रविवार, 2 अक्तूबर 2022

भारतीय मूल के वरिष्ठ नागरिकों का प्रथम सम्मेलन Germany की राजधानी Berlin में

जब ना तो भारत विभाजित था और ना ही Germany. तभी से भारतीय मूल के लोग Germany में उच्च शिक्षा के लिए आते रहे हैं. Germany की शिक्षा प्रणाली, विशेष कर तकनीक के क्षेत्र में उच्च कोटि की मानी जाती थी, जब कि information technology में आज भारतीय मूल के लोगों की मांग सारी दुनिया में है। किंतु यहां बात हम भारतीय मूल के वरिष्ठ नागरिकों की कर रहे हैं. इन्हीं नागरिकों में मेरी भी गिनती है.

मेरा Berlin आना जर्मनी के विभाजन के बाद ही हुआ. Berlin के लगभग बीचोंबीच एक दीवार थी. इसे पूर्वी और पश्चिमी हिस्से में बांट दिया गया था. पश्चिमी हिस्से में बसने वाले भारतीयों की संख्या सन 1978 में मात्र तीन हज़ार सात सौ थी, और पूरी पश्चिमी Germany में पचास हज़ार. Berlin के पश्चिमी हिस्से में एक संस्था है जिस का नाम "भारत मजलिस" है. इस संस्था की स्थापना सन 1933 में उस समय विदेशों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों ने Berlin में की थी. यह Europe की पहली भारतीय संस्था है. नाजी राज्य में इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था. 1957 में इसकी पुनर्स्थापना हुई. इतिहास की गहराई में ना जाते हुए इतना बताना आवश्यक है कि राजधानी Germany की अब Berlin नहीं Bonn शहर में हो गई थी। इस लिए सभी दूतावास वहां स्थानांतरित कर दिए गए थे. Berlin में भारतीय संस्कृति के प्रचार और प्रसार का पूरा ज़िम्मा भारत मजलिस के कन्धों पर था. सन 1975 में Berlin में भारतीय कला का संग्रहालय खोला गया और इसी संग्रहालय में हर वर्ष भारतीय सांस्कृतिक सप्ताह का आयोजन भारत मजलिस की तरफ़ से होने लगा. भारत से जाने माने कलाकारों को बुलाया जाता जैसे कि पण्डित रवि शंकर, बिस्मिल्लाह खान, बिरजू महाराज, श्रीमान चौरसिया इत्यादि. इस समारोह में जो पत्रिका छपती उसमें भारत के प्रधान मन्त्री और Berlin के नगर-निगम के सन्देश भी छपा करते थे .Berlin का सारा भारतीय समाज बढ़ चढ़ कर इस में सहभागी होता तथा अन्य शहरों से भी सम्मानित अतिथि गण आया करते थे.

मजलिस नाम भारत से आने वाले हिन्दू और Muslim विद्यार्थियों ने रखा था. इसी संस्था का president सन 1983 में मुझे चुना गया. सदस्य संख्या थी 150। Brandenburg Straße में तीन कमरों का किराए का मकान था। इसी के एक कमरे में गुरुद्वारा बनाया गया था. भारतीय समाज का यह एकमात्र अड्डा था. हर शुक्रवार को यहां जमावड़ा होता. खाने-पीने के अलावा भारतीय त्योहार भी मनाए जाते और छोटे मोटे सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते. भारतीय मूल के बड़े बड़े कलाकार यहां आते, जैसे कि इरशाद पञ्जतन (Irshad Panjatan), pantomime के हुनर में दुनिया में इनका सानी नहीं. Germany की कई फिल्मों में इन्होने अदाकारी की है. "मानिटू का जूता" (Der Schuh des Manitu) नाम की फिल्म में इन्होंने प्रमुख भूमिका निभाई. इसे उस वर्ष की सर्व-श्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार भी मिला. आपकी उम्र इस समय 90 वर्ष की है, Germany में इन्हें 50 वर्ष से भी अधिक हो गए हैं, पत्नी German है। किंतु इन्होने Germany की नागरिकता कभी भी स्वीकार नहीं की। अभी भी भारत का passport बड़े गर्व के साथ दिखाते हैं. राज्य श्री रमेश, इन्होने नृत्य भंगिमाओं पर doctorate की है। धीरज Roy ने Berlin की संगीत अकादमी से गायन में स्नातक की उपाधि प्राप्त की. अन्य भी कई उल्लेखनीय नाम जैसे की Dr. ब्रून, Dr. त्रिपाठी जैसे indologists. 

Berlin की दीवार गिरने के बाद मजलिस के कमरों का किराया बढ़ जाने के कारण उन्हें छोड़ना पड़ा. इस के बाद कुछ और ठिकानों पर सदस्यों को जमा करने का प्रयत्न किया गया. पर वो बात नहीं बन पाई जो 1983 में थी. सब लोग तितर बितर हो गए. दूतावास अब Berlin आ गया था। उनका सांस्कृतिक विभाग भी. नए विद्यार्थियों और IT के लोगों के बीच उन लोगों को भुला दिया गया जिन्होंने Germany में भारत की पहचान बनाई थी. Berlin के भारतीय दूतावास से कई बार निवेदन करने के पश्चात भी जब वयस्क नागरिकों की उपेक्षा होती रही। तब इसी शहर के एक वयस्क नागरिकों की गतिविधियों से सम्बन्धित संस्था में उन लोगों के सम्मान में एक आयोजन किया गया जिन्होंने स्वदेश और विदेश में भी अपनी सेवाएं प्रदान की हैं और नाम कमाया है. इन्हीं में एक नाम सुप्रसिद्ध लेखक आरिफ नक्वी का भी है। आप हिन्दी और उर्दू भाषा में कई पुस्तकें लिख चुके हैं. Berlin शहर में हिन्दी भाषा का अध्यापन भी आप कर रहे है. इस आयोजन का मकसद यही था कि अभी हम ज़िन्दा हैं और दमदार भी हैं, इतनी आसानी से हमें नहीं भुलाया जा सकता. कार्यक्रम में भारतीय मूल के ये सभी वयस्क नागरिक उपस्थित थे, जिन की उम्र साठ से नब्बे वर्ष तक की थी. कुछ लोग बीस तो कुछ तीस साल के बाद मिले. इस संस्था में विकलांग लोगों के आने-जाने की पूरी सुविधा है. पहले भी अन्य देशों के वयस्क नागरिक यहां मिलते रहे हैं। भारतीय मूल के लोगों और उनकी German तथा भारतीय सहभगिनों के लिए इस प्रकार का यह पहला आयोजन था.

सुशीला शर्मा-हक