाज की मुख्य धारा से अलग थलग पड़ जायेंगे और उसका प्रभाव बच्चों पर पड़ेगा। वे जर्मनी में समाज का बँटवारा नहीं चाहते। सरकार ने इसके लिये एक खास विभाग बनाया है Das Bundesamt für Migration und Flüchtlinge (BAMF, http://www.bamf.de/) । ये विभाग सस्ते रेट पर कोर्स उपलब्ध करवाता है। एक खास तरह के आवेदन से आप एक यूरो प्रति घंटा तक की फ़ीस के साथ भी जर्मन भाषा के कोर्स में (तथाकथित Integrationskurs) प्रवेश पा सकते हैं। कई संस्थान ऐसे हैं जिनमें कोर्स के दौरान बच्चों की देखभाल भी की जाती है। ऐसी एक संस्था है München Hauptbahnhof के पास Initiativgruppe München (http://www.initiativgruppe.de/). अथवा आप KVR में स्थित BAMF के कार्यलय में सीधे जाकर अपनी समस्या बता सकते हैं। वे आपके लिये ज़रूर कोई न कोई हल निकालेंगे। कई बार तो आने जाने का खर्च भी दिया जाता है।

Münchner Volkshochschule भी बहुत सारे Integrationskurs आयोजित करता है। इस विभाग की मुख्य अध्यक्षिका Heike Richter का भी कहना है कि यहाँ दुनिया के हर कोने, हर भाषा के लोग लंबे समय तक रहने के लिये आते हैं। कई तरह के समानंतर समाज देश के लिये अच्छे नहीं हैं। इस लिये जहाँ तक हो सके, सबकी कम से कम एक सांझी भाषा होनी चाहिये। हालाँकि वे इस बात को स्वीकार करती हैं कि व्यक्ति की अन्य खूबियों को नज़रअंदाज़ करके केवल भाषा सीखने पर ज़ोर देना अच्छा नहीं है। अगर वे भी भारत जायें और उनकी अन्य प्रतिभाओं को नज़रअंदाज़ करके केवल हिन्दी सीखने को मजबूर किया जाये तो वे इसे अच्छा नहीं मानेंगी।

दिगंबर कुमार आगे कहते हैं कि dependent visa पर आने वाले परिवार के सदस्यों को वीज़ा का आवेदन करने से पहले भारत में ही थोड़ी जर्मन सीख लेनी चाहिये। क्योंकि भारत में सीखना सस्ता भी है और आसान भी। भारत के सभी बड़े शहरों में Goethe Institut के कार्यलय हैं लेकिन वे अक्सर महँगे होते हैं। जर्मन सरकार Goethe Institut द्वारा पास की गयी परीक्षा को ही प्रमाणित मानती है लेकिन Goethe Institut से जर्मन सीखना आवश्यक नहीं है।

इसीलिये दिगंबर एक साल के बाद ये सब टेंशन लेने की बजाये वापस भारत जाना चाहते हैं। वैसे भी आजकल के वैश्वीकरण के ज़माने में अंग्रेज़ी अंतरराष्ट्रीय भाषा बन चुकी है, ऐसे में जर्मन भाषा के चक्कर में कौन पड़े। सत्यम कंप्यूटर्स के ही दूसरे कर्मचारी विनोद वर्मा अपनी पत्नी नीतू और डेढ़ वर्षीय लड़के 'श्रे' के अकेलेपन के बारे में सोचते हुये कहते हैं कि हम बच्चों के भविष्य के लिए आए थे, लेकिन हमने उनका वर्तमान ही बिगाड़ दिया। वे दिन भर घर पर पड़े रहते हैं और कोई मिलने जुलने को नहीं।

Satyam Venture के ही एक और कर्मचारी 'कादर वली' ने भारत में अपनी पत्नी के साथ work permit लिये आवेदन पत्र दिया। तीन महीने बाद उनका वीज़ा आ गया लेकिन उनकी पत्नी का वीज़ा ये कहकर ठुकरा दिया गया कि उन्हें पहले जर्मन सीखनी पड़ेगी। कादर वली अक्तूबर 2007 में अकेले जर्मनी आये और उनकी पत्नी को छह महीने बीतने के बाद वीज़ा मिला।

Satyam Venture की म्युनिक शाखा के BDM (Business Development Manager) Jose Xavier कहते हैं कि ये सब समस्यायें कंपनी के लिये बड़ा सरदर्द हैं क्योंकि वे एक कर्मचारी को जर्मनी लाने के लिये इतना खर्च करती हैं, वीज़ा के लिये महीनों इंतज़ार करती हैं, जबकि उनकी ग्राहक कंपनी आमतौर पर इतना इंतज़ार नहीं कर सकती। कई बार सब कुछ होने के बाद कर्मचारी कंपनी को ब्लैकमेल करने लगते हैं। वे परिवार को साथ ले जाने की ज़िद में जर्मनी जाने में आनाकानी करने लगते हैं। उन्हें ज्ञात होता है कि उनके बारे में जर्मनी की ग्राहक कंपनी के साथ भी बात हो चुकी है, वीज़ा, टिकेट आदि भी बन चुका है, अब उनका कोई विकल्प नहीं। इस दशा में कंपनी लाचार होती है और उसे परिवार का खर्च भी उठाना पड़ता है। कुछ हज़ार यूरो कमाने के लिये कंपनी इतने सरदर्द मोल लेती है।

आने के बाद भी कर्मचारियों को हर तरह की मदद चाहिये होती है। पहले कुछ दिनों के लिये रहने सहने का इंतज़ाम कंपनी करती है। इस दौरान कर्मचारी को अपना स्थायी ठिकाना सहूलियत के हिसाब से ढूँढना होता है। इतना होने के बाद भी जर्मन भाषा की समस्या कर्मचारियों को अधिक देर तक यहाँ टिकने नहीं देती और कंपनी का नुक्सान और बढ़ जाता है। कई बार संस्कृतिक विषमतायें भी समस्यायें खड़ी कर देती हैं। जैसे कई बार जर्मन लोगों को लंच में भारतीय लोगों के खाने पीने की आदतों से शिकायत रहती है। इस लिये सत्यम कंप्यूटर्स दीर्घकाल में सारा विकास कार्य विदेश में लोगों को भेजने की बजाये भारत में ही करना चाहती है।