गुरुवार, 30 अगस्त 2012

सिन्दबाद की कहानियां

एक बार बगदाद नगर में हिन्दबाद नाम का एक गरीब मजदूर रहा करता था। वह लकडियां जंगलों से चुन कर नगर में बेचा करता था। एक दिन जंगल से लकडियां काटकर गट्ठर बना उसे सिर पर रख कर वह नगर के चक्कर लगा रहा था। काफी चक्कर लगाने के बाद भी जब उसकी लकडियां नहीं बिकीं और जब वह थक कर चूर हो गया तो एक गली में बैठ गया। जहां वह बैठा था ठीक उसी के सामने ही एक आलीशान महल था। जहां से इत्र फुलेल की ख़ुशबू के साथ नर्तकियों के गायन-वादन और नृत्य के घुँघरूओं की थिरकन सुनाई दे रही थी। हिन्दबाद दिन भर भूखा था। जब महल से नाना प्रकार के सुस्वाद भोजनों की मनोहर सुगन्ध आने लगी तो उसके मुँह में पानी भर आया और वह उस राहगीर से पूछ उठा, 'महाशय! सामने किसका महल है?' राहगीर ने कहा, 'खेद है कि तू बगदाद में रह कर भी इस महल के स्वामी को नहीं जानता। यह महल सिन्दबाद जहाजी का है। इस महल के स्वामी ने समस्त समुद्र और नदियों की यात्रा करके पृथ्वी की परिक्रमा की है इसीलिये उसके नाम के बाद 'जहाजी' शब्द लगाता है। वह कुबेर की तरह धनवान है।' हिन्दबाद के आश्चर्य और दु:ख से एक आह भरी और आसमान की तरफ़ देखकर बोला, हे भगवान! `हिन्दबाद´ और `सिन्दबाद´ में अन्तर ही क्या है।, परन्तु मैं हिन्दबाद दिन भर मेहनत करके भी दो वक्त जौ की रूखी- सूखी रोटियाँ भी अकेले पेट के लिये नहीं जुटा सकता और यह सिन्दबाद इतने बड़े महल में ठाठ से अमीरी ज़िन्दगी बसर कर रहा है। धिक्कार है मेरी ज़िन्दगी को...' वह चलने को तैयार हुआ, पर तभी महल के ऊपर से किसी की आवाज सुनी, 'सुनो लकड़हारे! तुम्हें हमारे स्वामी बुलाते हैं। नीचे दरवाजे से होकर ऊपर चले आओ।' पहले तो वह डरा कि सिन्दबाद उसे कोई सजा न दे, पर आश्वासन मिलने पर वह महल के दरवाजे पर आकार अपना बायाँ हाथ पकड़ के एक गट्ठर पर रखकर खड़ा हो गया। उसके पास ही दरवाजे पर दायें हाथ में तलवार लगाये एक द्वारपाल खड़ा था। उसे देखकर वह ठिठक कर बाहर ही खड़ा हो गया और फिर अपने को आवाज देने वाले व्यक्ति को महल के ऊपर निगाह डालकर खोजने लगा। द्वारपाल ने उसे बताया कि वह कपड़े के जिस गट्ठे पर हाथ रखे खड़ा है इतना कपड़ा रोज़ उसका स्वामी अपने हाथ से गरीबों में बाँट देता है। हिन्दबाद यह सुनकर अचरज करने लगा। हिन्दबाद को द्वारपाल ले गया और इस प्रकार वह सिन्दबाद के सामने पहुँच गया। वयोवृद्ध सिन्दबाद बड़े ठाठ से अनेक आदमियों के बीच बैठा अपनी दाढ़ी पर हाथ फेर रहा था। हिन्दबाद को देख कर उसने बड़े प्यार से दक्षिण की तहफ बिठलाया और अपने हाथ से भोजन का थाल और शराब उसके सामने रख दी। और हिन्दबाद से खाने की विनय करने लगा। हिन्दबाद भूखा था। भोजन पर टूट पड़ा । भोजन समाप्त करके वह हाथ जोड़कर बोला, 'महाराज। मुझसे बड़ी भरी गलती हो गई जो बाहर खड़ा-खड़ा अपने और आपके नाम की तुलना गरीबी-अमीरी से करने लगा। आपने शायद मेरी बातें सुनकर ही मुझे यहाँ बुलाया है। मैं अपने शब्दों की आपसे क्षमा चाहता हूँ।' सिन्दबाद बोला, 'आदमी भाग्य के भरोसे ही अमीर नहीं बन सकता। उसके लिये कर्म की भी आवश्यकता होती है। बिना काम किये कोई अपना कार्य सफल नहीं कर सकता। तुम समझ रहे होगे कि मैं शायद बिना परिश्रम किये धनोपार्जन कर सुख भोग रहा हूँ। पर तुम्हारा यह वहम है। मैंने बड़ी तकलीफ़ें झेली हैं। सात बार समुद्र यात्रा मैं कर आया हूँ। अनेक बार मौत के मुँह से बचा हूँ। तब कहीं जाकर मैं धनवान बना हूँ। मेरी यात्राओं का वर्णन सुनकर तुम्हारा दिल दहल जायेगा। यह कह कर सिन्दबाद ने हिन्दबाद की लकड़ियों का गट्ठर उसके इच्छित स्थान पर अपने सेवक द्वारा पहुँचवा कर पहली यात्रा का वर्णन इस प्रकार सुनाना आरम्भ किया-सिन्दबाद की पहली यात्रा
पिता की मृत्यु के बाद मैं बहुत गरीब हो गया। गृहस्थी का खर्चा चलना भी मुश्किल हो गया। अन्त में काफ़ी सोच-विचार कर अपनी थोड़ी सी संचित पूँजी को लेकर मैं उन व्यापारियों के पास पहुँचा जो थोड़ी-पूँजी से जल-यात्रा द्वारा धनोपार्जन कर लेते थे। उन्होंने मेरे प्रति सहानुभूति प्रकट की और मेरी पूँजी का कुछ माल खरीदवा कर उसे बेचने के लिहाज से एक जहाज़ में बैठकर बन्दर बाँसरे की तरफ़ चल पड़े। बीच-बीच में अनेक द्वीप पड़े। उनमें मैंने अपना काफ़ी माल बेचा और अच्छा लाभ उठा लिया। एक रोज़ हमारा जहाज़ वायु की तरफ़ पूरे वेग से दौड़ा चला जा रहा था। अचानक कप्तान की नजर एक अत्यन्त रमणीक स्थान पर पड़ी, अतः उसके उसी द्वीप के सहारे जहाज़ के सब पाल खुलवा दिये और वह यात्रियों से बोला, 'जो इस द्वीप की सैर करना चाहे कर आये।' मैं अपना भोजन लेकर कई व्यापारियों के साथ द्वीप देखने चल पड़ा। अभी हम दस-बीस कदम ही आगे चले थे कि इतनी सी देर में अनेक बार भूकम्प आ गया। यह सब देखकर जहाज़ का कप्तान ज़ोर से चीख बोला जितनी भी जल्दी हो सके सब आदमी भाग कर जहाज़ पर आ जाओ। यह कोई द्वीप नहीं है। बल्कि एक विशाल मछली की पीठ है जिस पर तुम खड़े हो। मछली के करवट लेते ही सब के सब मौत के मुँह में चले जाओगे। अन्य व्यापारियों से मैं काफ़ी आगे निकल आया था। अतः सब व्यापारी भाग कर जहाज़ में चढ़ गये और जहाज़ तैरने लगा, किन्तु मैं मछली की पीठ पर ही रह गया। मछली ने गहरे जल में गोता लगाया। उसके साथ ही मैं पानी में डूब गया। जब मैं समुन्दर के ऊपर आया तो मुझे एक लकड़ी का टुकड़ा मिला जिसके सहारे मैं तैरने लगा। इस प्रकार मैं एक दिन और एक रात तैरता रहा। दूसरे दिन मैंने महसूस किया कि मैं बेहद थक गया हूँ और अब हाथ पैर नहीं हिला सकता। तभी एक लहर के थपेड़े ने मुझे किनारे पर लाकर पटक दिया। मैं किनारे की गीली धरती पर घिसटने लगा और एक वृक्ष के नीचे आते आते बेहोश हो गया। जब मुझे होश आया तो दूसरा दिन निकल चुका था। भूख भी ज़ोर से सताने लगी थी। अतः घिसट कर मैं आगे पेड़ों के झुरमुट में जा पहुँचा। वहाँ मैंने कुछ फल तोड़ कर खाये। झरने का शीतल जल पिया। कोई नगर पास है या नहीं यह जानने के लिये मैं इधर उधर टहलने लगा। कुछ दूर पर मुझे एक घोड़ा दिखायी दिया जो एक लोहे के खूँटे से बंधा था। मैं उसके पास जा पहुँचा। मेरे वहाँ पहुँचते ही ज़मीन की खाई में से एक आदमी निकला और पूछने लगा, 'तुम कौन हो और जंगल में क्यों घूम रहो हो?' मैंने उसे अपनी पूरी कहानी सुनाई। वह मुझे अपने अन्य आदमियों के पास ले गया। मैंने उनसे पूछा, 'तुम क्या कर रहे हो?' उनमें से एक बोला, 'हम अपने राजा के साईस (अश्व पालक अर्थात्‌ घोड़े वाले) हैं। हर साल हम बहुत सी घोड़ी लेकर यहां आ जाते हैं। दरियाई घोड़े यहां आते हैं और उनके मिलाप से घोड़ी के गर्भ रह जाता है। उस गर्भ से दरियाई घोड़ा उत्पन्न होता है जो महाराज की सवारी के काम आता है। हम घोड़ी बांध कर दरियाई घोड़े के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे कि तुम आ गये।' उन आदमियों ने इसके बाद मुझे अपने भोजन में से भोजन कराया। उन दरियाई घोड़े से उनका काम निकल गया तो वे घोड़ी लेकर मेरे साथ नगर लौट आये। उन्होंने मेरा परिचय नगर के राजा से कराया। राजा मुझे देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। उसने अपने राज के कर्मचारियों को आज्ञा दी कि इस परदेसी को किसी भी प्रकार का कष्ट न होने पाये। मैं आनन्द से रहने लगा। मेरा अधिकतर समय व्यापारियों के बीच बीतता था। हर एक नया आदमी जो वहाँ आकर ठहरता था, उससे मैं बगदाद के समाचार पूछता। मैं चाहता था कि किसी भी प्रकार बगदाद पहुँच जाऊँ। अपने देश-वासियों से वहाँ मिलकर मैं बहुत ख़ुश होता था। विदेश में मेरा मन नहीं लगता था। वहाँ रहकर मेरा साक्षात्कार अनेक प्रधान कर्मचारियों और विदेशी राजाओं से भी हुआ, पर मेरा मन बगदाद की ओर ही लगा रहता था। एक दिन मैं कसील नामक द्वीप को देखने लगा। वहाँ रात भर नक्कारों का अस्फुट शब्द हुआ करता है। मैंने वहाँ बड़े विचित्र जीव देखे। उल्लू के मुँह वाली मछली देखी, और भी विचित्र मछलियां देखी। अचानक मेरी नजर द्वीप के बन्दरगाह पर पड़ी जहाँ जहाज़ खड़ा था और जहाज़ में से प्रत्येक व्यापारी अपने माल की गठरियों को उतार कर नगर की ओर बेचने ले जा रहा था। अचानक मेरी नजर उस गठरी पर पड़ी जिस पर की मेरा नाम लिखा था। मैं अपनी गठरी को तुरन्त पहचान गया। यह वही गठरी थी जिसे मैंने बाँसरे से जहाज़ में लादा था। मैं प्रसन्न होकर कप्तान के पास पहुँचा और अपनी गठरियों की ओर इशारा करके बोला, 'महाशय, ये गठरियाँ किसकी हैं?' कप्तान दुःख भरी लम्बी श्वास लेकर बोला, 'ये गठरियाँ मरहूम सिन्दबाद जहाजी की हैं जो समुद्र में डूब कर मर गया। मैं इन गठरियों को यहाँ नीलाम करवाकर उनका पैसा स्वर्गीय सिन्दबाद के घर वालों को पहुँचवा दूँगा।' मैंने उत्तर दिया, 'महाशय! वह सिन्दबाद मैं ही हूँ। ये गठरियाँ मेरी हैं।' कप्तान बोला, 'मैं तुम्हारी बात पर भरोसा नहीं कर सकता। मैंने अपनी आँखों से सिन्दबाद को मछली की पीठ पर से समुद्र में डूबता हुआ देखा है। तुम जरूर ही कोई धोखेबाज आदमी हो। मैं तुम्हें यह गठरियाँ किसी भी प्रकार नहीं दे सकता।' मैंने कप्तान को शुरू से आख़िर तक अपनी दुःख भरी कहानी सुनाई और मेरी गठरियों में क्या-क्या चीजें हैं उनके निशान भी बताये। मेरी गठरियाँ खोलने पर मेरी बताई हुई चीजें जब उनमें से निकली तो कप्तान ने मुझे पहचान कर हृदय से लगा लिया। और मेरी गठरियाँ मुझे दे दीं। अपनी गठरियों से निकाल कर कुछ माल मैंने राजा को भेंट किया। राजा ने मुझे बहुत सा धन दिया। राजा से विदा होकर मैंने अपना माल बेच कर वहाँ से चन्दन, कपूर, जय फल आदि जहाज़ में भर लिया। बहुत से द्वीपों में अपना माल बेचते हुए हमारा जहाज बाँसरे पहुँचा। इस यात्रा में मुझे एक लाख मुद्रा का लाभ हुआ। घर आकर मैं अपने घर वालों से मिला। वे बड़े प्रसन्न हुए। मैं आनन्दपूर्वक रहने लगा। सिन्दबाद ने हिन्दबाद को सौ मुद्राएं दीं और अपनी दूसरी भयंकर यात्रा दूसरे दिन सुनाने का वचन देकर उसे विदा किया।सिन्दबाद की दूसरी यात्रा का विवरण
ठीक कल के ही समय पर हिन्दबाद, सिन्दबाद की दूसरी यात्रा का हाल सुनने उसके महल में दाखिल हो गया। हिन्दबाद को देखते ही सिन्दबाद ने उसको उचित स्थान पर बिठाया। अपने हाथों से ही एक बड़ी तश्तरी में कुछ फल जैसे, सेब, अंगूर, लखैट, संतरे, केले आदि रख कर दिये। जब हिन्दबाद फल खा चुका तो सिन्दबाद ने उसके आगे मीठी शराब पेश की। हिन्दबाद ने शराब पी और सिन्दबाद की दूसरी यात्रा का वर्णन सुनने वह पीठ के पीछे तकिया लगा कर बैठ गया। सेवक पंखे झलने लगे। सिन्दबाद बोला, 'पहले सफर में जैसा कि तुमको मालूम है। और जैसा कि मैं कल सुना चुका हूँ कि मुझे अनेक आपदाओं का सामना करना पड़ा था। अतः मैंने मन में दृढ़ निश्चय कर लिया कि आगे से मैं कभी समुद्री यात्रा का नाम तक अपनी जबान पर न लूँगा। मजे में बगदाद में ही कोई छोटा सा व्यवसाय करके शेष जीवन बिता दूँगा, किन्तु मेरे मन में कुछ और था और करता कुछ और। मैं अपने संकल्प पर दृढ़ न रह सका। जब पूँजी खत्म हो गई तो मुझे यात्रा करने के लिये पूरी तरह मजबूर हो जाना पड़ा। असमर्थ होकर मैंने कुछ व्यवसायिक माल खरीदा और कुछ व्यापारियों के साथ एक जहाज़ में बैठकर बगदाद से आगे के लिये प्रस्थान कर दिया। मार्ग में अनेक द्वीप पड़े। मैंने अनेक द्वीपों पर माल का क्रय-विक्रय किया। इस प्रकार चलते-चलते हम सघन वृक्षों से आच्छादित, हरियाली भूमि वाले एक द्वीप पर अपना जहाज़ रोक कर उतर पड़े। भूमि पर उतरने पर हमें ज्ञात हुआ कि वह द्वीप उजाड़ है और यहाँ आदमी नहीं रहते। सन्देह दूर करने के लिये मैं टापू पर टहलने लगा। मेरे साथी वृक्षों से मेवा तोड़-तोड़ कर इकट्ठा करने लगे, किन्तु मैं इधर-उधर घूम कर छोटे से झरने पर जाकर बैठ गया। मैंने अपना भोजन जो अपने साथ ले गया था, उसे निकाला और प्रेम से खाने लगा। भोजन करने के पश्चात अपनी जेब से मदिरा का पात्र निकाल कर उसे पीकर मैं झरने के पास ही सो गया। जब मैं जागा तो मुझे द्वीप पर कोई नजर नहीं आया। चारों ओर सुनसान था। मेरा एक साथी भी मुझे नजर नहीं आया। जिस जहाज़ पर मैं आया था वह भी काफ़ी दूर निकल चुका था। मैं किंकर्तव्य मूढ़ सा वहाँ खड़ा रहा। कुछ समझ नहीं आया कि अब मैं क्या करूँ। मैं बुरी तरह घबरा चुका था। यदि मैं चेतना से काम न लेता तो यह भी सम्भव था कि हृदय गति रुक जाने से मेरी मृत्यु हो जाती। आधे दिन तक भी वहाँ बेहोश पड़ा रहा। जब मुझे होश आया तो मैंने स्वंय को धिक्कारा कि पहली यात्रा में क्या मुझे कम कष्ट भोगने पड़े थे। जो मैं दूसरी यात्रा करने फिर चल पड़ा। मैंने स्वंय को बहुत ही ढाँढ़स बांधने का प्रयत्न किया, किन्तु मुझे अपने ऊपर विशाल आसमान और चारों ओर अथाह जल के अलावा कुछ दिखाई नहीं पड़ता था। मैं दुःख से क्लांत होकर इधर-उधर डोलने लगा। इधर-उधर घूमते हुए मुझे दूर पर अचानक एक गोलाकार सफेद चट्टान जैसी वस्तु दिखाई पड़ी। मैं उस चीज के पास गया तो पता लगा कि वह कोई गोल सफेद अनोखी चीज है। मैंने उस गोले की परिक्रमा की, पर उसमें घुसने का कोई दरवाजा नजर नहीं पड़ा। उसका क्षेत्रफल लगभग पचास साठ फुट रहा होगा। सूरज छिपने का समय हो चुका था। हर पल अन्धेरा बढ़ता चला जा रहा था मैं अचंभित होकर आसमान की तरफ़ निहारने लगा। अचानक एक लम्बा चौड़ा विशालकाय पक्षी मुझे अपनी ओर उड़ता हुआ आता दिखाई पड़ा। मैं डर कर पीछे हट गया। उस वक्त मुझे जहाज़ वालों का कहना याद आ गया। वे कहते थे कि एक पक्षी ´शरभ` (गरूड के आकार वाला) बहुत बड़ा होता है। अब मुझे ध्यान हुआ कि यह विशाल सफेद गोलाकार वस्तु इस पक्षी का अण्डा है। मेरा अनुमान सत्य निकला। शरभ उड़ता हुआ अंडा लेने के लिये उसके ऊपर आ बैठा उसका पैर मेरे सामने आकर डट गया। मैंने गौर से उसके पैर की बनावट को देखा। उसके पैर के नाखून पेड़ की जड़ के सामान थे। मैंने सोचा कि अगर मैं अपने सिर की पगड़ी उसके नाखूनों में अटका दूँ तो मैं उसके साथ ही उड़ जाऊँगा तब सम्भव है वह मुझे किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दे। काफ़ी सोच-विचार के बाद मैंने ऐसा ही किया। अपनी पगड़ी द्वारा मैं उसके पंजे में बँध गया। मैंने अपनी पगड़ी अपनी छाती और उसके पंजे में कसकर बाँध दी। दूसरे रोज़ शरभ वहाँ से आसमान की तरफ़ बहुत ऊँचा उड़ने लगा। मैं भी उसके पंजे में बँधा व्याकुल हुआ उसके साथ ही उड़ा चला जा रहा था। शरभ मुझे आकाश में उड़ा कर इतना ऊँचा ले गया कि नीचे देखने पर मुझे धरती ही दिखलाई नहीं पड़ती थी। मैं बुरी तरह घबरा रहा था कि वह अचानक थोड़ी देर पश्चात धरती की ओर उतरने लगा। जहाँ मैं गिरा था वहाँ बहुत बड़ा अजगर पड़ा था। यदि मैं सावधानी नहीं बर्तता तो अजगर मुझको खा जाता। अन्त में उस विशालकाय अजगर को अपने मुँह में दबाये शरभ आसमान में उड़ गया। शरभ ने मुझे बहुत ही गहरी कन्दरा में छोड़ा था। मैंने ऊपर निगाह उठाई तो चारों तरफ़ ऊँचे-ऊँचे पंक्तिबद्ध पहाड़ थे। आदमी की क्या ताकत थी कि वह ऊपर चढ़ सके। यह देखकर मैं काफ़ी घबरा गया क्योंकि पहली जगह से वह स्थान बड़ा भयंकर था।

मैंने अपने चारों तरफ़ अनेक बड़े-बड़े हीरों के चमकते हुये टुकड़े देखे। इतने भयंकर स्थान पर इतनी मूल्यवान चीजें पड़ी देखकर मैं अचरज में रह गया। ईश्वर की माया भी विचित्र है। मैंने बड़े-बड़े हीरे इकट्ठे करके कपड़े में बाँध लिये, पर वहाँ अजगर सांप इतनी अधिक मात्रा में थे जैसे कीड़े मकोड़े रेंग रहे हों। छोटे से छोटा अजगर का बच्चा भी इतना विशालकाय था कि वह बड़ी सरलता से एक बड़े हाथी को निगल सकता था। परन्तु वे शरभ के डर से दिन में कम ही निकलते थे। मैं पूरे दिन वहाँ घूमता रहा। रात को एक गुफा में बड़े-बड़े पत्थरों से उसका मुँह बन्द करके जा छिपा। अब बड़े-बड़े सांप अपने रहने के स्थान से बाहर निकले और भयंकर शब्द करने लगे कि मैं सो न पाया। उनकी फुँकारों ने मुझे सोने न दिया। सवेरा होते ही मैं गुफा से बाहर आकर थोड़ा सा खाना खाकर सो ही रहा था। कि अचानक कोई वजनी चीज मेरे निकट आकर गिरी। मैंने उस वस्तु को चारों तरफ़ से ध्यानपूर्वक देखा तो पता चला कि वह माँस का लोथड़ा है। इसी प्रकार के माँस के लोथड़े चारों तरफ़ पड़े थे जो अभी वहाँ ऊपर से शायद फेंके गये थे। मैंने पहले सुना था कि इधर ही कहीं पर हीरे की खान है और वहाँ से व्यापारी अक्सर हीरे लाया करते हैं। एक व्यापारी ने पहले मुझे बताया था कि उनका खान से हीरे लाने का ढंग बड़ा ही अनोखा है। वे लोग माँस के बड़े-बड़े लोथड़े गहरी कन्दराओं में फेंक देते हैं। हीरों के ऊपर जब लोथड़ा गिरता है तो माँस में बहुत से हीरे चिपक जाते है। जब बड़े-बड़े गिद्घ जाकर उस माँस को उठा लाते है। तो माँस के साथ ही उनके घोंसलों में हीरे भी चले आते हैं। ये गिद्घ आकार में हाथी से भी अधिक विशालकाय और शक्तिशाली हुआ करते हैं। इस प्रकार व्यापारी लोग उनके घोंसलों में जाकर हीरों को ढूँढ लेते हैं। और बेचकर काफ़ी धन कमाते हैं। यह बात याद आते ही मैं समझ गया कि ये विशाल लोथड़े भी व्यापारियों ने हीं फेंके होंगे। मैंने भगवान को बहुत-बहुत धन्यवाद दिया और सोचने लगा कि इस एक लोथड़े के सहारे ही मैं कन्दरा से बाहर निकल जाऊँगा। मैंने अपने चमड़े की थैली में बीने हुए हीरे रख लिये और उसे कमर में बाँध लिया। इसके बाद मैंने माँस का एक बड़ा लोथड़ा अपने शरीर पर लपेट लिया और किसी गिद्घ की प्रतीक्षा करने लगा। मुझे ज़्यादा देर इन्तज़ार नहीं करना पड़ा। थोड़ी देर बाद ही एक विशालकाय गिद्घ माँस के साथ ही मुझे आकाश की तरफ़ ले उड़ा। कुछ देर बाद ही मुझे ले जाकर अपने घोंसले में रख दिया। व्यापारी लोग मुझे देखकर कोलाहल करने लगे। कोलाहल सुनकर गिद्घ तो उड़ गया, किन्तु व्यापारियों का कोलाहल अब भी अब कम नहीं हुआ। वे आश्चर्य से मुझे देखने लगे। मैंने उन्हें विश्वास दिलाया कि आप किसी भी प्रकार की चिन्ता न करें। मेरे पास जो कुछ है, मैं सब आपको ही दे दूँगा। मैं संकट में हूँ। कृपया मेरी रक्षा कीजिए। वे अवाक से मेरी तरफ़ देखने लगे। मैंने कमर के चमड़े की थैली निकाल कर उनके सामने रख दी। सब व्यापारी इकट्ठे होकर मेरी राम कहानी सुनने लगे। वे बहुत अचंभित हुए और कृपा करके मुझे अपने रहने के स्थान पर ले गये। मेरे हीरों को देखकर वे बहुत अचंभित हुए और कहने लगे, 'हालाँकि हीरों के इसी व्यवसाय में हमने अपनी अब तक की आयु व्यतीत की है, परन्तु इतने बड़े हीरे हमने आज तक नहीं देखे।' जिस व्यापारी ने मुझे सम्मानपूर्वक अपने पास रखा था उसे मैंने अपनी थैली दे दी और बोला, 'जितने चाहें आप इसमें से हीरे ले सकते हैं।' पर मेरे काफ़ी आग्रह करने पर ही उसने एक बड़ा हीरा और कुछ छोटे हीरों के टुकड़े उठाये। क्योंकि उनका नियम था कि उनमें से प्रत्येक व्यापारी एक-एक घोंसले को बांट लिया करता था। और उनमें से जो हीरे प्रत्येक के हिस्से में आते थे उन्हीं को पाकर वे सन्तोष करते थे। उस रात मैंने उन्हीं व्यापारियों के साथ उसी जगह सत्संग किया। दूसरे रोज़ सब व्यापारियों के साथ मैं ´रूहा` नाम के द्वीप पर पहुँचा। रूहा द्वीप पर ऐसे पेड़ थे जो आकाश को छूते थे। उनकी डाली को छुरी से काट दिया जाता था और नीचे बर्तन रख दिया जाता था, तो पेड़ की डाली से जो रस निकलता था सूख जाने के बाद कपूर बन जाता था। इसी द्वीप में एक बलवान पशु हाथी से छोटा और भैंसे से बड़ा पाया जाता है। इसकी नाक पर एक हाथ लम्बा एक नुकीला सींग हुआ करता है। जिसके द्वारा वह शिकार करके आया करता है। इसे गैंड़ा कहते हैं। गैंडा अक्सर हाथी के पेट में उसका सींग घुसेड़ कर उसे ऊपर उठा लेता है, परन्तु हाथी के पेट में उसका सींग घुसते ही उसके पेट से खून का फुब्बारा छूटने लगता है जिससे गैंडे की आँखें बन्द हो जाती हैं और वह अन्धा हो जाता है। जब गेंडा अपना सींग हाथी के पेट में घुसा कर उसे ऊपर उठाता है और रक्त निकलने के कारण वह अन्धा हो जाता है तो उसी अवस्था में हाथी सहित ´शरभ` पक्षी उड़ा ले जाता है। और इस प्रकार कई रोज़ तक उसके भोजन की व्यवस्था हो जाती है। अनेक द्वीपों पर मैं गया। वहाँ मैंने नाना प्रकार का व्यापार किया और अच्छा लाभ पैदा किया। ऐसे-ऐसे भयंकर दृश्य देखे कि आज भी सोचने पर मेरा दिल घबरा जाता है। मैंने अनेक द्वीपों पर चींटी को भेड़ के बराबर और हाथी को मेमने के बराबर देखा है। कौवे को ऊँट के समान और ऊँट को कुत्ते के बराबर देखा है और कहीं-कहीं पर तो घोड़ों को मैंने गाय के बच्चे के बराबर ऊँचा देखा है। अनेक द्वीपों पर भ्रमण करता हुआ, अपने माल का क्रय-विक्रय करके अन्त में मैं अपने नगर लौट आया। मुझे देखकर मेरे घर वाले बहुत प्रसन्न हुए। मैं बन्धु-बान्धबों से जी खोल कर गले मिला। मैंने दीन अनाथों को जी खोलकर दान किया और निश्चय किया फिर कभी समुद्री यात्रा करूँगा। यह कहकर अंत में सिन्दबाद ने अपनी दूसरी यात्रा का वर्णन बन्द किया और पहले की तरह ही हिन्दबाद को सौ मुद्रा प्रदान करके अगली यात्रा अगले दिन सुनाने का वचन देकर विदा किया।

सिन्दबाद की तीसरी यात्रा का वर्णन
कल के समय ही हिन्दबाद सिन्दबाद की तीसरी यात्रा का वर्णन सुनने उसके महल में दाखिल हो गया। महलों में दाखिल होने पर उसे सिन्दबाद कल के स्थान पर नहीं मिला। सेवकों से ज्ञात हुआ कि सिन्दबाद जहाजी की तबीयत नाशाद है अतः वह आराम फ़रमा रहे हैं। यह जानकार हिन्दबाद उलटे पैर सिन्दबाद के महल से लौट पड़ा, परन्तु सेवक की आवाज ने उसे ठिठक कर खड़े हो जाने को मजबूर कर दिया। सेवक ने उसे निवेदन किया कि सिन्दबाद महल के अन्दर सोने के पलंग पर आराम कर रहे हैं और आपको भी उन्होंने वहीं बुलाया है। हिन्दबाद सिन्दबाद के पास पहुँचा तो सिन्दबाद बोला, 'तुम मुझे कोई किस्सा सुनाओ। हो सकता है किस्सा सुनते-सुनते मेरा मन स्वस्थ हो जाये और मेरा मन तीसरी यात्रा का वर्णन करने को चाहने लगे।' बहुत अच्छा कहकर हिन्दबाद किस्सा सुनाने लगा, 'बहुत साल पहले की बात है, एक बूढ़ा मछुवा बड़ी मुश्किल से अपनी गृहस्थी चलाता था। कठिन से कठिन परिश्रम करने के पश्चात भी मास में दो चार दिन अवश्य ही उसे अपने बाल बच्चों सहित फ़ाका कर जाना पड़ता था। वह रोज़ सवेरे होने से पहले ही नदी किनारे पहुँच जाता और बार-बार जाल डालने पर जल में से जितनी भी मछलियां निकलतीं उन्हीं पर गुजारा करता था। एक दिन सूरज निकलने से पूर्व ही यह नदी किनारे पहुँच गया और नदी में जाल डाल दिया। जब वह जाल को खींचने लगा तो उसे जाल भारी महसूस हुआ। उसने सोचा कि आज तो अवश्य ही कोई भारी चीज जाल में फँस गई है। जब उसने जाल बाहर निकाला तो उसका खिला हुआ मुँह मुरझा गया, आशा निराशा में बदल गई। वह अपने भाग्य को धिक्कार कर बोला, 'ओह! धिक्कार है। इस फूटे नसीब को!' जाल में फँसने वाली चीज मरा हुआ गधा था। वह बारम्बार अपने भाग्य और ईश्वर को कोसने लगा। दूसरी बार उसे ईश्वर का नाम लेकर पुनः जाल नदी में डाला, किन्तु इस बार मछली न पा सका। उसका जाल मिट्टी और कीचड़ में फँस कर रह गया। तीसरी बार जाल डालने पर भी उससे कंकर और गुठलियाँ जाल में फँसीं पाई। निराश होकर अपने मस्तक पर हाथ लगाये वह बैठ गया और बहुत देर तक बैठा रहा। सूरज उदय हो चुका था। यह देखकर मछुये ने नमाज पढ़ कर भगवान से प्रार्थना की, 'हे खुदा ! मैं हर रोज़ नदी में चार बार जाल डाला करता हूँ जिसमें तीन बार मैं डाल चुका हूँ। परन्तु तुम देखने वाले हो। अभी तक मुझे कुछ भी हाथ नहीं लगा है। अब सिर्फ एक दफा जाल डालना बाकी है। अगर चौथी बार भी जाल डालने पर कुछ प्राप्त नहीं हो सका तो सकुटुम्ब फ़ाका करना पड़ेगा!' बड़ी निराशा से भरकर मछुये ने चौथी बार जाल जल में डाला, किन्तु निकालने पर मछलियां फिर भी हाथ नहीं लगी। हाँ एक पीतल का छोटा सा बर्तन अवश्य जाल में फँस गया था। मछुये ने सोचा मछली न निकली तो न सही। इस छोटे से पीतल के बर्तन को ही बाजार में बेचकर चून दाल ले आऊँगा और आज उसी से गुजारा चलाऊँगा। कल की कल देखी जायेगी। मछुये ने बर्तन को हाथ में लेकर देखा। वह सुराही की तरह का था और उस का मुँह ऊपर से डाट द्वारा बन्द था। वह काफ़ी बजनी था। मछुये ने सोचा अवश्य ही इसके अन्दर कोई मूल्यवान चीज होगी। यह सोच कर उसने बर्तन की डाट खोल दी। यह देखकर मछुये को बड़ी निराशा हुई कि बर्तन के अन्दर भी कुछ नहीं निकला। गुस्से से उसने बर्तन को धरती में मारा। बर्तन धरती में गिर कर सीधा होकर खड़ा हो गया और उसमें से धुँआ निकलने लगा। मछुआ धुँये को निकलता देखकर डर गया और कई कदम पीछे हट गया। धुँआ धीरे-धीरे निकल कर नदी के किनारे पर छा गया। मछुआ यह देखकर ताज्जुब में पड़ गया कि धुँआ इकट्ठा होकर राक्षस के रूप में बदल गया। अपने सामने विशालकाय राक्षस को खड़े देखकर मछुये की चीख निकल गयी। वह भागने का प्रयत्न करने लगा पर डर के कारण उसके पैर बुरी तरह काँपने लगे और वह वहीं खड़ा रहा। उसकी बुरी तरह घिग्घी बँध गई। आसमान की ओर हाथ जोड़कर राक्षस बोला, 'सुलेमान प्रभु! मेरी खता माफ करो। अब जीवन पर्यन्त आपकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करूँगा।' यह सुनकर मछुआ राक्षस से बोला, 'राक्षस राज! क्या सपना देख रहे हो। सुलेमान को संसार से गुज़रे तो आज साढ़े अठारह सौ साल बीत गये क्या मैं तुम्हारे बारे में कुछ जान सकता हूँ?' 'अब इन बातों को छोड़ और मरने को तैयार हो जा।' राक्षस चीख पड़ा। 'मैंने ऐसा कौन सा पाप किया है जो तुम मेरा वध करना चाहते हो?' 'पाप पुण्य तो मैं मानता नहीं हूँ' राक्षस चीख कर बोला, 'बोल तू कैसी मौत चाहता है?' 'लेकिन मैंने अपराध कौन सा किया है? तुम्हें बर्तन से निकाल कर ही मैंने कोई अपराध किया है तो मैं अवश्य ही उसकी सजा पाने को तैयार हूँ, राक्षस राज!' 'हाँ! तेरा अपराध यही है कि तू ने मुझे बर्तन से निकाल कर मुक्त किया है। यदि आज से दो सौ साल पहले तू मुझे निकाल देता तो मैं तुझे धनवान कर देता, पर आज तो मैं तुझे मुँह मांगी मौत ही दे सकता हूँ।' 'पर दो सौ साल पहले तो मैं इस जन्म में था ही नहीं राक्षस राज! दो सौ साल पहले मैं कहाँ था मुझे तो यह भी याद नहीं। दया करके ईश्वर के नाम पर मुझे क्षमा करो।' मछुये की बात काट कर राक्षस बोला, 'मैं नास्तिक दैत्य हूँ। ईश्वर को नहीं मानता। दुर्भाग्य से मैंने प्रभु सुलेमान का कहना भी नहीं माना और उसी अपराध स्वरूप मुझे बर्तन में बन्द कर उन्होंने मुझे समुद्र में डलवा दिया। जब मैं समुद्र में डलवा दिया गया तो मैंने प्रण किया कि जो आदमी मुझको एक शताब्दी के भीतर लोटे से निकाल कर मुक्त कर देगा उसको मैं संसार का राजा बना दूँगा, पर किसी ने मुझे नहीं निकाला। फिर मैंने प्रण किया कि जो अगली शताब्दी में मुझे निकालेगा। उसको मैं मालामाल कर दूँगा, पर तब भी मुझे किसी ने नहीं निकाला। इसके बाद मैंने फिर प्रण किया कि अगली शताब्दी में जो मुझे आजाद करेगा उसको मैं मुँह मांगी मौत दूँगा। तुम इसी प्रतिज्ञा के अन्दर आते हो अतः मुँह मांगी मौत के अधिकारी हो। बोलो कैसी मौत मरना चाहते हो?' राक्षस की बातें सुनकर मछुआ असमंजस में पड़ गया। उसे अपनी जान की फिक्र पड़ी। सोचने लगा कि मैंने इसकी जान बचाई जब यही मेरी जान लेने पर तुला है। हे ईश्वर! रक्षा करो। काफ़ी सोचने के बाद उसे एक युक्ति सूझ पड़ी और वह राक्षस से बोला, 'आप जो कह रहे हैं वह तो ठीक है पर मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि आप का इतना विशालकाय शरीर इस छोटे से बर्तन में कैसे समा गया। क्या वास्तव में ही आप इस बर्तन में से निकले हैं। या आकाश से प्रकट हुए हैं?' क्या तुम्हें विश्वास नहीं कि मैं इस बर्तन में से निकला हूँ?' 'बिलकुल नहीं?' मछुआ बोला। 'अरे भाई! मैं तुम्हारे सामने ही तो इस बर्तन में से निकला हूँ। तुम्हें विश्वास क्यों नहीं हो रहा?' राक्षस बोला। 'क्या तुम मुझे बर्तन में फिर घुस कर बता सकते हो?' मछुआ बोला। 'क्यों नहीं?' राक्षस बोला, 'मैं अभी बर्तन में घुसता हूँ।' कहने के साथ ही धुँआ बनकर राक्षस फिर बर्तन में घुस गया। दैत्य के बर्तन में घुसते ही मछुये ने उसकी डाट लगा दी। दैत्य बोला, 'कहो! अब भी विश्वास हुआ कि नहीं कि मैं बर्तन में था?' 'हो गया!' मछुआ बोला, 'पर अब तुम मुझको यह बताओ कि अब मैं तुम्हें उथले पानी में डाल दूँ या गहरे जल में पधरा दूँ?' राक्षस घबरा कर बोला, 'मुझे फिर से पानी में मत डालना। मैं कसम खाता हूँ कि बाहर निकलने के बाद तुम्हें कोई नुकसान नहीं पहुँचाऊँगा मुझे मुक्त कर दो!' 'मुझे तेरा कोई भरोसा नहीं, क्योंकि मैं जानता हूँ कि साँप को जितना दूध पिलाओ यह जहर ही उगलता है' कहकर मछुये ने बर्तन गहरे जल में फेंक दिया। यह कहकर हिन्दबाद सिन्दबाद की ओर देखकर बोला, 'कहो! किस्सा पसन्द आया?' 'बहुत सुन्दर!' कहकर सिन्दबाद ने हिन्दबाद को सौ सोने की मुहरें दीं और बोला, 'अब मैं तुम्हें अपनी तीसरी यात्रा का हाल सुनाता हूँ। दोनों यात्राओं में मैंने कितने कष्ट झेले उन्हें मैं अभी तक भूला नहीं था। मैंने सोचा कि जितनी अधिक यात्राएं करूँगा उतना ही अधिक धनवान बनकर आनन्द से जीवन व्यतीत करूँगा अतः मैंने तीसरी समुद्री यात्रा करने का निश्चय कर लिया। मैंने तीसरी यात्रा बगदाद से आरम्भ की फिर मैं बाँसरे आ पहुँचा। वहाँ कुछ भरोसे के व्यापारियों के साथ एक जहाज़ में माल लाद कर मैं उत्त्र की तरफ़ चल पड़ा। हम अनेक द्वीपों में माल क्रय-विक्रय करते चले जा रहे थे कि सहसा प्रचण्ड वायु ने हमारे जहाज़ को जल विचलित कर दिया और हम कहीं से कहीं जा पहुँचे। खाने-पीने की चीजें समाप्त हो चुकी थी। जहाज़ की दशा बड़ी हीन हो गई थी। बड़ी कोशिशों के बाद हमारा जहाज़ द्वीप के किनारे लगा। जब जहाज ने लंगर डाला और हम द्वीप पर उतर पड़े तो कप्तान बोला, 'यह द्वीप वनमानुशों का मालूम पड़ता है। हम सब की जान संकट में है। जल्दी ही जहाज़ पर आ जाओ।' कप्तान की बात खत्म होने से पहले ही मैंने देखा कि नाटे सवागज के आकार वाले वनमानुशों का झुण्ड जिनके शरीर पर लाल बाल हैं, हमारी ओर दौड़ा चला आ रहा है। थोड़ी देर बाद वे पानी में तैरने लगे और देखते ही देखते उन्होंने हमारा जहाज़ चारों तरफ़ से घेर लिया। जहाज़ के लंगर की रस्सी काटकर वे हमें अपने निवास स्थान पर ले गये। कप्तान कुछ साथियों सहित नाव लेकर भाग गया। वे हमें घेर कर एक खण्डहर के बड़े आँगन में जहाँ आदमियों के अस्थि पिंजर पड़े थे, ले गये। मैंने देखा कि वहाँ चारों तरफ़ माँस भूनने की सलाखें पड़ी थी। उन्होंने हमें चारों तरफ़ से घेर लिया। कुछ देर बाद हमें वहाँ बन्द करके वे सब चले गये। हम अकेले रह गये। सूरज छिपते ही खण्डहर का द्वार खुला तथा लोहे के शरीर वाला बलिष्ठ अति डरावना ताड़ वृक्ष के समान विशालकाय वनमानुष अन्दर प्रविष्ट हुआ। उस राक्षस की आँखें आग उगल रहीं थी। आगे वाले दाँत शेर की तरह बाहर निकले हुए थे। उसके मुँह के नीचे वाला होंठ उसकी छाती तक लटक रहा था। उसकी लार टपकने से चारों ओर दुर्गन्ध फैल गई थी। उसके हाथी के से चौड़े और टेढे कान बड़े भयावने थे। नाखून उल्लू के सू गोल थे। उस राक्षस को देखकर हम सब बेहोश हो गये। अब मेरी आँखें खुली तो मैंने देखा कि राक्षस हम में से हर एक हो उठा कर हर एक की परीक्षा कर रहा है। मैंने अनुमान लगाया कि जिस तरह वध करने से पहले कसाई दुर्बल और ताक़तवर बकरियों की परीक्षा उसका सिर पकड़कर और उठा कर करता है उसी प्रकार खाने से पहले वह हमारी परीक्षा कर रहा है कि कौन आदमी हट्टा-कट्टा है और जिसका माँस अधिक जायकेदार है। अन्त में राक्षस ने मुझे भी उठाकर देखा, पर मेरे शरीर में हड्डियों के अतिरिक्त कुछ न था। इसी लिये उसने मुझे सबके बाद खाने के लिये छोड़ दिया अन्त में उसने एक हृष्ट-पुष्ट आदमी को पकड़ लिया उसे साबुत आग पर भूना और स्वाद से खाकर देहरी में आकर सो गया। सवेरा होते ही वह न जाने कहाँ चला गया। हम रात भर जाग कर ईश्वर से मृत्यु की भीख मांगते रहे। जब राक्षस दूर निकल गया तो हमने रोना शुरू किया। हालाँकि हम कई थे। और राक्षस अकेला, फिर भी प्राण बचाने का कोई मार्ग दिखाई नहीं पड़ रहा था। हम दिन भर पेड़ों से गिरी मेवा को खाते रहे। जब रात हुई तो राक्षस फिर आया और हम में से एक को ज़िन्दा आग में भून कर खा गया। और डयोढी में आनन्द से सो गया। दूसरे दिन मेरी राय से बिना आवाज किये समुद्र के किनारे पर जाकर सब ने लकड़ियों तख्तों और नारियल की जटाओं द्वारा तीन-चार नौकायें बना ली और पेड़ों से उनको बाँध दिया और फिर अपने स्थान पर आ गये। नियमानुसार राक्षस फिर आया और उसने हम में से आज भी एक को ज़िन्दा आग में भून कर खा डाला। वह आनन्द से फिर देहली पर सो गया। मैंने सब गोश्त भूनने की दो सलाखें जलती आग पर रख दीं जब वे लाल हो गयी तो उनको राक्षस की दोनों आँखों में घुसा दिया। फलतः उसकी आँखें जल गयी और वह अन्धा होकर चीखने चिल्लाने लगा। राक्षस गुस्से से चारों तरफ़ दौड़ भाग कर ओर हाथ-पैर मार-मार कर हमें पकड़ने का प्रयत्न करने लगा किन्तु हम उनकी पकड़ में नहीं आये। हम भाग कर समुद्र के किनारे गये। नावों की रस्सियाँ खोलकर उसमें बैठकर उन्हें खेने लगे ताकि राक्षस आकर फिर न पकड़ ले। पर तभी मेंने देखा कि उसी अन्धे राक्षस का हाथ पकड़े दो राक्षस हमारी ओर चले आ रहे हैं। और भी अन्य राक्षस आगे पीछे समुद्र के किनारे हमारी ओर दौड़े चले आ रहे थे, परन्तु हम शान्तिपूर्वक अपनी नौकायें खेने में तल्लीन थे ताकि उनकी सीमा से बाहर हो जायें। उन से और कुछ तो बन नहीं पाया। वे जल में उतर कर बड़े-बड़े पत्थर हमारी नौकाओं की तरफ़ फेंकने लगे अतः सब नौकायें आदमियों सहित गहरे पानी में डूब गयी, सिर्फ एक नाव जिनमें अपने दो साथियों सहित मैं बैठा था बची रहीं। जब हम काफ़ी दूर निकल गये तो समुद्र में तूफान आ गया और प्रचण्ड वायु के कारण एक दिन और एक रात्रि तक हम इधर-उधर भटकते रहे। दूसरे रोज़ भगवान की दया से हम एक द्वीप के किनारे जा लगे। मेवाओं के वृक्षों से मेवा तोड़ कर खाकर और जल पीकर हम सो गये। आधी रात के समय खड़खड़ाहट की आवाज सुनकर मेरी आँखें खुल गयीं मैंने जो देखा तो चीख मार कर खड़ा हो गया। एक डरावना अजगर साँप मेरे एक साथी को तोड़-मरोड़ कर ले जाने का प्रयास कर रहा था। मैं डर कर बुरी तरह काँप उठा। हालाँकि मैं डर कर अन्य साथी सहित दूर भाग गया पर वहाँ भी अजगर द्वारा मेरे साथी की हड्डियों तोड़ने का स्फुट शब्द मेरे कानों तक पहुँच मेरे प्राणों को छटपटा देता था। अतः वह रात बड़ी बुरी तरह बीती। दूसरे दिन साँझ के समय एक ऊँचे वृक्ष पर जा लेटा। मेरा साथी नीचे लेटा था। तभी रात को मैंने साँप की आवाज सुनी। मैंने आँखें खोली तो अजगर मेरे दूसरे साथी को भी निगल रहा था। मैंने थरथर काँपते हुए वह रात वहीं बिताई यह सोचकर की अजगर अन्य मेरे दो साथियों की तरह मुझको भी खा जायेगा मैं समुद्र में डूब कर आत्म-हत्या करने चला गया। पर शायद अभी मेरा जीवन शेष था। समुद्र के किनारे पहुँचते ही मुझे एक जहाज़ जाता हुआ दिखलाई दिया। मैंने हल्ला मचाना शुरू किया। जहाज़ के कप्तान को मुझ पर दया आ गई और छोटी नौका भेज कर उसने मुझे बुला लिया। जहाज़ में बैठे हुये आदमी मुझ से पूछने लगे, 'ऐसे भयंकर जंगल में तुम किस प्रकार आकर फँस गये? हमने सुना है इस द्वीप में आदमी भून कर खाने वाले राक्षस और दो-दो आदमियों को एक बार एक में साथ निगलने वाले कई अजगर सर्प रहते हैं। फिर तुम किस प्रकार ज़िन्दा बच गये?' मैंने सबको शुरू से आख़िर तक अपनी दुखांत कथा सुना डाली। सब को मुझ पर दया आई और उन्होंने मेरे भोजन का प्रबन्ध दया करके कर दिया। अनेक द्वीपों पर हम होते हुए हम सिलहट आये जहाँ चन्दन के पेड़ पैदा हुआ करते हैं। जब व्यापारी अपना-अपना माल उतारने लगे तो कप्तान ने मुझसे कहा, 'एक व्यापारी का माल बहुत दिनों से मेरे जहाज़ में सुरक्षित रखा है। वह व्यापारी तो मर गया। मेरी इच्छा है कि उसके माल को मैं बगदाद पहुँच कर उसके परिवार वालों को दे दूँगा। अगर तुम उसके माल को क्रय-विक्रय कर कुछ लाभ करना चाहो तो मैं उसे तुम्हें दे दूँ। उसके कुटुम्वियों को मैं उसके माल के दाम बगदाद पहुँच कर भिजवा दुँगा।' मैंने कप्तान को बहुत-बहुत धन्यवाद दिया। कप्तान ने अपने मुनीम को अपने पास बुलाया और बोला, 'मरहूम सिन्दबाद का माल इन महाशय के हवाले कर दो।' मैं अपना नाम सुनकर दंग रह गया और बार-बार कप्तान को देखने लगा। मुझे विश्वास हो गया कि मेरी दूसरी यात्रा में जहाज़ पर यही कप्तान तैनात था। यह माल मेरा ही है। यह वनमानुषों से बच कर निकल भागा था। निस्संदेह यह वही कप्तान है। मैं कप्तान से बोला, 'आपको पूरा भरोसा है कि सिन्दबाद मारा गया?' कप्तान ध्यान से मुझे देखने लगा और बड़ी देर बाद मुझे पहचान कर उसने मुझे अपने गले लगा लिया। और बोला, 'भगवान को लाख-लाख बार धन्यावाद जो तुमसे पुनः भेंट हो गई। कप्तान ने सब माल मेरे हवाले कर दिया। इस द्वीप में मैंने पचास और साठ हाथ लम्बे मगरमच्छ भी देखे। एक मच्छी ऐसी देखी जो गाय के समान दूध देती थी एक मछली ऊँट की तरह देखी। इस प्रकार भ्रमण करते हुये मैं पुनः बाँसरे पहुँचा। वहाँ से बगदाद आ गया। इस यात्रा में मुझको अपरंपार धन की प्राप्ति हुई। कहकर सिन्दबाद ने हिन्दबाद को पुनः सौ मुद्राएं पारिश्रमिक स्वरूप भेंट की और कल को चौथी यात्रा का वर्णन सुनाने का वचन देकर उसे विदा किया।

अगले दिन अपने नियत समय पर हिन्दबाद सिन्दबाद की चौथी यात्रा का वर्णन सुनने उनके महलों में दाखिल हो गया। द्वार-पालों ने उसका अभिनन्दन किया और उनमें से एक ने हिन्दबाद के आने की खबर सिन्दबाद को पहुँचा दी। हिन्दबाद के आने की खबर सुनकर स्वंय सिन्दबाद द्वारपाल के साथ द्वार तक आया और हिन्दबाद को अपने साथ अन्दर ले गया। हिन्दबाद को चौकी पर बिठा कर सिन्दबाद अपने स्थान पर बैठ गया। सेवक दोनों पर पंखा झलने लगे। हिन्दबाद के लिये एक तश्तरी में फल और छोटे से बर्तन में बढ़िया मीठी शराब आई। फलों को खाकर हिन्दबाद ने शराब पी कर डकार लेकर वह सिन्दबाद की चौथी यात्रा का हाल सुनने बैठ गया।

सिन्दबाद की चौथी यात्रा
सिन्दबाद बोला,“भोग विलास में अपनी तीनों यात्राओं के कष्टों और भयंकर अनुभूतियों को मैं बिसार बैठा। मेरी इच्छा हुई कि समुद्री यात्राएं करके अधिक से अधिक धन अर्जन करूँ और स्थान स्थान का भ्रमण करूँ ताकि अनेक घटनायें देखने को मिलें। जब यात्रा करने का दृढ़ निश्चय कर चुका तो विश्वास पात्र व्यापारियों के साथ जहाज़ तय करने चला गया। मैंने अपने जहाज़ में नाना प्रकार का माल खरीद कर विक्रय के लिये रखा और ´फ़ारस` की ओर चल दिया। मार्ग में बहुत से नगर देखता हुआ मैं एक बन्दरगाह पर पहुँचा और जहाज़ में सफर करता हुआ ´तीरा` ´फिर्मा` आदि पूर्वी बन्दरगाह की तरफ़ जा पहुँचा। एक रोज़ अचानक हवा का प्रचण्ड धक्का हमारे जहाज़ में लगा। कप्तान ने जहाज़ के सब पाल मल्लाहों से खुलवा दिये और कोई भी घटना घट सकती है। सूचना सब को दे दी और जहाज़ की रक्षा करने के विविध उपाय किये जाने लगे। मल्लाहों और कप्तान द्वारा अनेक कोशिशें करने पर भी जहाज़ की रक्षा ना की जा सकी, और मनोरथ सिद्ध हो सका जहाज़ के तमाम पाल फट गये। जहाज़ रेती में फंस गया। फलस्वरूप टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गया। इस सफर में सब माल नष्ट हो गया। बहुत से व्यापारी मर गये। जब मैं चेत में आया तो मैंने दस-बीस यात्रियों सहित ख़ुद को तख्तों पर तैरते देखा। तख्तों ने हमारे प्राण बचा दिये। मैंने भगवान को लाख-लाख धन्यवाद दिया। गिरते-पड़ते तैरते हुए एक द्वीप के किनारे जा लगे। हम बुरी तरह थक चुके थे अब पेड़ों से फल तोड़ कर उन्हें खाकर वहीं सो गये। जब हमारी आँखें खुलीं तो हम बुरी तरह घबरा चुके थे। कोई अपने बच्चों की याद करके रोता था और कोई अपने भाग्य को कोसता था। दूसरे दिन हम सुरक्षित स्थान पाने की इच्छा से इधर-उधर घूम रहे थे कि हम को चारों तरफ़ से राक्षसों ने घेर लिया और आपस में जानवरों की तरह बाँट कर हमें अपने घरों में पकड़ ले गये। एक राक्षस की बाँट में मुझ सहित हम पाँच व्यापारी आये। वह हमको एक निर्जन घर में ले गया और वहाँ हम को उसने बन्दी बना दिया। कुछ देर बाद राक्षस ने हमारे सामने कुछ हरी सब्जी और फल रख दिये और उन्हें खाने का इशारा करने लगा। मैंने अपने साथियों से बहुत कहा कि वे उनको न खायें पर वे भूखे थे इसलिये उन्होंने मेरी बात न मानी और खाने लगे। सब्जी और फलों में कोई ऐसी नशीली चीज मिली हुई थी कि पेट में पहुँचते ही वे अपने ज्ञान को खो बैठे और मजे से झूमने लगे। सबको नशे में धुत्त देखकर राक्षस ने नारियल के तेल में तला हुआ पकवान हमारे सामने रख दिया और हमें खाने को संकेत करने लगा। मेरे साथी पकवान देखकर नशे में उस पर टूट पड़े और रूच-रूच कर खाने लगे परन्तु मैं समझता था कि ये मानव भक्षी राक्षस हैं। माँस अधिक उपलब्ध हो सके इसी कारण हमें पौष्टिक आहार खाने को दे रहा है अतः बहुत भूखा होने पर भी मैंने नहीं के बराबर उसमें से पकवान खाया इसी कारण मैं काफ़ी कमजोर होता चला गया। काफ़ी दिनों तक हमको ऐसा ही भोजन मिला। खाना खाकर व्यापारी बहुत काफ़ी हृष्ट-पुष्ट हो गये, परन्तु मैं पहले से भी अधिक कमजोर हो गया। मेरे चारों साथियों का हृष्ट-पुष्ट देखकर राक्षस ने उन्हें ज़िन्दा ही भून कर खा लिया, परन्तु मुझे कमजोर देखकर किसी दूसरे वक्त के लिये रख लिया और अकेला समझ कर उसने मुझे आजाद कर दिया। एक रोज़ राक्षसों का परस्पर भोज था। सब राक्षस भोज में गये थे। एक बूढ़े राक्षस के अलावा मेरे पास कोई नहीं था। अच्छा अवसर देखकर मैं वहाँ से भाग निकला। एक-दो पल फल खाने के लिये कहीं ठहर जाता और फिर एक ही श्वास में लम्बी चौकड़ी भरता। इस तरह एक हफ्ते तक मैं भागता रहा। केवल पल दो पल को तभी रुकता था जब कि भूख में फल खाने की इच्छा होती थी या रात को नींद सताती थी। आठवें रोज़ मैं काले पानी के निकट पहुँचा। वहाँ मैंने बहुत से आदमियों को काली मिर्चें बीनते हुए देखा। बहुत से आदमियों को काली मिर्चें बीनते देखकर मैं आनन्द विभोर हो गया। कुछ आदमी मेरे पास आकर अरबी भाशा में मेरा परिचय पूछने लगे। अपनी मातृभाषा सुनकर मेरा रोम-रोम पुलकित हो उठा। मैंने शुरू से लेकर आख़िर तक अपनी दुःख पूर्ण कथा कह डाली। वे आश्चर्य से बोले, “धन्य है उस ईश्वर को जिसने मानव-भक्षी राक्षसों से तुम्हारे प्राणों की रक्षा की।” मैं उन्हीं व्यापारियों के साथ रहने लगा। कुछ रोज़ बाद जब मिर्चें जहाज़ में लादकर वे अपने घर पहुँचे तो उन्होंने मुझे अपने बादशाह के दरबार में जाकर उपस्थित कर दिया। बादशाह मेरी कहानी सुनकर बहुत अचम्भित हुआ और दया करके उसने मुझे अपने राज्य में रहने की आज्ञा दे दी। यह द्वीप काफ़ी बड़ा था। व्यापारी यहाँ आया ही करते थे। उन्हें देखकर मुझे बहुत बड़ी प्रसन्नता होती थी। मैं इसी फिराक में रहता था कि कोई व्यापारी बगदाद से माल से लदा जहाज़ लेकर यहाँ आये और मैं उसके साथ ही बगदाद लौट चलूँ। मैं राजा की जो सेवा करता था उससे प्रसन्न होकर उसने मुझे अपना राज्य का मुख्य कर्मचारी पद प्रदान कर दिया। वहाँ के निवासियों से मैं ऐसा घुल-मिल गया कि कोई मुझे विदेशी नहीं समझता था। मैंने वहाँ के सेनापति, जनता, सेना और स्वयं राजा तक की घोड़ों पर बिना जीन और लगाम के सवारी करते देखा, क्योंकि वे जानते तक न थे कि जीन किस काम आती है। मैंने एक चमार को लगड़ी का नाप समझाया और काठी और रकाब, लगाम आदि लुहार के सहयोग से बनवाई. इसके बाद मखमल से बनी जीन राजा को भेंट कर दी। उसे देखकर राजा बहुत ख़ुश हुआ। उसने मुझे बहुत सा धन प्रदान किया। मैंने अनेक जीन आदि बनवा कर मंत्री आदि को भेंट कीं। उन लोगों ने भी मुझे काफ़ी धन दिया। एक दिन राजा ने मुझे सबेरे ही बुलाकर कहा, “क्या तुम मुझे वचन दे सकते हो कि मैं तुमसे जो कहूँ उसे पूर्ण करोगे?“ ”आप जो आज्ञा करेंगे वह मेरे लिए शिरोधार्य होगी।” मैं बोला। “मैं तुम्हारी शादी कर देना चाहता हूँ ताकि तुम इस द्वीप को छोड़ कर कहीं जाने का नाम न लो।” राजा ने आग्रह किया। मैं मान गया। राजा ने अपने कुटुम्ब की परम सुन्दरी युवती के साथ बड़ी धूमधाम से मेरा विवाह सम्पन्न कर दिया। मैं पत्नी सहित सुख से जीवन व्यतीत करने लगा। मैं उस युवती के प्रेम में यह भी बिसार बैठा कि बगदाद में मेरी पत्नी और बच्चे रहते हैं। बहुत समय बाद एक आदमी की पत्नी का देहान्त हो गया. मैं शिष्टाचार के नाते उसके घर गया और पुरूष को धीरज बँधा कर बोला, “भगवान तुम्हारी उम्र लम्बी करे...।” पत्नी की मृत्यु से दुखी वह आदमी बोला, “श्रीमान ! आपका दिया हुआ आशीर्वाद मुझे फल दायक सिद्ध नहीं हुआ। मेरी उम्र अब पूरी हो चुकी है। इस देश का यह नियम है कि स्त्री की मृत्यु के बाद पुरूष और पुरूष की मृत्यु के पश्चात स्त्री मृतक के साथ ही पहाड़ की गहरी कन्दरा में डाल दिये जाते हैं. अतः अब मुझे भगवान भी नहीं बचा सकेगा...।” यह बुरी प्रथा देखकर मैं अचम्भित रह गया। सैकड़ों बिच्छुओं के काटने पर जो दशा होती है वही मेरी हो गई। तभी मृतक पत्नी के पति के मित्र-बान्धव आकर मृतक को नहला कर उसका श्रृंगार करने लगे। तत्पश्चात खुली अर्थी में रख कर उत्साह पूर्वक उसे ले चले। पीछे-पीछे उसका पति शोक चिन्ह धारण किये चलने लगा। जब सब लोग पहाड़ के पास पहुँचे तो कन्दरा के मुँह पर ढंकी भारी पत्थर की शिला को उन्होंने हटाकर कन्दरा का मुँह खोला और अर्थी सहित मृतक का शव उसमें डाल दिया। इसके बाद मृतक पत्नी का पति सबसे क्षमा माँगने लगा। जब वह सबसे क्षमा माँग चुका था तो उसे एक घड़ा जल और सात रोटियों सहित उस गुफा में धकेल दिया गया। इसके बाद पहले की तरह कन्दरा का मुख शिला से ढाँप कर वे अपने-अपने घर चले गये। मैंने राजा से इस बुरी प्रथा का काफ़ी विरोध किया और आग्रह किया कि इस प्रथा को शीघ्र ही बन्द करवा दिया जाए। सरासर अत्याचार है। परन्तु राजा बाला, “यह नियम हमारे यहाँ चिरकाल से चला आ रहा है भगवान न करे कि कल को मेरी रानी मर जाए तो मुझे भी इसी प्रथा का अनुकरण करना पड़ेगा...।” मैंने कहा, “आपका यह नियम आपके यहाँ के निवासियों पर ही लागू होता है। विदेशियों पर तो यह बन्धन नहीं है...।” राजा ने उत्तर दिया, “देशी विदेशी कोई भी हो, स्त्री या पुरूष सबको ही इस नियम का पालन करना पड़ता है।” मैं सोचने लगा कि ईश्वर न करे कल मेरी स्त्री मर जाये तो मुझे भी ये लोग इसी कंदरा में धकेल जायेंगे। भगवान की शायद यही इच्छा थी। कुछ दिन बाद मेरी स्त्री का स्वर्गवास हो गया। यह देखते ही मैं तड़-फड़ा उठा। अच्छा होता मुझे राक्षस ही खा जाते। यह दिन तो देखने को न मिलता। तभी राजा कुटुम्बियों सहित मेरे घर आया। बहुत से कर्मचारी और प्रजा गण उसके साथ थे। उन्होंने मेरी मृत पत्नी को स्नान करा कर वस्त्र आभूषणों से सजाया और खुली अर्थी में उसी कन्दरा की तरफ़ ले चले। रिवाज़ के अनुसार मैं अर्थी के पीछे-पीछे रोता हुआ चलने लगा। हम उस कन्दरा के पास पहुँचे तो मैंने राजा से विनती की, राजन! मैं विदेशी हूँ। मुझ पर दया करो। बगदाद में मेरी पत्नी और बच्चे...।” परन्तु राजा का हृदय नहीं पसीजा और एक सुराही जल और कुछ फलों सहित एक तख्त पर बिठा कर मुझे उस कन्दरा में उतार दिया। मेरी पत्नी को तो वे पहले ही डाल चुके थे। मैंने पत्नी की लाश को एक तरफ़ किया और तख्त से उतर जल व भोजन अलग रख दिया। वे लोग तख्त को लेकर शिला का मुँह ढाँप कर अपने-अपने घर चले गये। मैंने अनुमान लगाया कि मैं पचास हाथ गहरे गड्ढे में बैठा हूँ। दुर्गन्ध से मेरी नाक सड़ी जाती थी। मैं बुरी तरह रोने लगा। भाग्य को कोसने लगा। अन्त में यह सोचकर कि भगवान जो करता है अच्छा ही करता है मैंने ख़ुद को धीरज बँधाया। कुछ दिनों तक मेरा भोजन और जल चलता रहा। जब खत्म हो गया तो मैं भूखा रहने लगा। काफ़ी दुर्बल होकर मरणासन्न हो गया। कई दिनों बाद मैंने कन्दरा के मुख पर से शिला हटने की शब्द सुना. मैं समझ गया कि फिर कोई मर गया है। आदमियों ने एक आदमी के शव के साथ एक ज़िन्दा औरत को कन्दरा में सात रोटी और जल सहित डाल दिया और शिला बन्द करके चले गये। मैं बहुत भूखा था। एक कंकाल के पैर की हड्डी उठाकर मैंने उस औरत के सिर में दे मारी और उसका भोजन छीन कर मैं स्वंय खाने लगा। बाद में भर पेट उसका पानी पिया। एक समय के भोजन के लिये मैंने एक ज़िन्दा स्त्री को मौत से पहले ही मार डाला. यह सोचकर आज भी मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। दूसरे रोज़ उसी कन्दरा में मृत स्त्री के साथ भोजन पानी सहित एक ज़िन्दा आदमी डाला गया। मैंने उसे भी मारकर उसका भोजन पानी छीन लिया। उस दिन के बाद तो मैं शहर में ऐसी महामारी फैली कि लगातार एक-दो शव के साथ जीवित स्त्री-पुरूष उस कन्दरा में डाले जाते और मैं उनका भोजन पानी छीन लिया करता। एक रोज़ मैं एक औरत का भोजन-पानी ला रहा था। कि अचानक किसी के साँस लेने की आवाज मेरे कानों में पड़ी मैं उसी आवाज की तरफ़ चल पड़ा. मैंने महसूस किया कि कोई धुप-धुप करता भागा चला जा रहा है। मैं भी उसी के पीछे भागने लगा। आगे सूरज की रोशनी का कुछ प्रकाश नजर आया। जब मैं उस प्रकाश के निकट पहुँच गया तो एक बड़ा छेद मुझे दिखलाई दिया। मैं उसी में से होकर बाहर निकल गया। बाहर निकल कर मैंने देखा कि गड्ढे से सटी हुयी नदी कल-कल शब्द करती हुई बह रही है। मैंने सोचा शायद कोई पानी का जन्तु माँस खाने के लिये गड्ढे में घुसा होगा और उसी ने यह छेद किया होगा। मैंने भगवान का हज़ारों धन्यवाद दिये कि यह छेद नगर वासियों को दिखलाई नहीं दे सका, क्योंकि नगर की तरफ़ ऊँचा पहाड़ था और दूसरी तरफ़ नदी का बहाव. अतः मेरे प्राण बच गये। मैं पुनः उस गड्ढे में घुसा। रोटियाँ और रत्न जड़ित आभूषण मैंने गठरियों में बाँधकर गड्ढे के बाहर रख लिये और नदी किनारे ही रहने लगा। दो-तीन दिन बाद भगवान की कृपा से मुझे एक जहाज़ वहाँ से जाता हुआ नजर पड़ा। मैंने पगड़ी हिला और शोर मचा कर कप्तान का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयत्न किया। उसने नाव भेज कर अपने जहाज़ पर शरण दे दी। जहाज़ पर शरण लेते ही कप्तान ने मेरा परिचय जानना चाहा। मैंने शुरू से लेकर अन्त तक सब कथा सुना दी। मैंने अपना पोटलियों में से कुछ गहने निकालकर कप्तान को देने चाहे, पर काफ़ी आग्रह करने पर भी उसने मुझ से कुछ नहीं लिया। अब अनेक द्वीपों से होता हुआ हमारा जहाज़ नील द्वीप में जो लंका से दस रोज़ के रास्ते पर है गया। वहाँ से हम कलि द्वीप में पहुँचे जिसमें ईख, कपूर आदि हिन्दुस्तान की चीजें पैदा होती थीं। अनेक द्वीपों में होते हुये हम बगदाद पहुँचे। इस यात्रा में मुझे अपार धन की प्राप्ति हुई। घर आकर मैंने काफ़ी दान दिया। बहुत सी धर्मशालायें और मसजिदें बनवाई। सदा व्रत का भी इन्तज़ाम धर्मशालाओं में करवाया। कुटुम्बियों को मैंने अमूल्य तोहफे उपहार में दिये।“ कहकर सिन्दबाद ने हिन्दबाद को सौ स्वर्ण मुद्राएं भेंट की और कल को अपनी अगली यात्रा का वर्णन सुनाने का वचन देकर उसे विदा किया।

सिन्दबाद की पांचवी यात्रा का वर्णन
हिन्दबाद सिन्दबाद की पांचवी यात्रा का वर्णन सुनने अपने नियत स्थान पर आ गया। खा पीकर जब वह ठीक प्रकार से बैठ गया तो सिन्दबाद बोला:-
“कुछ समय सुखपूर्वक रहने के पश्चात मैंने फिर समुद्री यात्रा करने का इरादा किया। मैंने थोड़ा-सा व्यापारिक माल खरीदा और उसको सवारी पर लादकर उस बन्दरगाह की ओर चला जो बगदाद के पास था। मैंने सोचा कि अब की बार ख़ुद ही अपना जहाज़ बनवाकर उसमें यात्रा की जाए. अतः ख़ुद का जहाज़ बनवाकर उसमें कुछ भरोसे के यात्री लेकर मैंने काले पानी से भ्रमण करना शुरू किया। कुछ ही रोज़ बाद हमारा जहाज़ एक उजाड़ से निर्जन टापू के पास जा पहुँचा। हमने निश्चय किया कि टापू की सैर की जाए अतः व्यापारियों सहित मैं द्वीप की सैर को निकल पड़ा। कुछ दूर जाने के बाद हमने पास ही शरभ (गरूड के समान) पक्षी का अंडा रखा देखा जैसा पहली और दूसरी यात्रा में मैं वर्णित कर चुका हूँ। अंडा पूरी तरह से पक्षी द्वारा सेया जा चुका था और बच्चा निकलने ही वाला था। पर मेरे साथियों ने जहाज़ से कुल्हाड़ियाँ लाकर उसे तोड़ डाला और अंडे से निकले बच्चे को सब ने भून कर खा डाला। तभी बादलों से भरे आकाश की तरफ़ हमें दो पक्षी अपनी ओर आते दिखलाई पड़े। कप्तान मेरा सेवक था ही। उसने दूरबीन से यह दृश्य देखकर ज़ोर से सूचना देना शुरू किया, “जल्दी से सब जहाज़ पर आ जाओ। जिस बच्चे को तुमने अंडे से अभी निकालकर खाया है उस माँ-बाप गुस्से से भरे चले आ रहे हैं। वे एक को भी ज़िन्दा नहीं छोड़ेंगे...।” कप्तान द्वारा सूचना पाकर हम दौड़कर अपने जहाज़ पर जा पहुँचे। हमारे जहाज़ पर पहुँचते ही कप्तान ने तेज रफ्तार से जहाज़ चलाना शुरू कर दिया, पर शरभ पक्षी अपने अंडे को टूटा पड़ा देखकर चीखते हुये हमारी तरफ़ बढ़ने लगे। हम थरथराने लगे। शरभ कुछ दूर उड़कर अपने पंजों में बड़े-बड़े पत्थर उठाकर जहाज़ के ऊपर ले जाने और उन्हें तड़ा-तड़ गिराने लगे, लेकिन कप्तान ने बड़ी होशियारी से जहाज़ को घुमा दिया और हमारा जहाज़ बच गया। पत्थर नदी में गिर पड़े। बड़ी-बड़ी चट्टानों के समान पत्थर पानी में गिरने से भयंकर आवाज हुई। पानी उथल-पुथल होकर रह गया। पर शरभ गुस्से में थे। अब की बार पहले से भी बड़ी शिलायें पंजों से दबाकर उन्होंने हमारे जहाज़ के ऊपर डाल दीं। फलस्वरूप जहाज़ टुकड़े-टुकड़े हो गया। जहाज़ के टुकड़े होने पर सब आदमी नदी में डूब गये। पहले तो मैं भी नदी में डूब गया, परन्तु जब पानी ने मुझे ऊपर उछाट मारी तो पास ही बहने वाले एक तख्ते को मैंने पकड़ लिया। तख्ते का सहारा पाकर मैं एक हाथ पानी में मार कर तैरने लगा। जब मेरा एक हाथ थक जाता था तो दूसरे हाथ को पानी में मार कर मैं तैरने लगता था। बड़ी मुश्किल से तैरते हुये मैं किनारे लगा। सूख स्थान पाकर मैं लेट गया और विश्राम करने लगा। कुछ आराम करने पर मन हुआ तो मैं आश्रय पाने के लिये इधर-उधर घूमने लगा। पेड़ों पर लदी मेवाओं को देखकर मैंने धरती पर से एक पत्थर उठाकर डाल में दे मारा। फलस्वरूप बहुत सी मेवा धरती पर आ गिरी। मेवे को मैंने खा कर भूख शान्त की और कल-कल बहते झरनों में से जाकर शीतल जल पिया और सन्तुष्ट होकर इधर-उधर निगाह दौड़ाने लगा। सूर्य छिप चुका था अतः सोने के अलावा दूसरा काम नहीं कर सकता था। असमर्थ होकर मैं सो गया, परन्तु डर के मारे मुझे रात भर नींद नहीं आई और मैं जागता ही रहा। सबेरे सूरज निकलने से पहले ही मैं इधर-उधर घूमने लगा तभी मुझे एक बूढ़ा आदमी जो अपने निचले धड़ से पंगु था मुझे वहाँ नजर आया। मैंने वृद्ध महाशय को झरने के निकट बैठा देख कर अनुमान लगाया कि शायद वह भी मेरी ही तरह आफ़त का मारा है। अतः मैंने उसे नमस्कार किया। मेरे नमस्कार करने पर भी वह कुछ न बोला। मैंने पूछा, “श्रीमान! किस आशय से आप यहाँ बैठे हुये हैं।” किन्तु उसने फिर भी मेरे प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया, और इशारे से मुझे यह बताने लगा कि मैं अपने कन्धे पर बिठा कर उसे जल के पार उतार दूँ। मैंने उसे अपने कन्धे पर बिठा लिया। जब मैं उसे पार ले जाकर उतारने लगा तो उस दुष्ट बूढ़े ने जिसको अब तक मैं कमजोर समझ रहा था अपने पैर मेरी गर्दन में लपेट कर इस तरह मेरा गला दबाया कि साँस रुक कर प्राण निकलने में कोई शक नहीं रह गया। मैं बेहोश होकर धरती पर गिर पड़ा, परन्तु उसने अपना पैर मेरे पेट पर गढ़ा दिया और लात से धक्का मारकर वह मुझे जंगल में घसीटने लगा। उसका संकेत पाकर मैं वृद्ध को अपने कन्धों पर चढ़ा कई रोज़ तक इधर से उधर नदी पार कराता रहा। मुझे वहीं पर बहुत से कद्दू पड़े हुए दिखे अतः मैंने एक बड़े कद्दू को साफ करके उसमें अंगूर का रस निचोड़ना शुरू कर दिया। जब कद्दू अंगूर के रस से लबालब भर गया तो मैंने उसको एक तरफ़ रख दिया जिससे वह रस कई दिन बाद बड़ी तेज नशीली शराब बन गया। जब एक रोज़ मैं उस दुष्ट वृद्ध को कन्धे पर चढ़ाये उधर को जा रहा था तो मैंने कद्दू उठाकर वही रस पी लिया। रस पीकर मैं नशे में झूमने लगा, अतः उस रोज़ कन्धे पर बैठे उस दुष्ट का कष्ट जरा भी महसूस नहीं हुआ और मैं गीत गाने और नाचने लग गया। मुझको नशे में आनन्द सविवल देखकर वृद्ध को भी शराब पीने की इच्छा महसूस हुई। मैंने उसी कद्दू की शेष मदिरा वृद्ध को दे दी। एक श्वास में बूढ़ा सब शराब पी गया। कुछ ही देर बाद वह नशे से झूमने लगा। मेरे कन्धे पर वह इधर-उधर हिलने लगा। इतना अच्छा अवसर देखकर मैंने उस दुष्ट बूढ़े को कन्धों से उतार कर धरती पर दे मारा और कद्दू और पत्थर उसमें फेंक-फेंक कर मारने लगा। जब वृद्ध मर गया तो मेरा संकट दूर हुआ। एक ठण्डी श्वास लेकर मैं नदी की तरफ़ चल पड़ा। तभी कई आदमियों से जो मीठा जल तलाश करने उधर आ निकले थे मेरी भेंट हुई। मुझे देखकर बोले, “उस दुष्ट बूढ़े से तुम्हें कैसे छुटकारा मिल पाया?” मैंने अपनी सब कहानी उन्हें सुनाई। वे दया करके मुझको अपने जहाज़ पर ले गये। एक व्यापारी मुझसे बहुत सहानुभूति दिखाने लगा था। जब हमारा जहाज़ एक द्वीप के किनारे पहुँचा तो उसने एक टोकरी मेरी तरफ़ बढ़ाते हुये कहा, “तुम हमारे सेवकों के साथ वन में जाकर नारियल तोड़ कर लाया करो।” मैंने यह सेवा सहर्ष स्वीकार कर ली और उस व्यापारी के सेवकों के साथ मैं नारियल के जंगल की तरफ़ चल पड़ा। जंगल में पहुँचकर मैंने देखा कि वहाँ ऊँचे तथा चिकने नारियल के पेड़ हैं। जिन पर चढ़ कर नारियल तोड़ना असम्भव सी बात है। अभी मैं यही सोच रहा था कि पेड़ों से नारियल कैसे तोड़े जाएँ, तभी बहुत से बन्दर कहीं से आकर वृक्षों पर कूदने-फाँदने लगे। मैंने बहुत से पत्थरों के टुकड़े साथियों से इकट्ठे करवाए। और साथियों सहित मैं उन पत्थरों को बन्दरों में मारने लगा। बन्दर भी गुस्से में आकर नारियलों को तोड़-तोड़ कर हम में मारने लगे। देखते ही देखते चारों तरफ़ नारियल ही नारियल धरती में बिखर गये और उनका भारी ढेर लगा गया। हमने बड़ी आसानी से अपनी टोकरियों को नारियलों से भर लिया। इससे उत्तम उपाय नारियल तोड़ने का वहाँ दूसरा कोई न था प्रातः सैकड़ों टोकरे उससे भर गये। मैं टोकरा भरे नारियलों को व्यापारी के पास ले गया। वह उन्हें देखकर बहुत ख़ुश हुआ और उनका मूल्य देकर मुझसे बोला, “इसी तरह तुम नारियल इकट्ठे करके लाते रहोगे तो कुछ ही दिनों में तुम इतना धन कमा लोगे कि आसानी से अपने घर पहुँच जाओ...।” उसी रोज़ से मैं लगातार नारियल तोड़ कर लाता रहा कुछ ही रोज़ मेरे पास बहुत से नारियल और धन हो गया। मैं किसी ऐसे जहाज़ की तलाश में था जो बगदाद जाता हो, क्योंकि मैं जल्दी से जल्दी बगदाद पहुँच जाना चाहता था। कुछ दिन पश्चात उस द्वीप में एक जहाज़ आया। मैं उसके कप्तान से मिलने गया। मैंने उसको अपना परिचय दिया। मेरी कहानी सुनकर वह बहुत प्रसन्न हुआ और उसी दिन से मेरा मित्र बन गया। मैंने अपने व्यापारी से विदा ली। अपने नारियलों को उस कप्तान के जहाज़ पर लादकर मैं वहाँ से चल पड़ा। मैं वहाँ से चल कर उस द्वीप में आया जहाँ काली मिर्चें पैदा हुआ करती थीं अपने नारियलों को मैंने वहाँ बेच दिया और उसके बदले में जहाज़ पर काली मिर्चें लीद लीं। जब में कुमारी द्वीप मैं पहुँचा जहाँ के निवासी शराब पीना अधर्म समझते हैं और सदा सत्य बोला करते हैं। मैंने उस स्थान से चन्दन और आबनूस खरीदा समुद्र से मोती भी निकलवाने लगा। भगवान की कृपा से अन्य व्यापारियों की अपेक्षा मैं अधिक मोती समुद्र से निकलवाने में सफल हो गया। उस स्थान से मैं बाँसरे की ओर चल दिया और वहाँ से बगदाद लौट आया। बगदाद आकर मैंने चन्दन, आबनूस, काली मिर्चें और मोती बेच दिये। मुझे अपार लाभ हुआ। मैंने लाभ का दसवाँ भाग दान कर दिया।